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Azadi Ka Amrit Mahotsav: अंग्रेज अधिकारियों को पीट दिया था इमामुल हई खान ने

हम आजादी का अमृत उत्सव मना रहे हैं. भारत की आजादी के लिए अपने प्राण और जीवन की आहूति देनेवाले वीर योद्धाओं को याद कर रहे हैं. आजादी के ऐसे भी दीवाने थे, जिन्हें देश-दुनिया बहुत नहीं जानती. वह गुमनाम रहे और आजादी के जुनून के लिए सारा जीवन खपा दिया. पेश है अशोक कुमार की रिपोर्ट...

Azadi Ka Amrit Mahotsav: इमामुल हई खान सन 1918 में जारंगडीह आये तो वह हमेशा के लिए धनबाद-बोकारो के होकर रह गये. इमामुल मूलत: उत्तर प्रदेश के बलिया जिला के सेमरी रामपुर गांव के रहने वाले थे. घटना 1918 की है. उन्होंने अपने गांव में दो अंग्रेज अधिकारियों को लाठी से इसलिए पीट दिया था, क्योंकि उनलोगों ने उन्हें इंडियन डॉग कह संबोधित किया. तब वह 13-14 साल के रहे होंगे. अंग्रेजों की पिटाई के बाद जब वह घर पहुंचे तो उनके चाचा मो. यार खान ने गांव से भगा दिया. वह गांव से भागकर बोकारो के जारंगडीह आ गये. उनके गांव छोड़ते ही पूरा सेमरी रामपुर पुलिस छावनी में तब्दील हो गया था. गांव के युवाओं को अंग्रेजो ने पकड़ लिया. तब इमामुल हई खान के चाचा ने अंग्रेजों को आश्वासन दिया कि उसके गांव लौटते ही सूचना दे दी जायेगी.

खेत में घुसकर सब्जी तोड़ रहे थे अंग्रेज

असल में दो युवा अंग्रेज अधिकारी बिना किसी से पूछे इमामुल हई खान के खेत में घुस कर सब्जी तोड़ रहे थे. जब इमामुल ने उन्हें सब्जी तोड़ने से रोका तो उनलोगों ने उन्हें इंडियन डॉग कहकर भाग जाने को कहा. इस पर इमामुल ने उन्हें लाठी से पीट दिया. जारंगडीह आने के बाद इमामुल हई खान झरिया की एक कोयला खदान में काम करने लगे. यहीं पर जयप्रकाश नारायण के संपर्क में आये. इसके बाद वह मजदूर राजनीति से जुड़ गये. उनका शुरुआती राजनीतिक संपर्क राम मनोहर लोहिया, चंंद्रानंद झा, लक्ष्मी नारायण सिन्हा और जॉर्ज फर्नांडिस से हुआ.

स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लेने के चलते जाना पड़ा था जेल

आजादी से पूर्व झरिया कोलफील्ड में कई सफल मजदूर आंदोलनों का उन्होंने नेतृत्व किया. स्वतंत्रता आंदोलन में भी हिस्सा लेते रहे. इस दौरान लंबे अरसे तक भूमिगत रह कर आंदोलन के लिए लोगों को जागरूक करते रहे. 1937 से 1945 के बीच सत्याग्रह और भारत छोड़ो आंदोलन में हिस्सा लेने के कारण उन्हें जेल जाना पड़ा. उन्होंने धनबाद, हजारीबाग और भागलपुर जेल में करीब पांच वर्ष बिताये. आजादी के बाद वह सक्रिय रूप से मजदूर राजनीति से जुड़ गये थे. वह झरिया वाटर एंड माइंस बोर्ड (अब माडा) के चेयरमैन बनाये गये थे. वह इस पद पर 1982 तक रहे थे. उनका निधन 1982 में हुआ.

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