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World Theater Day: आज भी बरकरार है थिएटर की प्रासंगिकता, सिनेमा के युग में भी कम नहीं हैं रंगमंच के कद्रदान

सिनेमा के क्रेज के बीच थिएटर आज भी अपनी प्रासंगिकता बनाए हुए है. आधुनिकता के इस युग में भी रंगमंच के कद्रदान कम नहीं हैं. आज भी एक बड़ा तबका है जो रंगमंच को काफी पसंद करता है. रंगमंच का इतिहास सदियों पुराना है और आज विश्व रंगमंच दिवस है.

खरसावां, शचिंद्र कुमार दास. एक दौर था जब सिनेमा की शुरुआत तक नहीं हुई थी, लेकिन तब भी लोगों का मनोरंजन होता था. तब मनोरंजन का जरिया था रंगमंच (थिएटर). हिंदी सिनेमा के आ जाने से लोग सिनेमा की तरफ आकर्षित होने लगे और धीरे-धीरे रंगमंच के प्रति लोगों की रुचि होने लगी. हालांकि सरायकेला-खरसावां के लोगों में अब भी ठिएटर को काफी पसंद करते हैं.

एक बड़ा तबका पसंद करता है रंगमंच

जब हर तरफ बॉलीवुड, हॉलीवुड और टॉलीवुड का क्रेज का है, तब भी एक बड़ा तबका रंगमंच (थिएटर) को पसंद करता है. सरायकेला-खरसावां में अब भी रंग मंच पर ओड़िया नाटक देखने के लिये लोगों की भीड़ उमड़ पड़ती है. कई नाट्य संस्थाएं हर साल ओड़िया नाटकों का प्रदर्शन कर विरासत में मिली अपनी कला-संस्कृति को बचाने का कार्य कर रही है, हालांकि, अलग-अलग कारणों से कुछ नाट्य संस्थाएं बंद भी हो गयी.

भारत में हुई थी नाट्यकला की शुरुआत

भारत में रंगमंच का इतिहास बहुत पुराना है. ऐसा माना जाता है कि नाट्यकला का विकास सबसे पहले भारत में ही हुआ. ऋग्वेद के कतिपय सूत्रों में यम और यमी, पुरुरवा और उर्वशी आदि के कुछ संवाद हैं. इन संवादों में लोग नाटक के विकास का चिह्न पाते हैं. अनुमान लगाया जाता है कि इन्हीं संवादों से प्रेरणा ग्रहण कर लागों ने नाटक की रचना की और नाट्यकला का विकास हुआ. 1961 से दुनिया भर में हर साल 27 मार्च को विश्व रंगमंच दिवस मनाया जाता है, ताकि कला का एक रूप ‘थिएटर’ के महत्व को बढ़ाया जा सके. विश्व रंगमंच दिवस की स्थापना 1961 में इंटरनेशनल थिएटर इंस्टीट्यूट द्वारा की गई थी.

Also Read: विश्व रंगमंच दिवस : डुमरिया के रघुनाथ मुर्मू ने संताली ड्रामा को दी ऊंचाई, 16 साल की उम्र में लिखे संताली नाटक 1965 से ओड़िया नाटकों का प्रदर्शन कर रहा है महावीर संघ ओपेरा

खरसावां के कुम्हारसाही बस्ती के कला प्रेमी शिक्षक कामाख्या प्रसाद षाडंगी ने 1965 में गांव के ही कुछ कलाकारों के साथ मिल कर महावीर संघ ओपेरा की स्थापना की थी. इसके बाद से हर साल लोगों के मनोरंजन और ओड़िया नाट्य कला को बचाने के लिये दीपावली के मौके पर कलाकार ओड़िया नाटकों का प्रदर्शन करते आ रहे है. संघ से जुड़े हुए करीब तीन दर्जन से अधिक कलाकार है. कलाकार खरसावां के साथ-साथ अन्य स्थानों में भी दो दर्जन से अधिक से ओड़िया नाटकों का प्रदर्शन कर चुके है.

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क्या कहते हैं महावीर संघ ओपेरा के निदेशक

महावीर संघ ओपेरा के निदेशक कामाख्या प्रसाद षाडंगी बताते हैं कि समय के साथ-साथ रंगमंच में कुछ बदलाव आया है. पहले पौराणिक तथ्यों पर आधारित नाटकों का प्रचलन ज्यादा था, लेकिन वर्तमान में सामाजिक पहलुओं पर आधारित नाटकों का प्रदर्शन अधिक होता है. रंगमंच पर नाटक देखने वाले दर्शकों की संख्या में कोई कमी नहीं आयी है.

गांवों में भी कई अच्छे कलाकार और संस्थान

हर वर्ष ओड़िया से दर्जनों कलाकार रंगमंच पर नाट्य प्रदर्शन करने के लिये देशभर के विभिन्न क्षेत्रों में पहुंचते हैं. लोग उन्हें देखने के लिये पहुंचते भी हैं. स्थानीय स्तर पर भी गांवों में कई अच्छे कलाकार व संस्थान हैं, जो रंगमंच को बचाने का कार्य कर रहे है. महावीर संघ ओपेरा के सुशांत षाडंगी, सुजीत हाजरा, भोलानाथ षाडंगी, जितेंद्र घोडाई, भानु नंदा, राणा सिंहदेव, पूर्णेंदु राउत समेत दर्जनों कलाकार रंगमंच से जुड़े हुए हैं.

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खरसावां के सुदूरवर्ती गांव बुढ़ीतोपा के कलाकार मां काली ओपेरा के बैनर तले 1960 से रंगमंच पर ओड़िया नाटकों का मंचन करते आ रहे हैं. वर्तमान में अजय प्रधान के निर्देशन में यहां के कलाकार अलग-अलग क्षेत्रों में नाट्य प्रदर्शनी कर लोगों की वाहवाही बटोर चुके हैं. संजीत प्रधान, सुदांशु प्रधान, रंजीत प्रधान, अजय प्रधान, मनोज साहू, मनोरंजन प्रधान, यशवंत प्रधान, मनोज प्रधान, सचीदानंद प्रधान आदि कलाकार मनोरंजन के सदियों पुरानी कला रंगमंच को बचाने में जुटे हुए हैं. इन कलाकारों का मानना है कि नाट्य संस्थाओं को सरकार की ओर से आर्थिक मदद मिले, तो फिर से रंगमंच के दिन लौट हैं.

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क्या कहते हैं कलाकार

महावीर संघ ओपेरा, खरसावां के निदेशक, केपी षाडंगी के अनुसार अन्य कलाओं की तरह अगर रंगमंच को भी सरकारी सहयोग मिले, तो यहां के कलाकार प्रोत्साहित होंगे. रंगमंच को सरकारी स्तर पर संरक्षण देने की आवश्यकता है. फिल्मों की तरह थिएटर के लिए भी कुछ करना चाहिए. महावीर संघ ओपेरा से जुड़े कलाकारों को कई मंचों पर पुरस्कृत भी किया जा चुका है.

रंगमंच से मिलती है सीख

रंगमंच के कलाकार सुशांत षाडंगी के अनुसार सरायकेला-खरसावां में रंगमंच के कलाकारों की कमी नहीं है. विरासत में मिली इस परंपरा को बचाने के लिये युवा वर्ग को आगे आना होगा. रंगमंच के जरीये हमें काफी कुछ सीखने को मिलता है. नाटकों के जरिए आधुनिकता की दौड़ में सामाजिक मूल्य, मान्यता, परंपरा और संस्कारों को नहीं भूलने की सीख मिलती है.

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रंगमंच के कलाकार झलक हाजरा के अनुसार नाट्य संस्थाएं हमारी संस्कृति के अभिन्न अंग हैं. नाटकों के माध्यम से हमें नई सीख मिलती है. कला, संस्कृति व परंपरा ही हमारी पहचान है. इसे सशक्त बनाने के लिए सभी लोगों को आगे आना होगा.

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