समाज की सामूहिक चेतना की अभिव्यक्ति भी है चुनाव. चुनाव के जरिये यह संकेत मिलता है कि उस समाज की आकांक्षा क्या है. इस प्रक्रिया को किसी सरकार के बनाने और नहीं बनाने तक ही सीमित कर नहीं देखा जाना चाहिए. इसकी एक सांस्कृतिक अभिव्यक्ति भी होती है. चुनाव का यह ज्यादा मजबूत पक्ष है. इसी पक्ष पर पढ़िए साहित्यकार ह्रषिकेश सुलभ का नजरिया.
जब भी बिहार में चुनाव होता है, तो सबसे पहली बात दिमाग में आती है कि चुनाव किन मुद्दों पर लड़ा जायेगा. हर बार मन के अंदर यह इच्छा होती है कि चुनाव कम-से-कम जाति, धर्म व संप्रदाय के नाम पर न लड़ा जाये. लेकिन, ऐसा होता नहीं है. पहले भी ऐसा था, लेकिन उस वक्त यह दबा व ढका रहता था. अब यह खुल कर सामने आयी है.
हमारे समाज में जाति के आधार पर कई सारी चीजें तय होती हैं. बिहार में चुनावी मुद्दों की भरमार है. विकास की अवधारणा साफ होनी चाहिए. हम यह समझने लगे हैं कि विकास का मतलब सड़कें व पुल निर्माण हैं. जबकि, ऐसा नहीं है. विकास का मतलब एक अच्छा मनुष्य गढ़ना भी होता है.
मनुष्य के लिए विकास अहम है. क्योंकि, इसमें प्रकृति, मानवीय बोध का विकास, शिक्षा व्यवस्था, रोजगार आदि शामिल होते हैं. मगर यह सिर्फ कल्पनीय है. पिछले 40 सालों में शिक्षा की व्यवस्था पूरी तरह से नष्ट हो चुकी है. एक समय था जब बिहार के विवि व यहां के कॉलेज, उनके शिक्षक पूरे विश्व में आकर्षण का केंद्र होते थे. लेकिन, आज स्थिति यह है कि शिक्षकों के पद खाली हैं, जितनी भी भाषाई अकादमियां उनकी हालत अच्छी नहीं है.
बिहार में होने वाले चुनाव अक्सर जाति व धर्म पर टिक जाता है. अगर उम्मीदवार अपराधी है, लेकिन हमारी जाति का है, तो उसे आसानी से स्वीकार कर लिया जाता है. पिछले कुछ सालों में यहां के चुनाव में धर्म की काफी भूमिका रही है. युगों से बिहार को आजाद संस्कृति का केंद्र माना जाता रहा है.
लेकिन, आज राजनीति इतनी हिंसा व स्वार्थ से भर गयी है, जिन्हें मनुष्य के संपूर्ण विकास व प्रकृति की चिंता करनी थी, वे सिर्फ सत्ता की ताकत को हथियाने के लिए गलत वातावरण का निर्माण किया. बिना सरकार के देश व समाज का चलना मुश्किल है. ऐसे में चुनाव एक लोकतांत्रिक व्यवस्था है, जिसमें आम जनता बहुत छटपटाती है.
कई बार आप किसी पार्टी को पसंद करते हैं, लेकिन उसका उम्मीदवार आपको पसंद नहीं है. ऐसे में गलत में से जो सबसे कम गलत है, उसको चुनने के लिए अभिशप्त हैं. राजनीति ने जनता को ऐसी जगह पर लाकर खड़ा कर दिया है, जो काफी त्रासद स्थिति है. चुनाव जब-जब आता है व्यक्तिगत रूप कोई उत्साह नहीं होता है.
हमारी पूरी सभ्यता, संस्कृति, सामाजिक जीवन व संवेदनाओं को राजनीति ने जिस तरह से नष्ट किया है, उसकी पीड़ा चुनाव आते ही मेरे लिए बढ़ जाती है. कोई विकल्प नहीं है हमारे सामने, क्योंकि हमें इस राजनीतिक व्यवस्था को स्वीकारना ही है.
राजनीति ने आम आदमी को ऐसी जगह पर खड़ा कर दिया है, जहां उसका जीवन हमेशा दुविधाग्रस्त रहता है. हर बार चुनाव में उम्मीद होती है कि कोई ऐसी सरकार या राजनेता आये, जिसके पास पॉलिटिकल विजन हो, जो अब तक हमें नहीं मिल पाया है.
Posted by Ashish Jha