Supaul News : बलराम प्रसाद सिंह, सरायगढ़. मधु, पान व मखाना मिथिला आज भी मिथिला की पहचान है. अतिथि के स्वागत सत्कार से लेकर धार्मिक उत्सवों पर पान, मधु व मखाना की सैकड़ों वर्ष पुरानी अहमियत आज भी बरकरार है. कोसी के इलाके में माछ व मखाना का उत्पादन व्यापक पैमाने पर किया जाता था. लेकिन मखाना की खेती सरकारी उपेक्षा के कारण समाप्ति के कगार पर है. एक जमाना था जब यहां के मखाने की खुशबू पूरे मुल्क ही नहीं, बल्कि विदेशों में भी फैलती थी. बुजुर्गों का कहना है कि यहां के किसानों के लिए यह खेती स्थायी रोजगार के रूप में बड़े पैमाने पर की जाती थी. लेकिन समय के साथ कोसी की यह परंपरागत खेती अब धीरे-धीरे समाप्तप्राय हो गयी है. मखाना के खेतों में जलकुंभी का जाल बिछ गया है. समस्याओं के मकड़जाल में कोसी की पहचान मिटती जा रही है.
रोजगार का साधन था मखाना
सन् 1954 के समय कोसी तटबंध निर्माण कार्य पूर्ण होने के बाद कोसी के कछार में बसे सैकड़ों गांवों कल्याणपुर, गोपालपुर, पिपराखुर्द, छिटही हनुमान नगर, गढ़िया, भपटियाही, सरायगढ़, चांदपीपर, जरौली आदि के किसानों के लिए मखाना की खेती एक बड़ा रोजगार का साधन मानी जाती थी. कारण था कि प्रतिवर्ष कोसी के सीपेज से आस-पास के क्षेत्र में सालों भर जलजमाव रहता था. यह मखाना व मछली पालन के लिए उपयुक्त माना जाता था. लेकिन बाद में विभाग द्वारा पहल नहीं किये जाने पर किसान मछली व मखाना की खेती करने से परहेज बरतने लगे. इससे खेतों में मखाना की जगह जलकुंभी दिखने लगी है. नतीजतन कोसी की पहचान मखाना का अस्तित्व संकट में दिख रहा है. मखाना उत्पादक किसान विजय यादव, कामेश्वर साह, संजीत साह आदि ने बतया कि सरकारी मदद नहीं मिलने और मौसम की बेरुखी के कारण अब मखाना की खेती पूंजीपति किसानों के वश की बात ही रह गयी है. कम पूंजी वाले किसान मौसम की बेरुखी से बर्बाद हो जाते हैं.
जलकुंभी बनी बड़ी बाधा, समस्या का नहीं हो रहा समाधान
चर-चांचरों और पोखरों की समय से सफाई नहीं होने से मखाना की खेती काफी प्रभावित हो रही है. सरकारी स्तर पर इसके लिए कई योजनाएं चल रही हैं. लेकिन धरातल पर इसका लाभ मखाना किसानों को नहीं मिल पा रहा है. नतीजतन खेतों में जलकुंभी ने अपना साम्राज्य कायम कर लिया है. चर-चांचरों और पोखरों की सफाई नहीं होने से गाद भर गयी हैं. जलकुंभी मखाना की खेती में बाधक साबित हो रही है. इसे हटाने के लिए कोई पहल नहीं की जा रही है.
विदेशों में भी है कोसी के मखाना की पहचान
पहले किसानों को मखाना की खेती की समुचित जानकारी उपलब्ध करायी जाती थी. किसानों द्वारा भारी पैमाने पर मखाना का उत्पादन किया जाता था. सुपौल के इस उत्पादन का निर्यात अरब देश सहित चीन, पाकिस्तान, अफगानिस्तान व अन्य देशों में भी होता रहा. इस फसल से भारत सरकार के कोष में भारी पैमाने पर विदेशी मुद्रा आती थी. वहीं स्थानीय किसानों की भी आर्थिक समृद्धि होती. लेकिन वर्तमान में इस फसल की पैदावार को लेकर सरकारी सुविधा व जानकारी उपलब्ध नहीं करायी जा रही. इससे मखाना की खेती पर संकट के बादल मंडरा रहे हैं.
नहीं हुआ यांत्रिकीकरण, अधिक देनी पड़ती है मजदूरी
मखाना भले ही खाने में स्वादिष्ट व दिखने में सुंदर लगता हो, लेकिन इसकी पैदावार व इसे तैयार करना किसी इबादत से कम नहीं है. मखाना की खेती किसानों के लिए कठिनाई भरा है. मखाना के फल को गुड़िया कहा जाता है. इस गुड़िया को पानी से निकालने के बाद साफ-सफाई कर आवश्यकता अनुसार धूप में रखा जाता है. धूप लगने के बाद गुड़िया के साइज के अनुरूप ग्रेड तय की जाती है. इसके उपरांत गुड़िया को आग पर सेंका जाता है. फिर इसके बाद पीट-पीट कर छिलका निकाला जाता है. मखाना तैयार करने की दिशा में किसी प्रकार के संयंत्र का निर्माण नहीं होने से मखाना तैयार करने में किसानों को काफी मजदूरी देनी पड़तीहै. किसानों द्वारा मखाना की खेती से दूर होने का यह भी कारण माना जाता है.
हजारों एकड़ भूमि में है मखाना की खेती की संभावना
अगर मखाना की खेती पर समुचित ध्यान दिया जा और सरकारी स्तर पर इसे संरक्षण प्रदान किया जाये, तो कोसी महासेतु के क्षेत्र में मखाना महासेतु का भी निर्माण संभव है. कोसी बराज से लेकर कोपरिया तक पूर्वी कोसी तटबंध के किनारे वाले भाग में जहां हजारों एकड़ भूमि सालों भर जल प्लावित रहती है. वहां मखाना महासेतु का निर्माण हो सकता है. जाहिर है, ऐसा अगर हुआ तो इलाके में एक नयी आर्थिक समृद्धि की शुरुआत होगी. इलाके के किसानों की दशा और दिशा बदल सकती है.
किसानों को नहीं मिलता मखाना का वाजिब मूल्य
उत्पादक किसान को मखाना का वाजिब मूल्य नहीं मिल पाता है. इसका सीधा कारण मखाना व्यवसाय का बिचौलियों के चुंगल में रहना है. बिचौलिया मखाना उत्पादन के समय कुकुरमुत्ते की तरह क्षेत्र में फैल जाते हैं. किसानों से औने-पौने दाम पर लावा खरीदकर अपनी शर्तों पर व्यापार करते हैं. नतीजतन किसानों से अधिक मुनाफा बिचौलियों को ही होता है. मखाना की खरीद के लिए सरकारी स्तर पर कोई केंद्र नहीं है. गैर सरकारी स्तर पर भी बड़े खरीद केंद्र के अभाव में किसान वाजिब मूल्य से वंचित हो जाते हैं. अन्य खेती की तरह इसके उत्पादन में न कोई सरकारी लक्ष्य निर्धारित है, न ही किसी तरह की सरकारी सहायता ही उत्पादक किसानों को मिल पाती है. इस वजह से भरपूर मात्रा में मखाना की खेती नहीं हो पाती है. जो मखाना के कम उत्पादन का प्रमुख कारण है. कृषि विभाग द्वारा मखाना की खेती पर अनुदान देने का भी प्रावधान है. लेकिन इसकी जानकारी किसानों को नहीं रहने से इसका लाभ किसान के बदले बिचौलिया उठा रहे हैं.