पटना. सनातन धर्म के शाक्त संप्रदाय में जातियों को लेकर कोई विभेद नहीं है. यही कारण है कि साक्त संप्रदाय बहुल इलाकों में सामाजिक सौहार्द अन्य इलाकों से बेहतर देखने को मिलता है. मिथिला से बंगाल की ओर जैसे जैसे आगे बढ़ते हैं काली पूजा ग्रामीण स्तर पर अधिक लोगों को करते हुए पाते हैं. इसमें सभी जातियों के लोग शामिल होते हैं.
शाक्त धर्मावलियों की पीठ रही मिथिला में सर्वाधिक पुरातन मंदिर काली की मिलती है. जिनमें सभी जातियों के लोगों की सहभागिता रहती है. इसी आस्था एवं विश्वास के साथ ब्राह्मण से लेकर शुद्र तक आज की रात विधि विधान पूर्वक काली की उपासना करते हैं. आदिवासी समुदायों में भी यह पूजा धूमधाम से होती है. काली के विभिन्न रूप आदिवासियों, वनवासियों की कुलदेवी है.
हम काली पूजा को हम सामाजिक समरसता के प्रतीक के रूप में देख सकते हैं. काली पूजा सभी जातियों के लोग करते थे. यह सामाजिक और धार्मिक एकता का प्रतीक है. भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने लिखा है कि बनारस के डोम समुदाय की कुलदेवी प्राचीन काल में चण्ड कात्यायनी थीं, किन्तु नाटक की रचना के समय फूलमती देवी पूजी जाती थी- फूलमती देवी के दास पूजै सती स्मसान निवास. भारतेन्दु हरिश्चन्द दवारा लिखत नाटक ‘सत्य हरिश्चन्द्र’ में बनारस में काली पूजा का उल्लेख मिलता है- “धनतेरस औ रात दिवाली बल चढाए के पूजैं काली।”
जानना चाहिए कि आगम की दोनों शाखाएँ पौराणिक तथा तंत्र की परम्पराओं में काली पूजा होती हैं. दोनों में दीक्षा लेने के लिए जाति का कोई बन्धन नहीं है. यह मार्ग सबके लिए खुला हुआ है. आवरण पूजा यानी चक्र पूजा में भाग लेने के लिए दीक्षा लेकर साधना करना ही एकमात्र शर्त होती है. यह पूजा गुप्तरूप से होती है. जो दीक्षा ले चुके हैं वे ही इस पूजा में भाग ले सकते हैं.
इस संबंध में शाक्त संप्रदाय के जानकार पंडित भवनाथ झा कहते हैं कि इसका प्रमुख कारण है कि दीक्षा लेने वाले यानी गुरुमुख हो चुके लोग ही इसके विधान तथा काली पूजा में व्यवहृत पारिभाषिक शब्दों को समझ पायेंगे. जो गुरुमुख नहीं हुए हैं, वे इस पूजा के विधानों को गलत अर्थ प्रयोग कर परम्परा के उदात्त स्वरूप को नष्ट कर देंगे.