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Sohrai Festival: सरायकेला-खरसावां के राजनगर में 5 दिन मनता है सोहराय पर्व, जानें इसकी विशेषता और परंपरा

Sohrai Festival: सोहराय पर्व (Sohrai Festival) के अवसर पर लोग अपने पालतू पशुओं को नदी, नाला या तालाबों में अच्छे से नहलाते हैं. पशुओं को नहाने के बाद ग्रामीण गांव के एक छोर में नायके (पुजारी) द्वारा पूजा-अर्चना की जाती है. इसके बाद मुर्गा की बलि दी जाती है.

Sohrai Festival: सरायकेला-खरसावां जिला के राजनगर प्रखंड में पांच दिनों तक मनाया जाने वाला सोहराय पर्व कुछ जगहों पर गोट माड़ा के साथ शुरू हो गया. मंगलवार को सूर्य ग्रहण की वजह से प्रखंड के कुछ इलाकों में बुधवार को गोट माड़ा की जायेगी. रोड़ा एवं भुरसा गांव में पूर्णिमा के दिन गोट माड़ा हुई.

संताल आदिवासियों का महत्वपूर्ण पर्व है सोहराय

सोहराय संताल आदिवासियों का एक महत्वपूर्ण पर्व है. सोहराय पर्व (Sohrai Festival) के अवसर पर लोग अपने पालतू पशुओं को नदी, नाला या तालाबों में अच्छे से नहलाते हैं. पशुओं को नहाने के बाद ग्रामीण गांव के एक छोर में नायके (पुजारी) द्वारा पूजा-अर्चना की जाती है. इसके बाद मुर्गा की बलि दी जाती है.

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पकाते हैं मुर्गे की खिचड़ी

पूजा-अर्चना के बाद बलि दिये गये मुर्गे की खिचड़ी पकाते हैं. खिचड़ी को प्रसाद के रूप में ग्रहण किया जाता है. इसके बाद नायके (पुजारी) जिस जगह पर पूजा करते हैं, उस जगह पर मुर्गी का अंडा रखा जाता है. इसके पश्चात गांव के सभी पालतू पशुओं को उस रास्ते से दौड़ाया जाता है, जहां अंडा रखा होता है.

…तो पालतू पशु की होती है पूजा

पूजा स्थल पर रखा अंडा, जिस पालतू पशु के पैर से फूटता है, उसे भाग्यशाली मानते हुए उसकी पूजा की जाती है. शाम होते ही सभी अपने पालतू पशुओं के तेल लगाते हैं. महिलाएं सूप (कुला या हाटा) में अरवा चावल, धूप, घास एवं दीया-बत्ती से मवेशियों की आरती उतारी जाती है.

दूसरे दिन होती है गोहाल पूजा

रात को पुरुष वर्ग ढिगवानी करते हैं. ढिगवानी में ढोल-नगाड़े बजाकर गाय-बैलों का जागरण किया जाता है. दूसरे दिन भी सभी अपने पालतू पशुओं को नहलाते हैं. इसी दिन गोहाल पूजा की जाती है. गोहाल पूजा में अलग-अलग घरों में अलग-अलग पूजा की जाती है.

ढोल-नगाड़ा बजाकर करते हैं गाय-बैल का जागरण

शाम के समय सभी अपने-अपने घर के मुख्य द्वार (जिससे पालतू पशु घुसते हैं) पर अल्पना लिखकर (अरवा चावल की गुंडी से लिखने वाला) उस पर घास रखा जाता है, ताकि घास खाते हुए मवेशी घर में प्रवेश करें. दूसरे दिन भी पहले दिन की तरह शाम के समय मवेशियों की अरती उतारकर पूजा की जाती है. रात को ढोल-नगाड़ा बजाकर गाय-बैलों का जागरण किया जाता है.

रिपोर्ट- सुरेंद्र मार्डी

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