ठाकुरगंज. यम हैं हम, हम हैं यम ! गजराज खा गया पूरे पृथ्वी का अनाज !! स्वयं आ गए यमराज! पेट में हाथ डाल के आत्मा निकाल के परमात्मा को कर देंगे पार्सल! स्वर निकलता एक युवक ठाकुरगंज की गलियों में सोमवार को घूमता दिखा. लोग इस यमराज के वेशभूषा वाले इस व्यक्ति के स्वर को थोड़ी देर सुनते फिर अपने कामों में लग जाते थे. आज से दशक भर पहले ये बहुरुपिये जब नगर की सड़कों पर गुजरते थे तो इनको देखने लोगों की भीड़ जमा हो जाती थी परंतु आज यह ठाकुरगंज की सडकों पर अपनी कला का प्रदर्शन करते हुए इस बहुरुपिये मुकेश कुमार भट्ट से जब बात हुई तो उनकी पीड़ा शब्दों के जरिये दिखी. राजस्थान के दोशा निवासी मनोज कुमार बताते हैं कि बहुरुपियों की कला बहुत पुरानी है. राजा-महराजा के समय बहुरुपिया कलाकारों को हुकूमतों का सहारा मिलता था, लेकिन अब ये कलाकार और कला दोनों मुश्किल में है. मुकेश कुमार भट्ट का कहना है कि समाज में रूप बदल कर जीने वालों की तादाद बढ़ गई है. लिहाजा बहुरुपियों की कद्र कम हो गई है.
धार्मिक सौहार्द के प्रतीक होते हैं बहुरुपिये
एक बहुरुपिया अपनी कला के जरिए समाज में सौहार्द का भी संदेश देता है. इन कलाकारों में हिंदू और मुसलमान दोनों हैं. मगर वे कला को मजहब की बुनियाद पर विभाजित नहीं करते. एक मुसलमान बहुरुपिया कलाकार हिंदू देवी-देवताओं का रूप धारण करने में संकोच नहीं करता तो हिंदू भी पीर, फकीर या बादशाह बनने में गुरेज नहीं करते.
पुरखों से मिला है यह फन
राजस्थान के दौशा निवासी मनोज को ये फ़न अपने पुरखों से विरासत में मिला है. वो बड़े मन से इस कला का प्रदर्शन करते हैं. कभी शिव का वेश तो कभी नारद का तो कभी अलिफ़ लेला तो कभी लेला मजनू, लेकिन उनके बेटों ने इससे हाथ खींच लिया है. बेटों का कहना है कि ‘इस कला की न तो कोई कद्र करता है और ना ही इसका कोई भविष्य है.
राजा महाराजाओं के लिए जासूसी भी करते थे ये बहुरुपिये
मनोज कुमार कहते है कि हमें पुरखों ने बताया था कि बहुरुपिया बहुत ही ईमानदार कलाकार होता है. राजाओं के दौर में हमारी बड़ी इज़्जत थी. हमें ‘उमरयार’ कहा जाता था. हम रियासत के लिए जासूसी भी करते थे. राजा हमें बहुत मदद करते थे और अजमेर में ख्वाज़ा के उर्स के दौरान हम अपनी पंचायत भी करते थे. आज हर कोई वेश बदल रहा है. बदनाम हम होते हैं. लोग अब ताने कसते हैं कि कोई काम क्यों नहीं करते.
बहरूपिया कला को सरकार के संरक्षण की जरूरत
कलाकारों की मानें तो इस कला के प्रति लोगों का आकर्षण कम होता जा रहा है. जिस कारण बहुरुपियों को अपना पुश्तैनी काम छोड़ना पड रहा है. जब उनसे यह पूछा कि आपके बेटे इस पेशे से दूर क्यों तो उन्होंने कहा कि आज के आधुनिक युग में जब दुनिया इंटरनेट के माध्यम से मनोरंजन में व्यस्त है. ऐसे में पुरानी परंपराओं-कलाओं को बनाए रखना काफी कठिन हो गया है. उन्होंने कहा कि वे इस कला की आखिरी पीढ़ी हैं.डिस्क्लेमर: यह प्रभात खबर समाचार पत्र की ऑटोमेटेड न्यूज फीड है. इसे प्रभात खबर डॉट कॉम की टीम ने संपादित नहीं किया है