Sohrai 2022: दीपावली पर्व के साथ सोहराय पर्व मनाने की तैयारी हजारीबाग जिला अंतर्गत बड़कागांव प्रखंड में जोरों से है. दीपावली के दूसरे दिन सोहराय पर्व मनाया जाता है. यह पर्व पालतू पशु और मानव के बीच गहरा प्रेम स्थापित करता है. इसमें पशुओं की पूजा अर्चना कर सात प्रकार के अनाज से बने पकवान को इन्हें खिलाया जाता है. यह परंपरा आज भी जारी है.
पशुओं की होती पूजा
बड़कागांव के किसान खेती-बारी पर निर्भर हैं. खेती-बारी का काम बेल और भैंसों के माध्यम से की जाती है. इसीलिए सोहराय का पर्व में पशुओं को माता लक्ष्मी की तरह पूजा की जाती है. इस दिन बैल एवं भैंसों को पूजा कर किसान वर्ग धन-संपत्ति वृद्धि की मांग करते हैं.
सोहराय पर्व शुरू
कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष के प्रतिपदा तिथि अर्थात दिवाली के दूसरे दिन सोहराय पर्व मनाया जाता है. सालों भर सुख-समृद्धि की कामना पशुओं से करते हैं. इस पर्व के दिन किसान गौशाला को गोबर और मिट्टी से लिपाई-पुताई करते हैं. वहीं, घरों को आकर्षक ढंग से सजाया जाता है. आदिवासी समुदाय की महिलाएं अपने घरों के दीवार पर पशुओं की चित्र उकेरती है जो बेहर आकर्षक होता है. सोहराय पर्व के दिन पशुओं को भी स्नान करके तेल मालिश किया जाता है. उनके सार और सींग पर सिंदूर का टीका लगाया जाता है. लाल रंग से पशुओं के शरीर पर गोलाकार बनाया जाता है. उसके बाद उनकी पूजा की जाती है. सात प्रकार के अनाज से बने दाना और पकवान को पशुओं को खिलाया जाता है. पशुओं की देखभाल करने वाले चरवाहा या गोरखिया को भी नये- नये कपड़े देकर सम्मानित किया जाता है. ऐसा इसलिए होता है क्योंकि इस तिथि तक प्रथम फसल धान तैयार हो चुका होता है. इसके बाद सोहराय मेला लगाया जाता है.
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पशुओं को खेरा खिलाने की परंपरा
खैरातरी निवासी मुकेश कुमार ने बताया कि दीपावली पर्व के साथ ही सोहराय पर्व की शुरुआत हो जाती है. महापर्व के एक सप्ताह पहले से ही पालतू पशुओं को सिंह में तेल लगाया जाता है. दीपावली के दूसरे दिन सोहराय पर्व शुरू होती है. उस दिन गौशाला को लिपाई-पुताई कर विभिन्न रंगों से कोहबर चित्र बनाया जाता है. दुधी माटी से पारण किया जाता है. पारण गौशाला से लेकर मचान तक बनाया जाता है. इसके बाद गाय, बैल और भैंस को नहला-धुलाकर इनके सींग में दोबारा सरसों तेल लगाकर सिंदूर लगाया जाता है. इसके बाद मकई या अरवा चावल का खीर बनाकर जिसे खेरा या पंखेवा कहा जाता है, इसे केला के पत्तों में खिलाया जाता है.
प्राचीन काल से मनाया जाता है सोहराय पर्व
बड़कागांव समेत आसपास के क्षेत्र में आज से कई वर्ष सोहराय पूर्व की शुरुआत हुई. इस क्षेत्र के इस्को पहाड़ियों की गुफाओं में आज भी इस कला के नमूने देखे जा सकते हैं. कहा जाता है कि कर्णपुरा राजा और रामगढ़ राजा ने इस कला को काफी प्रोत्साहित किया था. जिसकी वजह से यह कला गुफाओं की दीवारों से निकलकर घरों की दीवारों में अपना स्थान बना पाने में सफल हुई थी.
आज भी बनाती है महिलाएं
बड़कागांव की सोमरी देवी, पचली देवी, सारो देवी, पातो देवी, रूकमणी देवी आज भी शादी-विवाह या कोई पर्व-त्योहार के अवसर पर सोहराय कला आज भी बनाती है. इस कला के पीछे एक इतिहास छिपा है. जिसे अधिकांश लोग जानते तक नहीं हैं. वह बताती हैं कि कर्णपुरा राज में जब किसी युवराज का विवाह होता था और जिस कमरे में युवराज अपनी नवविवाहिता से पहली बार मिलता था. उस कमरे की दीवारों पर यादगार के लिये कुछ चिह्न अंकित किये जाते थे. ये चिह्न ज्यादातर सफेद मिट्टी, लाल मिट्टी, काली मिट्टी या गोबर से बनाये जाते थे. इस कला में कुछ लिपि का भी इस्तेमाल किया जाता था जिसे वृद्धि मंत्र कहते थे.
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रिपोर्ट : संजय सागर, बड़कागांव, हजारीबाग.