फाल्गुन मास के शुक्ल पक्ष की अष्टमी से लेकर पूर्णिमा तिथि तक को होलाष्टक माना जाता है. होलाष्टक को सनातन धर्म में अशुभ मान कर किसी भी तरह के मांगलिक कार्यों को इन आठ दिनों तक करने से परहेज किया जाता है. इस अवधारणा के पीछे दो अलग-अलग धार्मिक तर्क प्रचलित हैं. आइये जानते हैं, उन दोनों कारणों को कि आखिर क्यों होलाष्टक को अमांगलिक माना जाता है…
भक्त प्रह्लाद से जुड़ी कहानी
विष्णुपुराण में वर्णित कथा के अनुसार हिरण्यकश्यप ने इंद्र का राज छीन कर खुद को भगवान घोषित कर दिया और लोगों द्वारा वह अपनी ही पूजा करने की चाह रखने लगा. उसने अपने राज्य में विष्णु पूजा पर पाबंदी लगा दी. लेकिन, उसका पुत्र प्रह्लाद विष्णु का ही उपासक था. उसे फाल्गुन मास के शुक्ल पक्ष की अष्टमी से लेकर पूर्णिमा तक कई प्रकार से प्रताड़ित किया जाता रहा. कठोर यातनाओं के बावजूद वह विष्णु की पूजा करता रहता. क्रोध में आकर हिरण्यकश्यप ने आठवें दिन यानी फाल्गुन पूर्णिमा को अपनी बहन होलिका को आदेश दिया कि वह दिव्य वस्त्र ओढ़ कर अग्नि में प्रह्लाद को लेकर बैठ जाएं, ताकि वस्त्र के कारण होलिका बच जाये और प्रह्लाद जल कर मर जाये. लेकिन, यहां भी भगवान विष्णु ने उसकी रक्षा की और होलिका जलकर मर गयी. इसलिए होलिका दहन से पहले के इन आठ दिनों को अशुभ माना जाता है.
भगवान शिव ने तपस्या भंग होने पर कामदेव को किया था भस्म
शिवपुराण की एक प्रचलित कथा के अनुसार भगवान शिव ने फाल्गुन अष्टमी तिथि को ही कामदेव को भस्म किया था. तारकासुर के आतंक से तबाह देवताओं ने कामदेव को शिव की तपस्या भंग करने के लिए भेजा था. कामदेव के बाण से तपस्या भंग होने से क्रोधित शिव ने तीसरी आंख खोल दी थी और कामदेव वहीं जलकर भस्म हो गये थे. हालांकि, शिव ने फिर से कामदेव को जीवित कर दिया था.
सनातन धर्म के माननेवाले भक्त प्रह्लाद और कामदेव के भस्म होने की कथा के कारण कोई भी मांगलिक कार्य होलाष्टक में नहीं करते हैं. होलाष्टक में किसी भी मांगलिक कार्यों को नहीं करने की सलाह दी जाती है. इन कथाओं के कारण ही होलाष्टक को अमांगलिक मान लिये जाने की बात कही जाती है.