जमशेदपुर, दशमत सोरेन : विश्व विख्यात कवि, साहित्यकार, दार्शनिक और नोबेल पुरस्कार से सम्मानित गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर की लोकप्रिय कविता की पंक्ति है- जदि तोर डाक शुने केउ ना आसे तबे एकला चलो रे, अर्थात यदि कोई आपकी पुकार का जवाब नहीं देता है, तो अकेले अपने रास्ता पर चलो. यह पंक्ति चाईबासा निवासी मुकेश बिरूआ (50 वर्ष) पर बिल्कुल सटीक बैठती है. मुकेश बायो केमिकल इंजीनियर हैं, लेकिन वर्तमान में सोशल इंजीनियर की भूमिका में हैं. वे आदिवासी समाज को स्वस्थ, समृद्ध और विकसित रूप में देखना चाहते हैं.
मुकेश समाज में बदलाव की दिशा में कर रहे काम
इसी चाह में उन्होंने फेसबुक, यूट्यूब, इंस्टाग्राम और एक्स (ट्विटर) जैसे प्रभावी संचार माध्यम के जरिये आदिवासी समाज में सकारात्मक बदलाव लाने की दिशा में काम कर रहे हैं. वे जानते हैं कि किसी भी समाज में बदलाव लाना आसान काम नहीं है. यह काफी चुनौतीपूर्ण काम है. लेकिन इस चुनौती को स्वीकार करते हुए अकेले ही बदलाव की मुहिम में आगे बढ़ चुके हैं. डिजिटल मंच ‘मुकेश बिरूआ’ के माध्यम से हर घर तक अपनी पहुंच बना रहे हैं. वे सोशल मीडिया मंच पर वर्ष 2021 से लगातार अपने वीडियो अपलोड कर रहे हैं. अब 400 से अधिक वीडियो अपलोड कर चुके हैं. उनके प्रयासों से समाज में जागरूकता बढ़ी है. वे महसूस कर रहे हैं कि आदिवासी समाज के विभिन्न पहलुओं में परिवर्तन देखने को मिल रहा है.
आदिवासी समाज में आ रहा बदलाव
मुकेश का फोकस आदिवासी समाज के सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक क्षेत्र में बदलाव पर है. वे सोशल मीडिया के मंच से लोगों को उनके नागरिक अधिकारों और कर्तव्यों के प्रति जागरूक करते हैं. उनके फॉलोअर्स को चुनाव प्रक्रिया, मतदान का महत्व और लोकतंत्र की शक्ति के बारे में विस्तृत जानकारी मिलती है. इन प्लेटफार्म का उपयोग कर मुकेश लोगों को सरकार की नीतियों, कार्यक्रमों, योजनाओं और उनके लाभ के बारे में भी जानकारी प्रदान करते हैं.
क्या कहते हैं मुकेश बिरूआ
मुकेश का मानना है कि इससे लोगों को सरकारी योजनाओं का लाभ उठाने में मदद मिलती है और वे अपने अधिकारों के प्रति अधिक सजग होते हैं. मुकेश का मानना है कि एक जागरूक नागरिक ही अपने समाज और देश को बेहतर बना सकता है. लगातार अपने फॉलोअर्स को प्रेरित करते हुए मुकेश बिरूआ समाज में बदलाव लाने की दिशा में अग्रसर हैं.
आदिवासी घड़ी को देश स्तर पर दिलायी पहचान
मुकेश बिरुआ ने वर्ष 2008 में आदिवासी घड़ी लॉन्च की थी. पूरे देश में उसे पहचान दिलायी. मुकेश की बनायी घड़ी एंटी क्लॉक वाइज घूमती है यानी (दायें से बायें), जबकि सामान्य घड़ी बायें से दायें घूमती है. यह घड़ी प्रकृति के अनुरूप आचरण करने का संदेश देती है. पृथ्वी अपने अक्ष पर दायें से बायें चक्कर लगाती है. उसी तरह सूर्य के चारों ओर परिक्रमा करने वाले ग्रह भी दायें से बायें ही चक्कर लगाते हैं. आदिवासी समाज प्रकृति के अनुरूप ही आचरण करते हैं. खेत में हल जोतते समय एंटी क्लॉक ही घूमते हैं. शादी-विवाह संस्कार के समय में भी एंटी क्लॉक ही चक्कर लगाते हैं. चूंकि आदिवासी समाज प्रकृति को अनुशरण करते हैं. इसलिए घड़ी का नाम आदिवासी घड़ी रखा गया है.
विश्व मंच पर आदिवासियों की समस्याओं को रखा, मिली सराहना
मुकेश को 27-28 नवंबर, 2011 को रोम में विश्व स्तरीय मंच पर आदिवासियों का प्रतिनिधित्व करने का मौका मिला था. इसमें कई देशों के प्रतिनिधि शामिल हुए थे. उस मंच पर मुकेश ने अपने संबोधन में कहा था कि आदिवासी समाज के लोग परिस्थितिवश या अन्य कारणों से अनपढ़ हो सकते हैं. लेकिन वे अज्ञानी बिल्कुल नहीं हैं. वे प्रकृति के आचरण को देखकर समझ जाते हैं कि इस वर्ष अकाल पड़ने वाला है या अच्छी फसल होने वाली है. साथ ही, उन्होंने आदिवासियों की कई कार्यशैलियों को वैज्ञानिक दृष्टिकोण से लोगों के समक्ष प्रस्तुत किया. जिसके लिए उन्हें काफी सराहा गया.
वैज्ञानिक दृष्टिकोण से लोगों को कराते हैं अवगत
मुकेश बिरूआ ने बताया कि पूर्वजों ने जो भी सामाजिक नीति-नियम बनाये, कला- संस्कृति का विकास हुआ, वह एक दिन में नहीं हुआ. बल्कि उसके पीछे वैज्ञानिक दृष्टिकोण शामिल किये गये. आदिवासी प्रकृति प्रेमी और पूजक हैं. इसका सटीक जवाब यह है कि पृथ्वी एंटी क्लॉक वाइज घूमती है. इसलिए आदिवासी भी अपने सभी संस्कार एंटी क्लॉक वाइज ही करते हैं. आदिवासी समाज करम पूजा समारोहपूर्वक मनाता है. पूजा के संबंध में लोग बतायेंगे कि पूर्वजों के जमाने से इसे करते आ रहे हैं, इसलिए पूजा करते हैं. लेकिन इसका वैज्ञानिक दृष्टिकोण यह है कि करम पेड़ चौबीसों घंटे ऑक्सीजन छोड़ते हैं. जो पूर्वजों को पता लग गया था. पूर्वजों ने यूं ही कोई संस्कृति व संस्कार नहीं अपनाये. इसके तह तक गये होंगे. युवा पीढ़ी को अपने समाज और संस्कृति को जानने के लिए आगे आने की जरूरत है.