विश्व आदिवासी दिवस पर आज हम उन सपूतों को याद करेंगे, जिनकी वजह से आज देश-दुनिया में झारखंड के आदिवासियों की पहचान है. यूं तो झारखंड की माटी ने एक से बढ़कर एक सपूत दिये, जिन्होंने अपने काम से देश-दुनिया में पहचान बनायी. बिरसा मुंडा, सिदो-कान्हू, चांद-भैरव आदिवासियों के नायक थे. उन्होंने अंग्रेजों से भारत को आजाद कराने के लिए संघर्ष किया. जल, जंगल, जमीन के लिए संघर्ष किया. वहीं, कुछ ऐसे भी नायक हुए, जो आजाद भारत या कहें कि आधुनिक भारत के निर्माण में रचनात्मक योगदान दिया. आज हम ऐसे ही तीन नायकों के बारे में बात करेंगे. इनमें दो ने झारखंड को अलग राज्य दिलाने के लिए संघर्ष किया. तीसरी शख्सीयत वो हैं, जिन्होंने ‘मदर ऑफ ऑल इंडस्ट्रीज’ कही जाने वाले हेवी इंजीनियरिंग कॉरपोरेशन (एचइसी) के डिप्टी चीफ इंजीनियर (डिजाइनर) रहे और बाद में सक्रिय राजनीति में आ गये. आदिवासियों की जमीन की लूट के विरुद्ध आवाज उठायी. इन तीन शख्सीयतों के नाम हैं- डॉ राम दयाल मुंडा, जयपाल सिंह मुंडा और कार्तिक उरांव की.
रांची के पास दिउरी में जन्मे राम दयाल मुंडा ने अमेरिका की नौकरी छोड़कर झारखंड लौटने का फैसला तब किया था, जब लोगों का सपना होता था कि वह विदेश में जाकर पढ़ें. वहां नौकरी करें. अमेरिका में पठन-पाठन के दौरान ही उन्हें इस बात का एहसास हुआ कि अपनी माटी के लिए कुछ करना चाहिए. इसलिए मिनेसोटा विश्वविद्यालय में प्रोफेसर की नौकरी छोड़कर रांची लौटे. यहां अलग झारखंड राज्य के लिए आंदोलन किया, तो लोगों में सांस्कृतिक चेतना भी जगायी. बिहार और केंद्र सरकार ने जब आंदोलनकारियों की बातें नहीं सुनीं, तो उन्होंने भूख हड़ताल भी की.
डॉ रामदयाल मुंडा का पहला प्यार था संगीत
संगीत उनका पहला प्यार था. उनकी बांसुरी की तान से लोग मंत्रमुग्ध हो जाते थे. रांची विश्वविद्यालय के वाइस-चांसलर रहे डॉ मुंडा राज्यसभा के सांसद भी रहे. वर्ष 2007 में उन्हें संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार मिला. भारत सरकार ने वर्ष 2010 में पद्म श्री पुरस्कार से सम्मानित किया. वर्ष 2004 में मुंबई के वर्ल्ड सोशल फोरम में डॉ राम दयाल मुंडा और उनकी टीम के परफॉरमेंस को जिन्होंने देखा था, उस शो को वे आज भी नहीं भूले हैं. खासकर बांसुरी और मांदर की थाप आज भी लोगों को याद है. 1939 में रांची से सटे दिउरी गांव में जन्मे राम दयाल मुंडा की शुरुआती शिक्षा अमलेसा स्थित लूतर मिशन स्कूल में हुई. बाद में वह पढ़ने के लिए खूंटी चले गये. मिशन स्कूल में विदेशी मेहमानों का आना-जाना लगा रहता था. बाद में जब वह पढ़ाई के लिए खूंटी पहुंचे, तो यहां उनकी सोच का दायरा और बड़ा हुआ. बाद में वह अमेरिका चले गये.
Also Read: VIDEO: विश्व आदिवासी दिवस को लेकर सज-धजकर तैयार है रांची का बिरसा मुंडा स्मृति पार्क, देखिए यहां की एक झलकशिकागो विश्वविद्यालय में इंडिक ग्रुप पर किया शोध
शिकागो विश्वविद्यालय की महत्वाकांक्षी रिसर्च परियोजना इंडिक ग्रुप (संताली, मुंडारी और अन्य जनजातीय भाषाएं) पर डॉ नोरमन जिदे की देख-रेख में शोध किया. इसके बाद उन्हें मिनेसोटा विश्वविद्यालय के डिपार्टमेंट ऑफ साउथ एशियन स्टडीज में प्राध्यापक की नौकरी मिल गयी. बहुमुखी प्रतिभा के धनी रामदयाल मुंडा ने आदिवासी संस्कृति और परंपराओं को सहेजने की सीख दी. अखड़ा को फिर से जीवंत किया. वर्ष 1999 में रांची विश्वविद्यालय के कुलपति पद से रिटायरमेंट के बाद डॉ राम दयाल मुंडा ने संयुक्त राष्ट्र को भी आदिवासियों से जुड़ी नीति बनाने की सलाह दी. वर्ष 1987 में उनके ट्रुप ने सोवियत रूस में आयोजित ‘फेस्टिवल ऑफ इंडिया’ में भाग लिया. 1989 में इसी टीम ने फिलीपींस, चीन और जापान में भी कार्यक्रमों की प्रस्तुति दी.
आईसीआईटीपी के चीफ प्रेसिडेंट थे राम दयाल मुंडा
वह इंडिया कन्फेडरेशन ऑफ इंडीजिनस एंड ट्राइबल पीपल (आईसीआईटीपी) के चीफ प्रेसिडेंट रहे. शिक्षाविद और संगीत से जुड़े डॉ मुंडा ने राजनीति के साथ-साथ समाजसेवा भी की. पिछड़ों के उत्थान के लिए कई एनजीओ के साथ मिलकर काम किया. खासकर आदिवासी, दलित और महिलाओं के उत्थान के लिए उन्होंने कई पहल की. उनके जीवन का मूल मंत्र था- ‘जे नाची से बांची’. यानी जो नाचेगा, वही बचेगा. केंद्र सरकार ने उन पर एक फिल्म बनायी है, जिसका नाम है- जे नाची, से बांची. झारखंड में डॉ मुंडा की अलग पहचान थी. शिक्षाविद से लेकर राजनेता तक उनका सम्मान करते थे. उन्होंने दर्जनों किताबें लिखीं. कई किताबों का अनुवाद भी किया.
जयपाल सिंह मुंडा भी बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे. उनके कप्तानी में भारत ने ओलिंपिक का स्वर्ण पदक जीता था. वर्ष 1925 में उन्हें ‘ऑक्सफोर्ड ब्लू’ का खिताब दिया गया था. यह खिताब पाने वाले जयपाल सिंह मुंडा एकमात्र इंटरनेशनल हॉकी प्लेयर थे. वर्ष 1928 में भारत ने ओलिंपिक में पहली बार हॉकी में गोल्ड मेडल जीता था. इस टीम की अगुवाई जयपाल सिंह मुंडा कर रहे थे. आदिवासियत के प्रबल पैरोकार जयपाल सिंह मुंडा देश के जाने-माने राजनीतिज्ञ, शिक्षाविद, पत्रकार, लेखक और संपादक थे. जनवरी 1938 में आदिवासी महासभा के अध्यक्ष बने. इसके बाद उन्होंने अलग झारखंड राज्य की स्थापना की मांग की. आदिवासियों के संरक्षण के मुद्दे को उन्होंने संसद में जोर-शोर से उठाया.
आदिवासियों को जागरूक और संगठित किया
आजादी के बाद जयपाल सिंह मुंडा ने आदिवासियों को जागरूक और संगठित करना शुरू कर दिया. संसद से सड़क तक अलग झारखंड राज्य के लिए वह कुछ भी स्वीकार करने को तैयार थे. कांग्रेस ने उनको आश्वासन दिया था कि अगर वे अपने सांसदों के साथ कांग्रेस में शामिल हो जाते हैं, तो अलग झारखंड राज्य के गठन का वह मार्ग प्रशस्त कर देगी. जयपाल सिंह मुंडा ने कांग्रेस के प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया. वह खुद कांग्रेस में शामिल हो गये. झारखंड पार्टी का कांग्रेस में विलय कर दिया. कांग्रेस ने जयपाल सिंह मुंडा को बिहार का उप-मुख्यमंत्री बना दिया. कांग्रेस अपने वादे से मुकर गयी. इससे नाराज जयपाल सिंह मुंडा ने भी कांग्रेस छोड़ दी.
जयपाल सिंह ने सार्वजनिक रूप से गलती स्वीकार की
जयपाल सिंह मुंडा ने सार्वजनिक रूप से अपनी गलती स्वीकार की. कहा कि कांग्रेस ने धोखा दिया. जयपाल सिंह मुंडा ने यह भी ऐलान किया था कि वह झारखंड पार्टी में लौटेंगे, लेकिन एक सप्ताह बाद ही दिल्ली में उनका निधन हो गया. जयपाल सिंह मुंडा का जन्म रांची से सटे खूंटी में हुआ था. आदिवासी परिवार में जन्मे जयपाल ने रांची और इंगलैंड में जाकर पढ़ाई की. संविधान सभा से लेकर संसद और सड़क तक उन्होंने आदिवासियों की आवाज बुलंद की. आदिवासियों को राजनीति में भागीदारी दिलाने की पहल की. वर्ष 1948 में आदिवासी लेबर फेडरेशन की स्थापना की, ताकि आदिवासियों को राजनीति में सक्रिय किया जा सके.
कार्तिक उरांव विलक्षण प्रतिभा के धनी थे. गुमला जैसे पिछड़े इलाके में जन्म लेने और मैट्रिक तक की पढ़ाई करने वाले कार्तिक उरांव को छोटानागपुर का ‘काला हीरा’ कहा जाता था. वह तीन बार सांसद और एक बार विधायक रहे. कार्तिक उरांव आदिवासियों के मसीहा थे. 29 अक्टूबर 1924 को गुमला जिले के लिटाटोली में जन्मे कार्तिक उरांव अपने जमाने के पहले राजनेता थे, जिनके पास इंजीनियरिंग की 9 डिग्रियां थीं. वह बचपन से ही विलक्षण प्रतिभा के धनी थे. शुरुआती पढ़ाई उन्होंने खोरा के जामटोली स्कूल से की. वर्ष 1948 में पटना कॉलेज से बीएससी इंजीनियरिंग की पढ़ाई पूरी की.
1950 में हुआ कार्तिक उरांव का विवाह
वर्ष 1950 में बिहार सरकार के सिंचाई विभाग में सहायक अभियंता नियुक्त हुए. उसी साल उनका विवाह तेजू भगत से हुआ. तेजू ईचा ग्राम निवासी तत्कालीन डिप्टी कलेक्टर तेजू भगत की सुपुत्री थीं. विवाह के करीब दो साल बाद वर्ष 1952 में उच्च शिक्षा के लिए कार्तिक उरांव इंगलैंड चले गये. वर्ष 1959 में उन्होंने ब्रिटिश सरकार को विश्व के सबसे बड़े ऑटोमेटिक पावर स्टेशन का प्रारूप बनाकर दिया. तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू के कहने पर वह मई 1961 में भारत लौट आये. कार्तिक उरांव को रांची स्थित हेवी इंजीनियरिंग कॉरपोरेशन (एचइसी) में सुपरिटेंडेंट कंस्ट्रक्शन की नौकरी मिली. बाद में उनकी प्रतिभा को देखते हुए उन्हें डिप्टी चीफ इंजीनियर डिजाइनर बना दिया गया.
नेहरू के कहने पर राजनीति में आये कार्तिक उरांव
पंडित नेहरू के कहने पर कार्तिक उरांव राजनीति में आये. 1962 में उन्होंने कांग्रेस के टिकट पर लोकसभा का चुनाव लड़ा. डेविड मुंजनि ने उन्हें पराजित कर दिया. वर्ष 1967 में लोहरदगा लोकसभा सीट से चुनाव लड़कर संसद पहुंचे. इसके बाद 1971 और 1980 के संसदीय चुनावों में भी उन्होंने जीत दर्ज की. केंद्र में उन्हें दो बार मंत्री बनाया गया. 1971 में संचार राज्य मंत्री बनाया गया, जबकि 1980 में केंद्रीय पर्यटन एवं नागरिक उड्डयन मंत्री. संसद में उन्होंने आदिवासियों की आवाज बुलंद की.
कार्तिक उरांव के प्रयासों से ही बना ट्राइबल सब प्लान
उनके प्रयासों से ही आदिवासियों के विकास और कल्याण के लिए ट्राइबल सब प्लान बना. उन्होंने ही अखिल भारतीय आदिवासी विकास परिषद की स्थापना की. कार्तिक उरांव की पहल पर ही 1968 में सरकार को ‘भूमि वापसी अधिनियम’ बनाना पड़ा. भूदान आंदोलन के दौरान आदिवासियों की जमीन औने-पौने दामों में खरीद ली गयी थी. इस अधिनियम के अस्तित्व में आने के बाद आदिवासियों की जमीन वापस कर दी गयी. अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षण की पुरजोर वकालत उन्होंने की थी.