पटना: आज देश के राष्ट्रपिता यानी बापू की जयंती है. आज बापू अगर जीवित होते तो उनकी उम्र लगभग १५३ साल होती. खैर इतने साल तक कोई मानव कहां जीवित रहता है. लेकिन गांधी आज भी केवल भारत ही नहीं बल्कि विदेशों में ज़िंदा हैं. तभी तो आप और हम किसी न किसी बहाने से गांधी पर चर्चा और बहस करते रहते हैं.
आप गांधी से सहमत या फिर असहमत हो सकते हैं. लेकिन उनके विचारों से शायद ही कोई असहमत हो. वजह गांधी न कभी सत्ताधीश रहे, न किसी व्यापार-धंधे से जुड़े रहे. बापू ने न कभी किसी को दबाने की कोशिश की और न ही कभी किसी की वकालत की, उन्होंने अंत समय तक धर्म-रंग-जाति-लिंग भेद जैसी किसी सोच का समर्थन नहीं किया. हां उन्होंने बिहार के चंपारण आने के बाद एक चीज का पुरजोर समर्थन किया था. वो केवल और एकमात्र शिक्षा थी.
महात्मा गांधी का कर्मक्षेत्र भले ही चंपारण को माना जाता है. लेकिन कहा जाता है कि गांधी ने अपने कर्मक्षेत्र के केंद्र में भितिहरवा गांव को रखा था. गांधी 27 अप्रैल, 1917 को मोतिहारी से नरकटियागंज आए थे. यहां से वे पैदल यात्रा करते हुए पहले शिकारपुर पहुंचे और वहां से मुरलीभहरवा होते हुए बापू भितिहरवा गांव पहुंचे थे. भितिहरवा पहुंचने के बाद गांव कि स्थिति को देखकर बापू मन ही मन काफ़ी व्यथित हुए. वजह गांव में शिक्षा-स्वच्छता का घोर अभाव था. बापू का मानना था कि ग़ुलामी और अन्य सभी दुखों की एक मात्र वजह है अशिक्षा. जिसके बाद गांधी के मन में गांव में स्कूल खोलने का विचार आया.
बता दें कि किसानों की दुर्दशा सुनते हुए जब बापू के मन में पाठशाला खोले जाने का विचार आया तो, उन्होंने अपने मन की बात ग्रामीणों को बताई, लेकिन उस दौरान अंग्रेजों के भय से एक भी किसान ज़मीन देने को तैयार नहीं हुआ. तब भितिहरवा मठ के बाबा रामनारायण दास ने बापू से पूछा कि आपको ज़मीन किसलिए चाहिए. तब बापू ने बाबा रामनारायण दास को पाठशाला खोले जाने की बात बताई. इसके बाद बापू ने सबसे पहले एक पाठशाला और ख़ुद के रहने के लिए एक कुटी बनवाई.
बापू के द्वारा पाठशाला बनाए जाने के बाद पाठशाला में बच्चों को पढ़ाने का सारा दारोमदार कस्तूरबा गांधी के ज़िम्मे था. यह कस्तूरबा की मेहनत का परिणाम ही था कि महज़ कुछ ही दिनों के अंदर पाठशाला में 12 वर्ष से कम उम्र के अस्सी बच्चों का नामांकन संभव हो पाया. बापू के इस पाठशाला में कस्तूरबा गांधी के अलावे शिक्षक के रूप में महाराष्ट्र के सदाशिव लक्ष्मण सोमन समेत राजकुमार शुक्ल, संत राउत और प्रह्लाद भगत भी सहयोग दिया करते थे.
भितिहरवा में महात्मा गांधी के द्वारा शिक्षा की दीप जलाने की कोशिश की ख़बरें इलके में फैलने लगी. दूर-दूर से किसान, मज़दूर अपने बच्चे को लेकर बापू के इस पाठशाला में पहुंचने लगे थे. इसी दौरान जब बेलवा कोठी के मैनेजर (अंग्रेजों) को बापू के द्वारा बच्चों को शिक्षा दी जाने की ख़बरें मिली तो, धूर्त अंग्रेजों ने रात के अंधेरे में बापू की कुटी और पाठशाला में आग लगवा दी. लेकिन पाठशाला में आग से बड़ी एक दीप इलाक़े में जल चुकी थी, वो थी शिक्षा की दीप. पाठशाला में आग लगाये जाने के कुछ ही दिनों बाद अंग्रेजों को मुंहतोड़ जवाब देते हुए ग्रामीणों ने इस बार ईंट से पाठशाला और कुटी का दोबारो निर्माण करवाया. जो भितिहरवा में आज भी अडिग खड़ा है.