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बोकारो में ढोरी माता का तीर्थालय है बेहद खास, विदेश से भी आते हैं भक्त, होती है सबकी मुराद पूरी

1970 में डाल्टेनगंज धर्मप्रांत के प्रथम विशप जार्ज सोपेन ने ढोरी माता की उपस्थिति तथा सभी तत्थों से अवगत होकर ढोरी माता को पूरे डाल्टेनगंज धर्मप्रांत की संरक्षिका घोषित किया. इस परंपरा को द्वितीय विशप चार्ल्स सोरेन ने भी बनाये रखा.

  • आज निकलेगी भव्य शोभा यात्रा

  • रविवार को होगी समारोही मिस्सा पूजा

  • देशभर से हजारों श्रद्धालुओं के जुटने की संभावना

  • बेरमो फोटो जेपीजी 27-1 ढोरी माता की प्रतिमा

राकेश वर्मा, बेरमो : कोयलांचल के जारंगडीह स्थित ढोरी माता तीर्थालय आस्था का प्रमुख केंद्र है. यहां देश के विभिन्न भागों से सभी धर्म व जाति के लोग आते हैं. यहां आने वाले भक्तों में यह विश्वास है कि माता सबकी मुराद पूरी करती हैं. कोयलांचल के श्रमिकों का माता पर अटूट विश्वास है. श्रमिकों का मानना है कि वह उनकी सुरक्षा करती हैं. प्रत्येक वर्ष अक्टूबर माह के अंतिम शनिवार तथा रविवार को यहां वार्षिकोत्सव मनाया जाता है. वार्षिकोत्सव में भाग लेने के लिए झारखंड, बिहार, प. बंगाल, ओड़िसा, मध्यप्रदेश, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, चैन्नई, बंगलोर, केरल, उत्तर प्रदेश सहित कई राज्यों से बड़ी संख्या में श्रद्धालु पहुंचते हैं. विदेश से भी ईसाई धर्मावलंबी आते हैं. राज्य के विभिन्न जिलों से भक्त पैदल यात्रा कर आते हैं.

1956 में ढोरी कोलियरी में कोलकटर रुपा सतनामी को मिली थी प्रतिमा

ढोरी माता को लेकर एक कहानी है. इसके अनुसार बेरमो कोयलांचल की ढोरी कोलियरी (कोयला खदान) पहले पदमा राजा के पुत्र कामख्या नारायण सिंह के अधीन थी. इस खदान में देश के विभिन्न क्षेत्रों के कोयला मजदूर कोयला काटते थे. ढोरी तीन नंबर खदान में रुपा सतनामी नामक एक मजदूर भी कोयला काटता था. 12 जून 1956 की सुबह मजदूरों के साथ रुपा कोयला काटने में व्यस्त था. वह लगातार गैंता चला रहा था. तभी उसे तीन बार गैता धीरे चलाओ, मैं यहां उपस्थित हूं की आवाज सुनायी दी. इसे भ्रम मान कर वह पुन: गैंता चलाने लगा. जैसे ही गैंता चला एक प्रतिमा दिखायी दी. उसका एक हाथ गैंता के प्रहार से टूट गया था. प्रतिमा एक देवी की थी. रुपा ने इसकी जानकारी अन्य मजदूरों को दी. यह प्रतिमा मां काली की तरह दिखी. उन्होंने इस प्रतिमा को मजदूरों के कार्यालय में लाकर स्थापित कर दिया. धीरे-धीरे प्रतिमा मिलने की खबर आग की तरह फैल गयी और उच्चाधिकारियों को भी इसकी जानकारी दी गयी. जिस जगह प्रतिमा निकली थी उसे मंदिर का रूप दे दिया गया.

मंदिर में दर्शनार्थियों की भीड़ जुटने लगी. ढोरी के तत्कालीन खान प्रबंधक ईसाई थे. उन्होंने प्रतिमा देखने के बाद पाया कि यह प्रतिमा काली की नहीं बल्कि माता मरियम की है. प्रबंधन ने इसकी सूचना बोकारो थर्मल के ख्रीस्तीय पुरोहित को दी. पुरोहित अल्बर्ट भरभराकन ने इस प्रतिमा को देखा और प्रतिमा निकलने की सूचना अन्य ख्रिस्तीय विश्वासियों को दी. एक निश्चित दिन को उक्त प्रतिमा को जारंगडीह लाया गया. प्रतिमा के साथ काफी संख्या में भक्त पैदल वहां पहुंचे. जारंगडीह में लाने के बाद फादर अल्बर्ट ने ख्रिस्त भोग चढ़ाया और माता मरियम को ढोरी की माता व श्रमिकों की माता तथा संरक्षक माना. इस छोटे समारोह के बाद प्रतिमा को जारंगडीह में स्थापित कर दिया गया. इसे बाद में गिरिजाघर का रूप दे दिया गया. वर्ष 1965-67 के बीच इस प्रतिमा को परीक्षण व शोध के लिए पुणे एवं मुंबई ले जाया गया. जहां शोधकर्ताओं ने पाया कि कटहल की लकड़ी से बनी यह प्रतिमा सैकड़ों वर्ष पुरानी है.

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शोधकर्ताओं को आश्चर्य हुआ कि यह प्रतिमा वास्तव में ईश्वर की कृपा से अब तक सुरक्षित रही. उधर, इस घटना की जानकारी रांची महाधर्म प्रांत के तत्कालीन आर्च विशप पीयूष करकेट्टा को जैसे ही मिली, उन्होंने प्रतिमा को अपने पास विशप हाउस मंगवाया. वर्ष 1964 में संत पॉल (छठा) के भारत आगमन पर जारंगडीह के ख्रिस्त सदस्य प्रतिमा को मुंबई ले गये. जहां संत पॉल में प्रतिमा के दर्शन किये. 1970 में डाल्टेनगंज धर्मप्रांत के प्रथम विशप जार्ज सोपेन ने ढोरी माता की उपस्थिति तथा सभी तत्थों से अवगत होकर ढोरी माता को पूरे डाल्टेनगंज धर्मप्रांत की संरक्षिका घोषित किया. इस परंपरा को द्वितीय विशप चार्ल्स सोरेन ने भी बनाये रखा.

1983 में फादर डेनियल की निगरानी में इसे जिया गया तीर्थालय का रुप

प्रारंभ में ढोरी माता को जब जारंगडीह के एक छोटे से चर्च में रखा गया था. उस वक्त प्रत्येक रविवार को भक्ति समारोह की जाती थी. एक बार श्रीलंका से फादर बेर्थालट जारंगडीह के ख्रिस्तीय समुदाय को विनती उपवास देने आये और ढोरी माता की चमत्कारी घटना सुनने के बाद उन्होंने इसके आदर में विशेष प्रार्थना की. उसी समय से ढोरी माता के आदर एवं भक्ति में मां का आशीर्वाद पाने के लिए प्रत्येक वर्ष समारोह का आयोजन होने लगा. भक्तों की भीड़ को देख सीसीएल अधिकारियों के सहयोग से ढोरी माता गिरिजाघर व मैदान की व्यवस्था की गयी. यहां हर साल वार्षिकोत्सव समारोह होता है. वर्ष 1983 में फादर डेनियल की निगरानी में इसे तीर्थालय का रूप दिया गया. ढोरी माता तीर्थालय के पल्ली पुरोहित फादर माईकल लकड़ा कहते हैं कि ढोरी माता न केवल श्रमिकों की संरक्षिका है बल्कि वह सारी क्लीसिया एवं मानवजाति की संरक्षिका हैं. ढोरी माता की मध्यस्थता से ही हमारी प्रार्थनाएं प्रभु यीशु तक पहुंचती हैं.

20 अक्टूबर से चल रहा समारोह

ढोरी माता का वार्षिकोत्सव समारोह 20 अक्टूबर को झंडोत्तोलन के साथ शुरू हुआ. रोजाना मिस्सा पूजा, नोविनो प्रार्थना, प्रतिमा दर्शन, पाप स्वीकार आदि कार्यक्रम चल रहे हैं. 28 अक्टूबर की शाम चार बजे भव्य शोभा यात्रा निकाली जायेगी. इसी दिन माता मरियम के आदर में मिस्सा पूजा व प्रतिमा दर्शन होगा. 29 अक्टूबर को दिन 10 बजे से समारोही मिस्सा पूजा के साथ वार्षिकोत्सव समारोह का समापन होगा. वार्षिकोत्सव समारोह के समारोही मिस्सा पूजा में मुख्य अतिथि (मुख्य याजक) के रूप में हजारीबाग धर्मप्रांत के धर्माध्यक्ष आनंद जोजो डी.डी होंगे.

वार्षिकोत्सव समारोह को लेकर शुरू हुआ श्रद्धालुओं का जुटान

वार्षिकोत्सव समारोह को लेकर श्रद्धालुओं का जुटान शुरू हो गया है. पूरा तीर्थालय बाहरी श्रद्धालुओं से पट गया है. तीर्थालय प्रबंध समिति भक्तों के लिए मिस्सा पूजा एवं ठहरने की व्यवस्था में जुटी है. पिछले दो साल कोरोना काल के बाद गत वर्ष यहां हजारों श्रद्धालु जुटे थे. इस बार भी हजारों श्रद्धालु जुटेंगे. वार्षिक समारोह को लेकर ढोरी माता तीर्थालय को आकर्षक ढंग से सजाया गया है. चर्च मैदान में बड़ा पंडाल बनाया गया है. पूरे जारंगडीह बाजार की रौनक बढ़ गयी है.

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