प्रत्येक वर्ष पूरी दुनिया में 20 जून को विश्व शरणार्थी दिवस मनाया जाता है. इस दिवस को मनाने की घोषणा सर्व प्रथम संयुक्त राष्ट्र संघ ने वर्ष 2000 में की थी. इस दिवस को मनाने का मुख्य उद्देश्य लोगों को जागरूक करना है कि कोई भी मनुष्य अमान्य नहीं होता है. यह दिवस उन लोगों के साहस, शक्ति और संकल्प के प्रति सम्मान जताने के लिए भी मनाया जाता है, जो हिंसा, संघर्ष, युद्ध और प्रताड़ना के चलते अपना घर छोड़ने को मजबूर हो गए हैं या यूं कहें जो लोग अपना देश छोड़कर बाहर भागने को मजबूर हो गए हैं.
कुल मिलाकर शरणार्थियों की परिस्थितियों पर लोगों का ध्यान आकर्षित करने के लिए यह दिवस मनाया जाता है ताकि उनकी समस्या का हल निकाला जा सके. हमारे शहर जमशेदपुर में हजारों शरणार्थी बांग्लादेश व पाकिस्तान से आकर वर्षों से बसे हुए हैं. विश्व शरणार्थी दिवस पर उनकी समस्याओं से रूबरू कराती संजीव भारद्वाज@ जमशेदपुर की रिपोर्ट.
भारत की आजादी के 73 साल बीत जाने के बाद शहर के बीचाें बीच बसी चार कॉलाेनियाें (गाेलमुरी रिफ्यूजी कॉलाेनी, सिंधी कॉलाेनी, सीतारामडेरा ईस्ट बंगाल कॉलानी आैर शंकाेसाई रिफ्यूजी कॉलाेनी) में रहनेवाले करीब 1500 से अधिक परिवार खुद काे आज भी रिफ्यूजी कहलाने काे मजबूर हैं. इन रिफ्यूजी कॉलोनी के आवासों में बिजली एवं पानी की आपूर्ति कंपनी-सरकार द्वारा उपलब्ध करायी जाती है. यहां रहनेवालाें काे सरकार द्वारा प्रदत्त सभी सुविधाएं मसलन, चिकित्सा, खाद्य आपूर्ति सहित अन्य सेवाएं मिलती हैं, लेकिन उनकी जमीन के कागजात उनके पास नहीं हैं. 73 साल बीत जाने के बाद भी अपने ही देश में उन्हें दोयम दर्जे का नागरिक होने का अहसास होता है.
रांची सहित अन्य स्थानों पर बसे शरणार्थियों की इस मूल समस्या का पटाक्षेप हो गया है, लेकिन जमशेदपुर में आज भी शरणार्थी कहलाने काे मजबूर हैं. शरणार्थियों के बच्चों को सरकारी नौकारियों, शिक्षण संस्थानों में स्थानीय निवासी का प्रमाण पत्र नहीं हो पाने के कारण वंचित कर दिया जाता है. रघुवर सरकार ने मालिकाना हक-लीज देने के लिए फार्म भरवाये, लेकिन उसके बाद किसी तरह की काेई कार्रवाई आगे नहीं बढ़ी.
यहां बसनेवाले दूसरी पीढ़ी के लाेग भी खुद काे रिफ्यूजी कहलाने काे मजबूर दिखायी पड़ रहे हैं. इन कॉलाेनियाें में रहनेवालाें की मांग है कि सरकार उन्हें भूखंड का मालिकाना हक दे, ताकि वे सभी इस अधिकार के साथ खुद काे झारखंड का स्थानीय निवासी कह सकें. एक बार फिर ईस्ट बंगाल कॉलाेनी के लाेगाें ने मुख्यमंत्री हेमंत साेरेन काे पत्र लिखकर इस प्रक्रिया काे पूरा करने की अपील की है ताकि उनके माथे पर लगा रिफ्यूजी का बदनुमा दाग हमेशा के लिए मिट जाये.
आजादी के बाद पूर्वी-पश्चिमी पाकिस्तान से 132 परिवार शरणार्थी के रूप में जमशेदपुर पहुंचे. इन्हें दो साल तक बारा (सिदगोड़ा) कैंप में रखा गया, इसके दो वर्ष बाद गोलमुरी रिफ्यूजी कॉलाेनी, ईस्ट बंगाल कॉलाेनी, सिंधी कॉलाेनी में बसाया गया. 1971 में बांग्लादेश बनने के बाद काफी परिवार जमशेदपुर आये, जिन्हें मानगाे शंकाेसाई स्थित रिफ्यूजी कॉलाेनी में रखा गया. तब से आज तक ये लोग शरणार्थी के रूप में ही रहे हैं.
ईस्ट बंगाल कॉलाेनी के सचिव संजय नंदी ने बताया कि बंगाली कॉलोनी सीतारामडेरा में लगभग 200 बंगाली परिवार शरणार्थी के रूप में 1948 में भारत पहुंचे. विभाजन के वक्त पूर्वी पाकिस्तान से आये. बिहार सरकार ने उन्हें सीतारामडेरा के सरकारी भूखंड पर बसाया. जहां आज परिवार रह रहे हैं. इन भूखंडाें पर शरणार्थी परिवारों ने अपना मकान बनाकर रहना शुरू कर दिया. इसी स्थान पर रहते शरणार्थियों की दूसरी पीढ़ी अपना जीवन यापन कर रही है.
पिछली सरकार ने मंत्रिमंडल में निर्णय लेकर जमशेदपुर में बसे शरणार्थियों के भूखंड का सर्वे कराया, जिससे लगा कि वर्षाें की समस्या समाप्त हो जायेगी, सर्वे के बाद वितरित किये गये खातियान में भूखंड को पुनर्वास विभाग द्वारा प्रद्त दर्शाया गया, लेकिन सरकार को मालगुजारी ओर सेस आदि भुगतान का कोई आदेश प्राप्त नहीं हुआ. इस मामले में सीआे से भी मिले, लेकिन काेई कार्रवाई नहीं हुई.
मानगो के शंकोसाई रोड नंबर दो स्थित रिफ्यूजी कॉलोनी में रहने वाले गाेपाल विश्वास ने बताया कि 71 परिवारों के सदस्यों ने जिला प्रशासन से जमीन का मालिकाना हक कई बार मांगा. उपायुक्त कार्यालय पर प्रदर्शन किया अौर मांग पत्र भी सौंपा था. यहां सभी पाकिस्तान (वर्तमान बांग्लादेश) से आये हुए लोग हैं, जिन्हें 1980 से 86 के बीच भारत सरकार ने शंकोसाई में बसाया था.
तत्कालीन बिहार सरकार ने उन्हें 2 एकड़ 90 डिसमिल जमीन उपलब्ध करायी थी. नौ-नौ हजार रुपये घर बनाने और पांच-पांच हजार रुपये व्यवसाय के लिए दिये थे. मगर जिस जमीन पर वे बसे हैं उसका कोई कागजात उन्हें आज तक नहीं मिला है. शंकाेसाई रिफ्यूजी कॉलाेनी में रहनेवाले संजय कुमार बर्मन, जीवन नाथ, सुकुमार हलधर, नित्तो विश्वास, निरोदबाला, सत्यरंजन सरकार, पुलिन बिहारी ने कहा कि वे समय-समय पर इसकी मांग उठाते रहते हैं, लेकिन उन्हें मालिकाना हक नहीं मिला.
रिफ्यूजी कॉलाेनी में रहनेवाले हरविंदर सिंह मंटू बताते हैं कि मालिकाना हक नहीं मिलने से बच्चों को सरकारी नौकरी नहीं मिली. बैंक से लोन नहीं मिलता है. पानी-बिजली का बिल भी हमारे पुरखों के नाम से आता है, जो अब इस दुनिया में नहीं हैं. कॉलोनी के लाेग बताते हैं कि उनके बुजुर्ग बताते थे कि उस वक्त उन लोगों को सिदगोड़ा स्थित बारा कैंप में ठहराया गया था, जहां आज सूर्य मंदिर है. तीन साल तक वे लोग कैंप में रहे, जहां उन्हें सरकार की ओर से मुफ्त में भोजन, कपड़ा समेत लगभग जरूरत के सभी सामान मिलते थे. इसके बाद उन्हें हावड़ा ब्रिज से गोलमुरी पुलिस लाइन के बीच खपरैल मकान दिया गया.
सिदगोड़ा स्थित बारा कैंप में करीब 500 शरणार्थी परिवार थे, जिसमें सिंधी, पंजाबी व बंगाली शामिल थे, लेकिन बांग्लादेश के 132 परिवार थे. सरकार की ओर से उन्हें पढ़ाई-लिखाई की भी मुफ्त सुविधा थी, तो बड़े लोगों को टाटा मोटर्स और रेलवे में नौकरी मिली. नौकरी मिलने के साथ ही मुफ्त सुविधा बंद हो गयी. वैसे शुरू में ही सभी परिवार को दो-दो सौ रुपये भी दिये गये थे, ताकि वे जीविकोपार्जन का इंतजाम कर सकें.
Posted by : Pritish Sahay