प्रीतम कुमार, अमरपुर. जंग-ए-आजादी में शहीद महेंद्र गोप की वीरता पर बांका को शान है. उनके घोड़े की टाप से अंग्रेज भी डरते थे. उनका जन्म 15 अगस्त 1912 को अमरपुर प्रखंड के रामपुर गांव में हुआ था. उन्होंने अपने अदम्य साहस से अंग्रेजी हुकूमत की नींद हराम कर दी. वे बचपन से ही घोड़े के शौकीन थे. महेंद्र गोप के पिता श्रीराम सहाय खिरहरी शिक्षक थे. आजादी की शंखनाद ने महेंद्र गोप के नस-नस में देशभक्ति की भावना भर दी. 13 अप्रैल 1919 को पंजाब के जलियांवाला बाग व 15 फरवरी 1931 को तारापुर के लोमहर्षक गोलीकांड से उत्तेजित होकर महेंद्र गोप प्रतिशोध की ज्वाला में जलने लगे. शीघ्र ही उन्होंने नौजवानों की फौज तैयार कर अमरपुर थाना पर धावा बोल दिया. उसे पूरी तरह जलाकर अंग्रेजी हुकूमत की नींव दी थी. इस घटना से अंग्रेज तिलमिला गये और महेंद्र गोप व उनके साथियों की तलाश में हाथ धोकर पीछे पड़ गये. महेंद्र गोप अपने साथियों के साथ भागकर झरना पहाड़ के घने जंगलों में छिप गये. इसका पता चलते ही अंग्रेजी हुकूमत अपनी टीम के साथ झरना पहाड़ी को घेर लिया. लेकिन महेंद्र गोप अपनी चतुराई से सभी साथियों की जान बचाते हुए झरना जंगल से सुरक्षित निकलकर लक्ष्मीपुर जंगल की ओर निकल गये. वहां उन्होंने अपना दुर्ग बना लिया. गुप्त सूचना मिलने पर अंग्रेजी हुकूमत ने लक्ष्मीपुर जंगल पर धावा बोल दिया. इस दौरान अंग्रेजी हुकूमत व महेंद्र गोप की ओर फायरिंग हुई. इसमें कई अंग्रेजी सिपाही मारे गये. घटना में महेंद्र गोप के विश्वासनीय साथी बांका लकड़ीकोला निवासी श्रीगोप शहीद हो गये. जबकि भीतिया के श्रीधर सिंह को अपनी एक आंख गंवानी पड़ गयी. क्रांतिकारी अंग्रेजी हुकूमत का खुलकर विरोध नहीं कर पा रहे थे. इसके लिए क्रांतिकारी मदगिरी वारा, दुर्जय, गोवरदाहा, अमसर, झरना पहाड आदि जंगलों में छिपकर रहने लगे और समय-समय पर अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ आवाज उठाने लगे. अंग्रेजों ने उनके खिलाफ स्पेशल अभियान चलाया और उनको पकड़ने के लिए गोरखा बटालियन फोर्स को लगाया. बावजूद इसके वे अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई लड़ते रहे. ब्रिटिश हुकूमत किसी भी कीमत पर महेंद्र गोप को जिंदा या मुर्दा पकड़ना चाहती थी, पर वे हर बार बच निकलते थे. इसी बीच सितंबर 1944 में वे बुखार से पीड़ित हो गये. तभी मुखबिर की सूचना पर पुलिस ने उन्हें उनके दर्जनों साथियों के साथ गिरफ्तार कर लिया. सभी को बंदी बनाकर भागलपुर ले गये. डॉ राजेन्द्र प्रसाद की तमाम कोशिशों के बावजूद 13 नवंबर 1945 को उन्हें सेंट्रल जेल भागलपुर में फांसी दे दी गयी. शहीद महेंद्र गोप की प्रतिमा आज भी रामपुर गांव में मौजूद है.
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