Anusuiya Jayanti 2024 : हिंदू धर्म ग्रंथों में असंख्य पौराणिक कथाएं हैं, जो ज्ञान का भंडार हैं. ये कथाएं मानव जीवन तथा समाज का मार्गदर्शन करती हैं. ऐसी ही एक कथा है माता अनसूया की. प्रभु श्रीराम ने सीताजी को महर्षि अत्रि की पत्नी अनसूया द्वारा जीवन के ज्ञान-विज्ञान से परिचित कराया था. माता अनसूया के उपदेश नारी सशक्तीकरण को बल देते हैं. शायद आपको ज्ञात न हो कि रावण से मुकाबला करने के लिए श्रीराम, लक्ष्मण और सीता ने इसी आश्रम में कार्ययोजना बनायी थी. माता अनसूया जयंती (28 अप्रैल, 2024) पर जानते हैं क्या है वह कथा.
सलिल पांडेय, मिर्जापुर
त्रेतायुग में वनवास के दौरान मर्यादापुरुषोत्तम श्रीराम महर्षि अत्रि के आश्रम में गये थे. वहां श्रीराम ने सीताजी को महर्षि की पत्नी से जीवन के ज्ञान-विज्ञान से परिचित कराया. जंगल के वातावरण में पुरुष या स्त्री को किस प्रकार जीवन जीना चाहिए, इस पर आश्रम में गहन विचार-मंथन हुआ. जहां श्रीराम एवं लक्ष्मण ने महर्षि से ज्ञान लिया, वहीं सीता जी को महर्षि की पत्नी अनसूया से शिक्षा लेने के लिए कहा.
कथाओं के अनुसार, माता अनसूया द्वारा सीता जी को शृंगार सामग्री के रूप में जो वस्त्र-आभूषण दिये गये, वह भौतिकीय सामाग्री नहीं, बल्कि नारी के संस्कार एवं उच्च आदर्शों के वैचारिक आभूषण थे. इस कथा पर गौर करने से स्पष्ट होता है कि किसी नारी के जीवन में कठिन परिस्थितियां आ जायें, तो उसका सामना किन तरीकों से किया जाये, ताकि जंगलराज के आघातों से सिर्फ बचना ही नहीं, बल्कि पति या परिवार के साथ तादाम्य बैठाकर उसे कैसे समूल नष्ट किया जाये. माता अनसूया के उपदेशों के असर को नजरंदाज नहीं किया जा सकता कि नारी-अस्मिता पर प्रहार करने वाले रावण से मुकाबला करने के लिए राम, लक्ष्मण और सीता ने इसी आश्रम में कार्ययोजना बनायी थी. नारी सशक्तीकरण का एक बेमिसाल उदाहरण यह भी है कि जिस लंका में रावण अपनी पत्नी मन्दोदरी द्वारा समझाने के बावजूद नारी अस्मिता पर प्रहार कर रहा था, उसे समूल नष्ट करने की गहरी रणनीति इस आश्रम में बनी. माता अनसूया से प्रेरणा लेने का यह भी कारण है कि माता अनसूया के उच्च आदर्शों, संस्कारों, जीवनशैली के आगे साक्षात ब्रह्मा, विष्णु, महेश को भी आम बालक बन जाना पड़ा था.
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ईर्ष्या भाव में ब्रह्माणी, लक्ष्मी तथा माता पार्वती ने ली थी परीक्षा
कथा यह है कि माता अनसूया के उच्च संस्कारों, पतिव्रत जीवन से अभिभूत होकर नारद ऋषि ने माता ब्रह्माणी, लक्ष्मी तथा माता पार्वती से जाकर उनकी प्रशंसा कर दी. तीनों देवियां इस प्रशंसा से ईर्ष्या भाव में आ गयीं तथा अपने-अपने पति को प्रेरित किया कि वे अनसूया को विचलित कर उन्हें सांसारिक कामनाओं में लगाएं तथा उनका पतिव्रत धर्म या पारिवारिक-निष्ठा के भाव को नष्ट कर दें. यूं कहें कि यह माता अनसूया की परीक्षा थी.
कथा में आगे है कि जब तीनों देव आश्रम पहुंचे तथा अत्रि ऋषि के न रहने पर माता अनसूया को विवस्त्र होकर भोजन कराने के लिए कहा, तब माता अनसूया ने तीनों को शिशुवत कर दिया. तीनों पालने में झूलने लगे. इस पर तीनों की पत्नियां परेशान हो गयीं. तब देवर्षि नारद ने पूरी कथा बतायी. तीनों देवियों ने जाकर माता अनसूया से क्षमा-याचना की. तब जाकर ब्रह्माजी, विष्णु जी तथा भगवान शिव अपने मूल रूप को प्राप्त हुए.
जो किसी पराये का दोष नहीं देखता, वही है अनसूया
उक्त कथाओं से स्पष्ट प्रेरणा मिलती है कि जो अपने सिद्धांतों पर चलता है और किसी पराये का दोष नहीं देखता है, वही अनसूया है. अनसूया का यही अर्थ है, जबकि इसके विपरीत दूसरे का सिर्फ दोष देखना तथा मन में ईर्ष्या भाव पाले रहना असूया कहलाता है.
वैशाख माह के कृष्ण पक्ष की चतुर्थी तिथि को अनसूया जयंती पर इस कथा के मर्म तक पहुंचकर यह जरूर सोचना चाहिए कि बड़े से बड़ा व्यक्ति भी जब किसी दूसरे को छल-छद्म के सहारे विचलित करता है, तो उसका दंड किसी और को नहीं, बल्कि खुद को भुगतना ही पड़ता है.
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