Jharkhand Foundation Day: अगहन के नवमी कृष्ण पक्ष में लगने वाले 21 पड़हा जैरा जतरा का इतिहास सैकड़ों वर्ष पुराना है. इसमें आज भी आदिवासी परंपरा, रीति-रिवाज एवं आदिवासी पूजा पद्धति की झलक देखने को मिलती है. दर्जनों गांवों के पहान पुजार द्वारा करकरी के पहान राजा को काठ (लकड़ी) के घोड़े पर सवार कराकर पीछे-पीछे भेड़ा डांग, तीन चांद झंडा, चिल्पी झंडा एवं सफेद झंडा के साथ पूरे जतरा टांड़ की परिक्रमा कराकर पूजा स्थल लाया जाता है, जहां पूजा कर ईश्वर को अच्छी फसल के लिए धन्यवाद दिया जाता है और क्षेत्र की सुख-समृद्धि की कामना की जाती है.
आकर्षण का केंद्र है सामूहिक नृत्य
जतराटांड़ में सैकड़ों आदिवासी खोड़हा दल का सामूहिक नृत्य, तरह-तरह के खेल-खिलौने एवं मिठाई से सजी दुकानें आकर्षण का केंद्र होती है. ईख केतरी जतरा का मुख्य मुख्य मिठाई है. दिलासा पहान, प्रेम प्रकाश उरांव, फागू पहान, हरबू पहान एवं दुखना उरांव ने बताया कि सैकड़ों साल पूर्व भंडरा पझरी पहाड़ से तीन पड़हा झंडा उड़ते हुए आया और पहला दारी टोंगरी में, दूसरा कोटारी रंगा टोंगरी में एवं तीसरा जैरा टोंगरी में गिरा.
जैरा टोंगरी में पूजा एवं जतरा करने का निर्णय
पूर्वजों ने इसको ईश्वर का संदेश मानते हुए 21 पड़हा की बैठक बुलाकर अगहन पंचमी में दारी टोंगरी, एकादशी में रंगा टोंगरी एवं नवमी में जैरा टोंगरी में पूजा एवं जतरा करने का निर्णय लिया. तब से तीनों जगह पूजा एवं जतरा का आयोजन होते आ रहा है. उन्होंने बताया कि अगहन नवमी के एक सप्ताह पूर्व से करकरी पहान के घर में रखे काठ (लकड़ी) का घोड़ा करवट बदलने लगता है.
20 से 25 किमी दूर तक जतरा का प्रभाव रहता
नगड़ी पहान के घर में रखे दो सिरों वाला काठ (लकड़ी) का भेंड़ आपस में लड़ने लगते हैं. झंडा जैरा, खलबी एवं भड़गांव में रखा जाता है. सभी को अगहन नवमी कृष्ण पक्ष के दिन जैरा जतराटांड़ लाकर पूजा-अर्चना की जाती है, ताकि क्षेत्र में सुख एवं शांति बनी रहे. 20 से 25 किमी दूर तक जतरा का प्रभाव रहता है. आदिवासी समाज में मेहमान बुलाकर चावल लड्डू खिलाने की परंपरा है. जतरा के दिन से ही शादी-ब्याह के लिए रिश्तों की बात शुरू हो जाती है. इस साल 17 नवंबर को जैरा जतरा का आयोजन किया जा रहा है.
रिपोर्ट : प्रफुल भगत, सिसई, गुमला.