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बेहद खास होती थी छत्तीसगढ़ी समाज की होली, होलिका दहन के बाद अंगारों पर नंगे पांव चलते थे लोग

Holi of Chhattisgarhi society: होलिका दहन के दिन छत्तीसगढ़ी समाज के लोग हर धौड़े में होलिका स्थल पर कोयला, गोईठा व लकड़ी के अलावा पूजन सामग्री व नारियल लेकर जाते थे.

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Holi of Chhattisgarhi society| बेरमो, राकेश वर्मा : खानगी मालिकों और कोयला उद्योग के राष्ट्रीयकरण के पहले और बाद के भी वर्षों तक छत्तीसगढ़ी समाज बेरमो की संस्कृति का प्रमुख अंग रहा. 40 के दशक के आसपास छत्तीसगढ़ के रायगढ़, रायपुर, दुर्ग, राजनांदगांव, जांजगीर चांपा से हजारों महिला-पुरुष यहां आये. खानगी मालिकों के समय से लेकर एनसीडीसी और कोयला उद्योग के राष्ट्रीयकरण तक ये लोग कोयला उद्योग की रीढ़ रहे.

खास अंदाज में होली मनाता था छत्तीसगढ़ी समाज

छत्तीसगढ़ी समाज में फाल्गुन मास के चढ़ते ही होली का दौर शुरू हो जाता था. लोग होली मनाकर बेहतर रबी फसल की कामना करते थे. होली के कुछ दिन पहले से ही इस समाज के लोग टोलियां बनाकर नगाड़ा, मांदर, झांझ के साथ-साथ चर्चित डंडा नाच खेला करते थे. इसमें फगुआ गीत ‘अबकी गईल कब अहियो फागुन जी महाराज…’, ‘सेमी के मडुवा हाले न डूले गोरी कूटे नावा धान…’, ‘झुमरा झुमरी के गावय नोनी राधिका….’, ‘सावन महीना के रिमझिम बरसा भादो…’ गीत गाये जाते थे. श्रमिक नेता बिंदेश्वरी दुबे, रामदास सिंह, रामाधार सिंह, शफीक खान, संतन सिंह, रघुवंश सहाय समेत कई लोग यहां होली के दिन झुंड बनाकर जाते थे. नगाड़ा बजाते और गाते हुए ये सभी लोग डंडा गीत, डंडा नाच करते थे, जिसके बदले इन्हें बख्शीस मिलती थी. इस राशि से समाज के लोग खस्सी खरीदते थे और मिल-बांटकर खाते थे.

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होली पर बर्रा और अरसा होते है मुख्य पकवान

होली के दिन प्रायः हर छत्तीसगढ़ी के घर में बर्रा और अरसा (पुड़ी) मुख्य पकवान बनता है. साथ में भजिया (पकौड़ी), ठेठरी (मोटा गठिया) के अलावा कुरथी को उबालकर और गुड़ में मिलाकर पुरी रोटी बनता है. आपस में 40-50 लोग मिलकर खस्सी खरीदते हैं और बांटकर मीट खाते हैं. होली के दिन इस समाज की महिलाएं भी झुंड बनाकर एक-दूसरे के घर जाकर होली खेलती हैं.

होलिका दहन के बाद अंगारों पर नंगे पांव चलते थे लोग

होलिका दहन के दिन छत्तीसगढ़ी समाज के लोग हर धौड़े में होलिका स्थल पर कोयला, गोईठा और लकड़ी के अलावा पूजन सामग्री और नारियल लेकर जाते थे. होलिका की पूजा के बाद उपरोक्त सभी चीजों को होलिका में डाल दिया जाता था. होलिका जलने के बाद लोग नंगे पांव इसे पार करते थे और मन्नतें मांगते थे. बीमारियों से मुक्ति के लिए होलिका की छाई को अपने पूरे शरीर में लगाते थे.

होलिका दहन से जुड़ी हैं मान्यताएं

होलिका जलने के बाद इससे निकलने वाली आग की लपटों को लेकर इस समाज की कई मान्यताएं थीं. कहा जाता था कि होलिका जलने ने के बाद आग की लपटें अगर सीधी-सीधी जाती हैं, तो गांव में किसी तरह की विपत्ति नहीं आयेगी. अगर यह किसी एक दिशा में जाती है, तो जिस दिशा में पहली लपट जाती है, उस दिशा के गांव और टोले में उस वर्ष फसल काफी अच्छी होती है. कई लोग तो बैर की लकड़ी को होलिका में जलाकर अपने शरीर के गर्दन के पीछे रगड़ते थे. छोटे-छोटे बच्चे और बच्चियों को भी ऐसा किया जाता था, ताकि उन्हें चेचक नहीं हो.

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