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सिद्धिपीठ के रूप में प्रख्यात मां अष्टभुजी मंदिर कंडाबेर

यहां पर सच्चे मन से मांगी गयी मन्नत अवश्य पूर्ण होती है

गणेश कुमार केरेडारी. केरेडारी प्रखंड क्षेत्र के प्रसिद्ध मां अष्टभुजी का मंदिर सिद्धिपीठ के रूप में प्रख्यात है. कहा जाता है कि यहां पर सच्चे मन से मांगी गयी मन्नत अवश्य पूर्ण होती है, इसलिए इस मंदिर स्थल को मनोकामना सिद्धिदात्री के नाम से भी जाना जाता है. माता की पूजा-अर्चना करने के दौरान उड़हुल के लाल रंग का फूल चढ़ाया जाता है. यह फूल अगर मां के दाहिने अंग से पूजा करने वक्त गिर जाये, तो अवश्य ही मनोकामना पूर्ण होती है ऐसी मान्यता है. मां अष्टभुजी मंदिर के मुख्य पुजारी ज्योतिषाचार्य उमेश पाठक ने बताया कि 300 साल पहले मेरे परदादा के भी दादा जी भेखानंद पाठक को स्वप्न में मां अष्टभुजी दिखायी दी थी. वर्तमान मंदिर स्थल उस वक्त जंगल झाड़ से घिरा हुआ था और जहां मां की मूर्ति अभी स्थापित है, यहां दीमक का घर काफी क्षेत्र में बना हुआ था. बताया जाता है कि जब मेरे पूर्वज स्वप्न के आधार पर यहां पहुंचे थे, तो मां का स्वरूप देख कर भाव विभोर हो उठे थे. उसी सुबह से यहां भजन कीर्तन चालू हो गया. उस दौरान लकड़ी का छापर बना कर पूजा-अर्चना शुरू हुई. बाद में भक्तों की मदद से मंदिर बनाया गया. इस स्थल में काफी पुराना एक कुआं भी है, जिसकी विशेषता है कि बरसात के समय में कुआं का पानी गहराई में चला जाता है और ठंड एवं गर्मी के मौसम में स्वतः ही पानी का लेयर ऊपर तक पहुंच जाता है. पुजारी उमेश पाठक के मुताबिक, मंदिर के गर्भ गृह में मां अष्टभुजी के लिए सिंहासन का निर्माण कराया गया था. धर्म शास्त्रों के ज्ञाता तथा आसपास के जानकार लोगों से विचार-विमर्श के बाद मां अष्टभुजी को सिंहासन पर विराजमान करने का निर्णय लिया गया. लेकिन लोग 25 से 30 फीट तक गहरा करने के बाद भी उन्हें निकालने में असमर्थ रहे और आज भी मां उसी स्थल में विराजमान हैं. यहां नवरात्र के समय काफी चहल पहल होती है. नौ दिनों तक मंदिर परिसर काफी गुलजार रहता है. मां अष्टभुजी मंदिर परिसर में बच्चों के मुंडन कराने की प्रथा है. नये वाहन की पूजा करायी जाती है. नव विवाहित जोड़े सुख-समृद्धि की कामना लेकर पहुंचते हैं. यहां पर पहले बकरे की बलि चढ़ाने की प्रथा थी, जिसे एक मौनी बाबा के कहने पर बंद करा दिया गया है.

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