मनोज लकड़ा @ रांची : रांची के मेन रोड स्थित क्राइस्ट चर्च छोटानागपुर का पहला चर्च है, जिसमें सबसे पहले 1855 में 24 दिसंबर की रात कैरोल (क्रिसमस के गीत) गाये गये. उस दिन इस चर्च का उदघाटन हुआ था और पुण्य रात की पहली आराधना हुई थी. गाेस्सनर थियोलॉजिकल कॉलेज के पूर्व प्राचार्य रेव्ह मनमसीह एक्का ने अपने एक लेख में लिखा है : ईश्वर की स्तुति में जो गीत गाये गये, उसके साथ बाजा भी बजा. शानदार पाईप ऑर्गन, जिसकी कीमत उस समय 3000 रुपये थी. उसके बजने से दूर-दूर तक लोग सुन सकते थे. विश्वासीगण प्रोसेशन के साथ गिरजाघर में घुसे. इस समूह में मिशनरियों (जर्मन) द्वारा संचालित अनाथालय के बच्चे भी थे. अंग्रेज भी आराधना में शामिल थे. लेकिन इतिहास इससे भी पहले से है, जब यहां कोई चर्च नहीं था. रेव्ह डिटर हेकर ने अपने लेख द डेवलपमेंट ऑफ चर्च म्यूजिक इन क्राइस्ट चर्च, रांची एंड द होल जीइएल चर्च में उन्होंने लिखा है : शुरुआत से ही फादर गोस्सनर द्वारा भेजे गये मिशनरियों ने चर्च संगीत को बहुत महत्व दिया. ये मिशनरी दो नवंबर 1845 को रांची पहुंचे थे. अपने साथ जर्मन भजन पुस्तकें लाये थे, जिनका उपयोग उन्होंने किसी भी व्यक्ति के बपतिस्मा लेने और किसी भी मंडली के अस्तित्व में आने से पहले अपनी भक्ति में किया. क्राइस्ट चर्च में पहला ऑर्गन 1855 में स्थापित किया गया था. यह लगभग दो वर्षों तक चला और प्रथम स्वतंत्रता संग्राम 1857 के दौरान बर्बाद हो गया. इसके बाद दूसरा ऑर्गन 1908 और तीसरा 2007 में स्थापित किया गया. 2007 का ऑर्गन अच्छी स्थिति में था, लेकिन इसे ओडिशा के राजगांगपुर में जीइएल चर्च को भेज दिया गया. वर्तमान ऑर्गन क्राइस्ट चर्च का चौथा ऑर्गन है.
1857 में नवनिर्मित ऑर्गन को उग्र भीड़ ने तोड़ दिया
दुर्भाग्यवश 1857 के संघर्ष के दौरान एक उग्र भीड़ ने बेंच, फिटिंग, खिड़कियां और इस नवनिर्मित ऑर्गन को भी ध्वस्त कर दिया. इसके बाद करीब 40 वर्षों तक चर्च सर्विस में सिर्फ हारमोनियम ही बजाया जा सका. 19वीं शताब्दी के अंत से कुछ समय पहले मिशनरियों ने फिर एक नया ऑर्गन हासिल करने का प्रयास किया. डॉ ऑल्फ्रेड नोट्रोट ने वर्ष 1896 में अपनी जर्मनी यात्रा के समय एक नये ऑर्गन के लिए धन इकट्ठा करने की पहल की. इस दौरान हाले के पास जोरबिग नाम के एक छोटे से शहर में दान संग्रह के लिए एक प्लेट चारों ओर भेजी, तब उनके बगल के एक व्यक्ति ने उन से कहा : यदि आप अपने चर्च के लिए एक ऑर्गन लेना चाहते हैं, तो मैं इसे एक उपहार के रूप में दे सकता हूं. वह व्यक्ति रॉयल ऑर्गन बिल्डर था. उसने अपना वादा भी निभाया.
पुरुलिया से दो बैलगाड़ियों पर आया था जर्मनी का ऑर्गन
रॉयल ऑर्गन बिल्डर से बातचीत कर एक मध्यम आकार का ऑर्गन बनाने पर सहमति बनी. जर्मनी में ही मुख्य उपकरण तैयार हुआ. इसके बाद एक बक्से में मुख्य उपकरण और दूसरे बक्से में पाइप की पैकेजिंग की गयी, जिन्हें रांची में मुख्य उपकरण से जोड़ देना था. डॉ नॉट्रॉट को कारखाना आने का निर्देश मिला, ताकि वे समझ सकें कि ऑर्गन को कैसे जोड़ना है. हालांकि वे किन्हीं कारणों से पहुंच नहीं पाये, तो उनकी जगह रांची जानेवाले एक और मिशनरी शूएट्ज को जरूरी जानकारियां दी गयीं. इसके बाद दोनों बक्सों को पहले कोलकाता पहुंचाया गया. अब एक बड़ी समस्या थी कि इसे रांची तक कैसे पहुंचाया जाये, क्योंकि कोलकाता के बाद का रेलवे स्टेशन पुरुलिया ही था. पुरुलिया में कार्यरत मिशनरी उफ्फमन को उन विशाल बक्सों को रांची तक पहुंचाने की जिम्मेदारी मिली. इसके लिए दो विशेष गाड़ियां बनानी पड़ीं. इसमें एक चारपहिया वाहन जो थोड़ा अधिक चौड़ा था और दूसरा दोपहिया वाली बैलगाड़ी. बड़े वाहन को दो जोड़ी बैल खींच रहे थे. और काफिले के साथ एक पर्यवेक्षक, दो बढ़ई और आठ कुली थे, जो बैलों को धकेलने में मदद कर रहे थे.
क्राइस्ट चर्च के ‘गान मास्टर’ बने मनसिद्ध तिर्की
जीइएल चर्च की अंलेलिया तिर्की ने अपने लेख में अपने दादा स्व मनसिद्ध तिर्की के बारे बताया है, जो क्राइस्ट चर्च, मेन रोड में गान मास्टर थे. उन्होंने लिखा है : 16 अक्तूबर 1857 को दादा मनसिद्ध तिर्की का जन्म हुआ. उस समय की परिस्थिति में गांव में खुद को अकेला पाकर परदादा रातों-रात परिवार सहित जर्मन मिशनरियों के पास रांची आ गये. अपने दो पुत्र मनसिद्ध तिर्की और पौलुस तिर्की को काफी कम उम्र में जर्मन मिशनरियों के हाथों में सौंप बाकी बच्चों को लेकर असम चले गये. इन दोनों भाईयों की शिक्षा-दीक्षा जर्मन मिशनरियों की देख-रेख में हुई. बड़े होने पर मनसिद्ध तिर्की की नियुक्ति बेथेसदा मवि और गिरजा के लिए एक ”गान मास्टर” के रूप में हुई. उन्होंने मृत्युपर्यंत गान मास्टर के रूप में योगदान दिया. मनसिद्ध तिर्की और फुलमनी तिर्की के पुत्र मंगल तिर्की ने 1972 तक क्राइस्ट चर्च घर टेनर गायक के रूप में अपना योगदान दिया. वहीं, उनके दूसरे पुत्र प्रसन्न तिर्की ने जमशेदपुर टाटा स्टील कंपनी में नौकरी करते हुए 1929 से 1960 तक सोनारी गिरजाघर में एक गान मास्टर के रूप में अपना योगदान दिया था.
जॉन खलखो, अंतोनी कुजूर, जोसेफ कुजूर ने बनाया प्रारंभिक कॉयर
सेवानिवृत्त आरक्षी महानिरीक्षक आरइवी कुजूर ने अपने लेख में संत मरिया महागिरजाघर की कॉयर टीम की जानकारी साझा की है. उन्होंने लिखा है : तीन अक्तूबर 1909 को विधिवत प्रार्थना शुरू हुई. पत्थलकुदवा के जॉन खलखो, बढ़ई टोली के अंतोनी कुजूर और बैंक डेरा के जोसेफ कुजूर ने प्रारंभिक कॉयर बनाया. जॉन खलखो ने कॉयर मास्टर का भार संभाला. शुरू में महागिरजाघर की गायक मंडली पॉलिजेनिक नोट के माध्यम से लैटिन, अंग्रेजी व हिंंदी गीत गाया करती थी, जिसमें महिलाएं नहीं होती थीं. 1964-65 के आसपास लैटिन व पश्चिमी गीत-संगीत विधि के विरोध में गायक मंडली के सदस्यों ने वॉक आउट कर दिया था. फिर फादर विक्टर वॉन बॉर्टल और फादर डिकाइपर के प्रयासों से गायक मंडली का पुनर्गठन किया गया. पूजन पद्धति में हिंदी और क्षेत्रीय भाषाओं के गीत-संगीत ने लैटिन और पश्चिमी संगीत का स्थान ले लिया. ऑर्गन वादन चलता रहा. साथ में मांदर, झांझ, तबला का भी इस्तेमाल होने लगा.
जानिए संत स्टीफन चर्च हजारीबाग का इतिहास
हजारीबाग का संत स्टीफन चर्च छोटानागपुर का पहला चैपल है, जहां जन्म पर्व के गीत गाये गये. इसका निर्माण 1842 में ब्रिटिश सरकार ने ब्रिटिश फौज के सैनिकों व अधिकारियों के लिए किया था. चैपल (उपासनालय) किसी खास समूह के लिए होता है, जहां आम लोग नहीं जा सकते. यह सिर्फ ब्रिटिश फौज के सैनिकों व अधिकारियों के लिए ही था. 1890 में एंग्लिकन चर्च के छोटानागपुर डायसिस की स्थापना हुई. इसके बाद 22 जनवरी 1892 को आयरलैंड की डब्लिन यूनिवर्सिटी मिशन के पांच मिशनरियों को उपासनालय का भार उन्हें सौंपा दिया गया. इसी समय फौजी छावनी हजारीबाग से रामगढ़ चली गई. संत पॉल कैथेड्रल के बुजुर्ग पादरी रेव्ह केएम फिलिप ने बताया कि रांची में एंग्लिकन चर्च 1869 में आया. इस समय से ही रांची में कैरोल गायन शुरू हुआ. संत पॉल कैथेड्रल, बहुबाजार 1873 में बनकर तैयार हुआ.
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