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Election Campaign: हाइटेक हुए झारखंड के नेता, नए दौर में नए तरीके से कर रहे प्रचार

Election Campaign: झारखंड में विधानसभा चुनाव में नेता हाईटेक हो गए हैं. नए दौर में नए तरीके से प्रचार हो रहा है. पहले कैसे होता था प्रचार, पुराने नेताओं से जानें.

Election Campaign|जमशेदपुर, संजीव भारद्वाज : झारखंड विधानसभा चुनाव में झारखंड के नेता हाईटेक हो गए हैं. नए दौर में नए तरीके से प्रचार कर रहे हैं. एक दशक पहले के चुनावों में जनसंपर्क पर जोर हुआ करता था, लेकिन अब टेक्नोलॉजी का दौर आ गया है. इसने चुनाव प्रचार अभियान को पूरी तरह से बदलकर रख दिया है.

जी हां. देश में लगातार मजबूत हो रहे लोकतंत्र में आम लोग जागरूक हुए हैं, तो चुनाव प्रक्रिया में भी काफी बदलाव आया है. पहले लोकसभा या विधानसभा चुनाव के प्रचार के लिए प्रत्याशी डोर-टू-डोर संपर्क अभियान चलाते थे. छोटी-छोटी जनसभाएं करके लोगों तक अपनी बात पहुंचाते थे.

अब दौर बदल गया है. आज मतदाताओं से संपर्क के कई माध्यम उपलब्ध हैं. चुनाव भी हाइटेक हो गया है. चुनाव प्रचार के लिए संचार तकनीक का खूब इस्तेमाल हो रहा है. पार्टी के कार्यकर्ताओं की भूमिका भी बदल गयी है.

पहले पार्टी व संगठन से जुड़े कार्यकर्ता नि:स्वार्थ भाव से प्रत्याशी या पार्टी के लिए काम करते थे. अब उनके काम के तौर-तरीके बदल गए हैं. पार्टियों और नेताओं की कार्यशैली भी बदली है. आइए, आपको बताते हैं कि पहले चुनाव प्रचार कैसे होते थे, आज कैसे हो रहे हैं.

पहले दीवार लेखन करके होता था प्रचार : शैलेंद्र महतो

जमशेदपुर लोकसभा सीट के पूर्व सांसद और झारखंड आंदलोनकारी शैलेंद्र महतो ने बताया कि अब चुनाव प्रचार का तरीका बदल चुका है. पहले न तो बड़े-बड़े पोस्टर-बैनर होते थे, न होर्डिंग्स. लोहे की शीट पर या दीवारों पर प्रत्याशी का नाम और पार्टी का चुनाव चिह्न लिखकर जनता से अपील की जाती थी कि वे उन्हें वोट देकर विजयी बनाएं.

प्रत्याशी पर्चे बांटकर वोट देने की अपील करते थे. अब पर्चे का प्रयोग कम हो गया है. बड़े-बड़े होर्डिंग्स लगाये जाते हैं. पहले पार्टियां घोषणा पत्र तैयार करती थी. शहर के गणमान्य लोगों को उसकी प्रतियां बांटी जाती थीं. घोषणा पत्र पर गंभीरता से चर्चा होती थी. अब यह महज औपचारिक रह गई है.

शैलेंद्र महतो कहते हैं कि जब हम चुनाव लड़ते थे, तब प्रचार में लगे कार्यकर्ताओं के खाने-पीने का कोई खर्च नहीं दिया जाता था. इसलिए खर्च कम होता था. अब चुनाव के दौरान कार्यकर्ताओं के लिए मेस चलते हैं. भंडारा होता है. दूसरी तरह के खर्च भी बढ़ गये हैं. पहले छोटी-छोटी मीटिंग्स ज्यादा होती थी, अब बड़ी-बड़ी जनसभा पर लाखों रुपए खर्च किए जाते हैं.

हाथ से तैयार करते थे पर्ची, घर-घर पहुंचाते थे : संतोष अग्रवाल

छात्र नेता रहे संतोष अग्रवाल कहते हैं कि अब चुनाव हाइटेक हो चुका है. पहले कार्यकर्ताओं को ज्यादा परिश्रम करना पड़ता था. दीवारों पर पोस्टर चिपकाने के साथ-साथ वॉल पेंटिंग करानी पड़ती थी. तब फ्लेक्स का जमाना नहीं था. अब चुनाव प्रचार ज्यादा दमदार व आसान हो गया है.

वह कहते हैं कि पहले घरों तक पर्चियां पहुंचा देना बड़ी उपलब्धि मानी जाती थी. छात्रों को बुलाकर हाथ से पर्चियां तैयार करायी जाती थी और उसे कार्यकर्ता घरों तक पहुंचाते थे. अब कंप्यूटर से पर्ची तैयार हो जाती है. कम समय में ही ज्यादा लोगों तक पहुंचा दी जाती है. समय के साथ चुनाव लड़ना भी महंगा हो गया है.

महज 18 हजार रुपये खर्च कर जीता था चुनाव : मंगल राम

जुगसलाई विधानसभा सीट से वर्ष 1990 में झारखंड मुक्ति मोर्चा (झामुमो) के टिकट पर विधायक बने मंगल राम ने बताया कि जुगसलाई बड़ा क्षेत्र है. हमारे समय में प्रचार करना काफी कठिन था.

वर्ष 1980 से भारतीय जनसंघ के नेता रहे समरेश सिंह व मृगेंद्र प्रताप सिंह के साथ मिलकर भारतीय मजदूर संघ के बैनर तले टाटा मोटर्स के मजदूरों के समर्थन में आंदोलनों में हिस्सा लिया था. मुझे 1986 में किन्हीं कारणों से टाटा मोटर्स कंपनी से निलंबित किया गया था.

तब मेरी आर्थिक स्थिति भी अच्छी नहीं थी. बावजूद इसके जनता से मिल रहे समर्थन के बाद मैं ने तय किया कि चुनाव लड़ूंगा. वर्ष 1990 में बतौर झामुमो प्रत्याशी जुगसलाई सीट से चुनाव जीता.

मंगल राम के मुताबिक, तब चुनाव प्रचार के लिए वे अपनी मोटर साइकिल से निकलते थे. कार्यकर्ता उनका इंतजार करते थे. पहला चुनाव जीतने के लिए उन्हें महज 18 हजार रुपए खर्च करने पड़े थे. आज यह कल्पना से भी परे है कि कोई 18 हजार रुपए में चुनाव जीत जाएगी.

उन्होंने बताया कि चुनाव जीतने के बाद कंपनी ने उन्हें फिर बुलाया. मंगल राम वर्ष 1995 में राष्ट्रीय जनता दल (राजद) और वर्ष 2000 में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के टिकट पर चुनाव लड़े, लेकिन सफलता नहीं मिली. वह कहते हैं कि पहले प्रचार का तरीका बिल्कुल अलग था. सादगी से प्रचार करते थे. आज छल-प्रपंच ज्यादा है.

चुनाव लड़ना आम लोगों के बूते की बात नहीं : डॉ दिनेश षाड़ंगी

बहरागोड़ा से विधायक रहे डॉ दिनेश षाड़ंगी फिलहाल राजनीति में सक्रिय नहीं हैं. पुराने दौर के चुनाव प्रचार और हालात पर चर्चा करते हुए कहते हैं कि पहले का दौर बेहतर था. साधारण से साधारण व्यक्ति भी चुनाव लड़कर विधायक या सांसद बन सकता था. अब साधारण व्यक्ति चुनाव लड़ ही नहीं सकता.

डॉ षाड़ंगी कहते हैं कि पहली बार 1990 में जब वे चुनाव लड़े, तो उनको एक लाख रुपए खर्च करने पड़े थे. अब पैसे खर्च करने की कोई सीमा नहीं है. वह कहते हैं कि पहले चुनाव प्रचार के तरीकों में छोटी-छोटी बैठकें, नुक्कड़ सभाएं होतीं थी. अब बड़ी-बड़ी जनसभाएं और रैलियां होतीं हैं. इसका खर्च बहुत ज्यादा होता है. बाहरी उम्मीदवारों की वजह से भी खर्च काफी बढ़ गया है.

प्रचार का तरीका साधारण था, खर्च होता था कम : हसन रिजवी

जमशेदपुर पश्चिमी से विधायक रहे हसन रिजवी कहते हैं कि पहले चुनाव प्रचार में बहुत कम खर्च होता था. जब वे चुनाव लड़े थे, तो पूरे चुनाव पर महज 5 हजार रुपए खर्च हुए थे. तब चुनाव लड़ने वाले का व्यवहार मायने रखता था. समर्पित कार्यकर्ता होते थे. होर्डिंग्स व बैनर नहीं लगते थे. पर्चे बांटकर ही वोट देने की अपील की जाती थी.

रिजवी कहते हैं कि हमारे समय में प्रचार के साधन बहुत कम थे. अब संसाधन व संवाद के कई माध्यम विकसित हो चुके हैं. ऐसे में चुनाव में पैसा हावी हो गया है. अगर आपके पास पैसा नहीं है, तो आप चुनाव नहीं जीत सकते. पहले चुनाव लड़ने वाला अपनी जेब से ज्यादा पैसा नहीं लगाता था.

रिजवी कहते हैं कि पहले चुनाव में बूथ पर स्टॉल भी कार्यकर्ता अपनी जेब से खर्चा करते थे. अब कार्यकर्ता पैसे खर्च नहीं करते. पार्टी या प्रत्याशी के पैसे से ही काम होता है. उस समय कार्यकर्ता स्वयं प्रत्याशी के पास आ जाते थे. प्रचार सामग्री मांगते थे और अपने-अपने क्षेत्र में जाकर स्वयं प्रचार करते थे.

साधारण था प्रचार का तरीका, संभालकर रखते थे पर्चे-झंडे : ओम प्रकाश

बिल्डर एसोसिएशन के संरक्षक ओम प्रकाश जग्गी कहते हैं कि पुराने समय में चुनाव प्रचार का तौर-तरीका काफी साधारण था. इतना ताम-झाम नहीं था. प्रत्याशी अपने कार्यकर्ताओं के साथ घूम-घूमकर वोट मांगते थे. पार्टियों की ओर से गांवों में बिल्ले और झंडे दिये जाते थे. बच्चे बिल्ले एकत्र कर कई दिनों तक संभालकर रखते थे.

वह कहते हैं कि पहले चुनाव के बारे में इतनी गहनता से जानकारी नहीं होती थी. इसके प्रति उत्साह और समर्पण ज्यादा था. कार्यकर्ता 5 साल तक जनता के बीच रहकर काम करते थे. आज सबसे बड़ा बदलाव यह आया है कि सूचना तंत्र और संसाधन काफी मजबूत हो गया है. चुनाव लड़ना आसान हो गया है. खर्चे भी बेहिसाब होने लगे हैं.

चुनाव प्रचार के आधुनिक तरीके

  • अब ऑनलाइन प्रचार पर ज्यादा जोर है, क्योंकि कम समय में अधिक से अधिक लोगों तक पहुंच सकते हैं
  • रील्स और वीडियो बनाकर शेयर किया जा रहा
  • फेसबुक, ट्विटर, इंस्टाग्राम और व्हाट्सएप है माध्यम
  • पार्टियों के बैनर, पोस्टर को बड़े लेवल पर लगाये जा रहे

पहले ऐसे करते थे चुनाव प्रचार

  • रिक्शे से बंधे लाउड स्पीकर से पार्टी और प्रत्याशी के समर्थन में वादों और दावों की घोषणा भी की जाती थी
  • पहले के उम्मीदवार झंडे, बैनर और पोस्टर का भी इस्तेमाल खूब करते थे
  • टिन से बने बिल्ले और बैज के जरिए पार्टी के चुनाव चिह्न और प्रत्याशी की फोटो मतदाताओं तक पहुंचाते थे
  • सीमित यातायात साधनों के कारण पोस्टकार्ड पर हाथ से लिखी चिट्ठी के जरिए भी उम्मीदवार अपनी बात को मतदाताओं तक पहुंचाते थे
  • दीवार लेखन का चलन पहले खूब हुआ करता था पर अब कम हुआ है
  • चुनाव प्रचार में गीत संगीत और नुक्कड़ नाटक का इस्तेमाल नहीं होता

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