भव्य रूप से मनायी जाती है उनकी जयंती
आज पूरा भारत देश आजादी का अमृत महोत्सव मना रहा है. ऐसे में आज के युवाओं और बच्चों को महान विभूतियाें से अवगत कराने की आवश्यकता है. उन महान विभूतियां में एक थे आजादी के दीवाने सुभाषचंद्र बोस. उन्होंने तुम मुझे खून दो मैं तुम्हें आजादी दूंगा के नारों से योद्धाओं को एक किया था. उन्हें लोग नेताजी के नाम से जानते हैं. फिरंगियों के चंगुल से भारत को आजादी दिलाने, समानता तथा राष्ट्रभक्ति के लिए उनकी कृतियों को भूलाया नहीं जा सकता. वे तत्कालीन हजारीबाग जिले के एक छोटे से गांव सरिया में रहकर अंग्रेजों के खिलाफ आंदोलन की रणनीति बनाते थे. वह सरिया जैसे जगह को अपनी कर्म भूमि मानते थे. बताया जाता है कि वर्ष 1920 से लेकर 1941 के बीच नेताजी का सरिया आना-जाना लगा रहा था. 1938 में कांग्रेस के महाधिवेशन में शामिल होने के लिए वह यहीं से वहां गए थे. इनके उग्र क्रांतिकारी स्वभाव के कारण ब्रिटिश शासक परेशान रहते थे. श्रमिक हितों के संरक्षण के लिए मजदूरों को एकजुट करने में इन्होंने अग्रणी भूमिका निभायी थी. 1940 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के 54 वें अधिवेशन के समांतर उन्होंने रामगढ़ में एक सम्मेलन आयोजित किया था. जानकार बताते हैं कि एक बार नेताजी अपने भतीजे डॉ शिशिर बोस के साथ ओडिशा से जीटी रोड होते हुए निजी कार से सरिया आ रहे थे, परंतु कार में खराबी आ जाने के कारण उसे बगोदर में ही छोड़ देना पड़ा था. भारत को गुलामी से मुक्त कराने के लिए अग्रणी भूमिका निभाने वाले ऐसे लोगों को गिरफ्तार करने के लिए अंग्रेजों का खुफिया तंत्र काफी मजबूत था. जयचंद की भूमिका में उस समय भी अंग्रेजों के कई चाटुकार थे. नेताजी के सरिया पहुंचने की खबर फिरंगियों को उनके गुप्तचरों से मिल चुकी थी. उन्हें घेर कर गिरफ्तार करने का प्रयास अंग्रेजी सिपाहियों ने किया. नेताजी को इसकी जानकारी मिली, तो वब उनसे बचकर हजारीबाग रोड रेलवे स्टेशन पहुंचे. वहां से रेलवे ट्रॉली से गोमो की ओर जाने बात कही जाती है. यह सरिया के लिए उनकी अंतिम यात्रा थी. इसके बाद दुबारा वे यहां नहीं आये. यह भी कहा जाता है कि अंग्रेजों के खिलाफ रणनीति बनाने के लिए सुभाष चंद्र बोस सरिया में छुपकर रहते थे.नेताजी के रिश्तेदार ने खरीदी थी जमीन
स्थानीय वयोवृद्ध व्यक्तियों की मानें तो नेताजी के एक रिश्तेदार ने सरिया में अपना बंगला बनाने के लिए जमींदारों से जमीन खरीदी थी. वहां भव्य बंगले के निर्माण की नींव रखी जा रही थी. वहां अंग्रेजों से बचने के लिए मकान बनाने वाले मजदूरों में नेताजी शामिल हो गये थे. प्रभाती कोठी नामक उस बंगले की नींव उन्होंने ही रखी थी, जहां से देश के अन्य कर्मवीर योद्धाओं से मिलकर अंग्रेजों के खिलाफ आंदोलन की रणनीति बनायी जाती थी. आजादी की लड़ाई को गति देने का काम इस प्रभाती कोठी से किया जाता था. आज सुभाष चंद्र बोस भले ही हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन नेता जी की कोठी के नाम से विख्यात उस प्रभाती कोठी के अवशेष जरूर हैं. उनसे इनकी यादें काफी जुड़ी हुई हैं. स्थानीय समाजसेवियों ने नेताजी सुभाषचंद्र बोस तथा उनकी कर्म भूमि रही सरिया को देश के मानचित्र में अमर रखने के लिए आपसी सहयोग से वर्ष 2004 में प्रभाती कोठी से लगभग एक किमी दूर बागोडीह मोड़ पर नेताजी की प्रतिमा स्थापित की गयी. प्रत्येक वर्ष उनकी जन्म दिवस पर नेताजी जागृति समिति कार्यक्रमों के बीच उन्हें याद करने की परंपरा कायम रखी है. (लक्ष्मीनारायण पांडेय)डिस्क्लेमर: यह प्रभात खबर समाचार पत्र की ऑटोमेटेड न्यूज फीड है. इसे प्रभात खबर डॉट कॉम की टीम ने संपादित नहीं किया है