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एके राय ने बिना पैसे खर्च किए रिकॉर्ड मतों से जीता था लोकसभा चुनाव, सादगी और ईमानदारी के विरोधी भी थे कायल

एके राय एक ऐसे नेता हुए, जिन्होंने धनबाद लोकसभा सीट पर रिकॉर्ड मतों से जीत दर्ज की. बिना एक पैसा खर्च किए. उनका रिकॉर्ड आज तक कोई नहीं तोड़ पाया.

धनबाद, मनोज रवानी : जयप्रकाश नारायण के आह्वान पर 1974 में बिहार विधानसभा से इस्तीफा देने वाले एके राय ने जेल में रहकर 1977 का लोकसभा चुनाव जीता था. वह धनबाद संसदीय सीट से उम्मीदवार थे.

सच तो यह है कि वह चुनाव राय नहीं, बल्कि जनता लड़ रही थी, उनके समर्पित कैडर लड़ रहे थे. 1973 से पार्टी में एके राय के सहयोगी रहे पंचम प्रसाद उर्फ राम लाल कहते हैं कि 1977 के चुनाव में उनलोगों के पास कोई पैसा नहीं था. चुनाव लड़ने के लिए एक संचालन समिति का गठन किया गया था.

बीसीसीएल, एफसीआइ सिंदरी तथा बोकारो स्टील कारखाना के मजदूर प्रचार करते थे. न बैनर, न पोस्टर, न कोई होर्डिंग. केवल दीवार लेखन व घर-घर प्रचार कर बड़े-बड़े विरोधियों को परास्त कर एके राय लोकसभा पहुंचे थे. उस समय धनबाद लोकसभा से कांग्रेस को हराना कोई आसान काम नहीं था.

  • वर्ष 1977 के चुनाव में एके राय को मिले थे रिकॉर्ड 69 प्रतिशत वोट
  • धनबाद सीट पर आज तक इतने मार्जिन से किसी ने नहीं दर्ज की जीत

सिंदरी से तीन बार विधायक रहे राय ने 68.74 प्रतिशत मत के भारी अंतर से जीत हासिल की थी. तमाम गैरकांग्रेसी दलों ने उनका समर्थन किया था. इस चुनाव में 13 उम्मीदवार मैदान में थे. कुल वोटरों की संख्या छह लाख 75 हजार 439 थी. उनमें दो लाख 98 हजार 960 लोगों ने मताधिकार का प्रयोग किया था, जो 45.39 प्रतिशत था.

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एके राय ने दो लाख पांच हजार 495 वोट हासिल किया था, जो कुल मतदान का 68.74 प्रतिशत था. अभी तक धनबाद लोकसभा क्षेत्र में राय के वोट पाने के इस प्रतिशत को कोई छू नहीं पाया है. उस चुनाव में कांग्रेस पार्टी के उम्मीदवार तत्कालीन सांसद राम नारायण शर्मा को मात्र 63 हजार 646 वोट मिले थे. वह दूसरे स्थान पर थे.

एके राय का चुनावी सफर

मूल रूप से केमिकल इंजीनियर एके राय ने पहला चुनाव वर्ष 1967 में सिंदरी विधानसभा सीट से माकपा प्रत्याशी के रूप में लड़ा और जीत हासिल की. इसके बाद 1969 में भी सिंदरी से ही माकपा के विधायक चुने गये. माकपा से निष्कासन के बाद वह जनवादी किसान संग्राम समिति से 1971 में फिर सिंदरी से विधायक बने. उसके बाद 1977, 1980 और 1989 में लोकसभा का चुनाव जीत कर सांसद बने. 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद उपजी सहानुभूति लहर में वह शंकर दयाल सिंह के हाथों पराजित हो गये थे. उसके बाद वह लगातार चुनाव लड़े (2009 तक) और अधिकतर बार मुख्य प्रतिद्वंद्वी बने रहे.

सिद्धांतों से नहीं किया समझौता

सिद्धांतों से कभी समझौता नहीं किया. सांसद पेंशन एवं अन्य सरकारी सुविधा नहीं ली तथा उक्त रकम को देशहित में राष्ट्रपति कोष में दान दे दिया. उनका स्वास्थ्य जब तक ठीक रहा, वह टेम्पल रोड पुराना बाजार स्थित बिहार कोलियरी कामगार यूनियन के कार्यालय में बैठते थे. टेम्पल रोड स्थित खपरैल के कमरे में सोते थे, जहां बिजली का कनेक्शन तक नहीं था. अस्वस्थ होने पर वह अपने एक कार्यकर्ता के घर चले गये.

खुद के पैसे से कार्यकर्ता करते थे दीवार लेखन

1977 के चुनाव में कार्यकर्ता रंग का डिब्बा व ब्रश लेकर खुद दीवार लेखन करने निकल जाते थे. खुद के पैसे से रंग व झंडा भी खरीदा जाता था. सिर्फ सिंदरी व बोकारो में एक-एक प्रचार गाड़ी निकली थी. बाकी स्थानों पर घर-घर जाकर ही प्रचार किया गया था. कोई खर्च नहीं हुआ. मासस नेता बाद में भी जब भी चुनाव लड़े, तो कभी धनबल का सहारा नहीं लिया. मासस की तरफ से कभी बूथ खर्च तक नहीं दिया गया. श्री राय प्रचार करने भी खुद किसी की बाइक के पीछे बैठ कर ही जाते थे. चारपहिया वाहनों से प्रचार करने से परहेज करते रहे. उनका मानना था कि चुनाव जीतने के लिए धन-बल नहीं, जन-बल की जरूरत होती है. उनकी ईमानदारी और सादगी के अधिकतर विरोधी भी कायल थे.

एक वोट और एक मुट्ठी चावल

रामलाल बताते हैं कि राय दा गांव-गांव में जाकर लोगों से एक वोट तथा एक मुट्ठी चावल मांगते थे. आम जनता से मिलने वाले चावल को वहीं के किसी कार्यकर्ता को देते थे. उस चावल से खिचड़ी की व्यवस्था होती थी. मतदान के दिन गांव में कार्यकर्ता खिचड़ी खाकर ही काम करते थे. कभी बूथ खर्च बोल कर एक पैसा भी किसी को नहीं दिया जाता था. चुनाव लड़ने के लिए भी कभी उद्योगपतियों, व्यवसायियों से चंदा नहीं लिया. मजदूर ही चंदा कर चुनाव का खर्च करते थे.

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