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Azadi ka Amrit Mahotsav : 1855-56 में ही नहीं, ब्रिटिश हुकूमत को संतालों ने बार-बार दी चुनौती

30 जून को संताल हूल दिवस है. यह हूल, जिसका केंद्र झारखंड का संताल परगना था, 1855-56 में वीर सिदो-कान्हू के नेतृत्व में हुआ था. जल, जंगल जमीन और आदिवासी अस्मिता की रक्षा के लिए संताल जनजाति के प्रतिरोध की यह सबसे बड़ी घटना थी

30 जून को संताल हूल दिवस है. यह हूल, जिसका केंद्र झारखंड का संताल परगना था, 1855-56 में वीर सिदो-कान्हू के नेतृत्व में हुआ था. जल, जंगल जमीन और आदिवासी अस्मिता की रक्षा के लिए संताल जनजाति के प्रतिरोध की यह सबसे बड़ी घटना थी, किंतु ब्रिटिश हुकूमत और महाजनी-जमींदारी शोषण के खिलाफ संतालों का यह अकेला विद्रोह नहीं था. इसके पहले और इसके बाद भी संतालों ने विद्रोह किये.

टिश हुकूमत और महाजनी शोषण के खिलाफ संतालों ने एक नहीं, कई बार विद्रोह और आंदोलन किये. 1855-56 के संताल हूल के पहले और इसके बाद भी. संताल परगना के अस्तित्व में आने के पहले भी संतालों ने ब्रिटिश हुकूमत को चुनौती और अपनी बहादुरी का परचम लहराते हुए शहादत दी.

हर बार जल, जंगल, जमीन और अपनी अस्मिता की हिफाजत तथा शोषण के खिलाफ यह समाज विद्रोही हुआ. संताल हूल (1855-56) के एक साल पूर्व, 1854 से लेकर 1917-18 तक छाेटानागपुर-संताल परगना से लेकर मयूरभंज तक कम-से-कम नौ-दस बार संतालों ने विद्रोह किये.

संतालों के विद्रोह के पीछे तीन कारक रहे- पहला, जल, जंगल और जमीन पर हक का सवाल, दूसरा, ब्रिटिश हुकूमत की लगान वसूलने की नीति और इसके लिए उसके द्वारा बहाल जमींदारों की नीयत तथा तीसरा, महाजनों का शोषण. इन तीनों कारकों को पुलिस, न्याय और प्रशासन में बैठे लोगों के भ्रष्ट आचरण ने और घना कर दिया. लिहाजा, बार-बार विद्रोह हुए और एक-दो को छोड़ कर हर बार संतालों ने हुकूमत को झुकाया, नीति व व्यवस्था में सुधार और बदलाव करने के लिए मजबूर किया.

यह बात दीगर है कि इन सुधारों और बदलावों के बावजूद संतालों के असंतोष को समाधान की सीमा तक कम करने में हुकूमत को कामयाबी नहीं मिली, मगर संताल विद्रोहों और आंदोलनों को उनके फलक के हिसाब से कामयाबी तो हर बार मिली ही.

दरअसल, झंझट तब से शुरू हुआ, जब 1765 में ईस्ट इंडिया कंपनी को बंगाल, बिहार और उड़ीसा की दीवानी शाह आलम द्वितीय से मिली. वर्तमान झारखंड की भौगोलिक सीमा भी इसके दायरे में आयी. इसके जरिये यह क्षेत्र भी कर चुकाने वाला इलाका बन गया था. टकराव यहीं से शुरू हुआ.

कंपनी ने जगह-जगह अपने एजेंट और जमींदारों को बहाल किया और उनके जरिये कर की वसूली के लिए जनता पर अत्याचार शुरू कराया. इसके लिए जो भी शासनिक शक्ति इस्तेमाल हो सकती थी, उसके लायक कानूनी व्यवस्था बना दी गयी. आदिवासियों के लिए यह समझ से परे था कि जब जंगल उनका, जमीन उन्होंने तैयार की, तो टैक्स लेने वाले जमींदार और कंपनी के एजेंट कौन हैं, कहां से आ गये?

इन सवालों ने उनके अंदर प्रतिरोध का बीज बोया और प्रतिरोध की इस भावना को दबाने के प्रयास, प्रपंच और पाखंड ने उन्हें विद्रोही बना दिया. इसकी पहली बड़ी आग 1767 में जंगल महल में फैली और चुआड़ विद्रोह हुआ. इसके बाद के सालों में पलामू पर आक्रमण और चेरो विद्रोह (1771-1819 ), पहाड़िया विद्रोह (1784), तमाड़ विद्रोह (1782-98), सिंहभूम का हो विद्रोह (1820-21), कोल विद्रोह (1831-32), मानभूम-सिंहभूम भूमिज विद्रोह (1832-33) जैसे विद्रोह होते चले गये.

संघर्ष के इसी दौर में, 1790 से 1810 के बीच संताल जनजाति के लोग मानभूम, सिंहभूम, हजारीबाग, बांकुड़ा, पुरुलिया और मिदनापुर जिलों से आ कर राजमहल की पहाड़ी की तराई वाले क्षेत्र में बस गये. हालांकि इन्हें इस क्षेत्र में बसने में अंग्रेज प्रशासन ने ही मदद की, किंतु कर वसूली के सवाल पर संघर्ष की भूमि जल्द ही तैयार हो गयी. कर वसूली के लिए इस क्षेत्र में आकर बसे दिकू कहे जाने वाले महाजनों और जमींदारों का जुल्म बढ़ने लगा. लिहाजा, वर्तमान संताल परगना से लेकर इसके अन्य सीमावर्ती इलाकों के संतालों में प्रतिरोध की भावना प्रबल हुई और उन्होंने बार-बार आंदोलन छेड़ा.

1854 का मोरगो मांझी-बीरसिंह मांझी का विद्रोह :

संताल परगना के बीरसिंह मांझी ने 1854 में दिकू लोगों के खिलाफ आंदोलन छेड़ा, जो प्रकारांतर से ब्रिटिश शासन के खिलाफ विद्रोह था. इसका मकसद था अपनी आजादी का ऐलान और स्वतंत्र राज्य की स्थापना करना. पारसनाथ पहाड़ी क्षेत्र के मोरगो मांझी ने जिस विद्रोह का ऐलान किया था, बीरसिंह मांझी ने उसे आगे बढ़ाया. बीरसिंह मांझी ने यह ऐलान कर दिया कि उन्हें चांदों बोंगा और मारांग बुरू के दर्शन हुए हैं.

उन्होंने यह भी एलान किया कि चांदों बोंगा-मारांग बुरू ने उन्हें चमत्कारिक शक्ति दी है और संतालों के शोषकों को दंडित करने का आदेश दिया है. शोषण और अत्याचार से त्रस्त संताल समाज ने उनका नेत‍ृत्व स्वीकार किया. इस विद्रोह ने क्षेत्र को खूब आंदोलित किया. इसके एक साल बाद ही महान संताल हूल हुआ.

1855-56 का संताल हूल :

सिदो-कान्हू के नेतृत्व में 30 जून, 1855-56 को वर्तमान साहिबगंज जिले के बरहेट प्रखंड के भोगनाडीह गांव से शुरू हुआ संताल विद्रोह शोषण के खिलाफ आदिवासी प्रतिरोध की सबसे बड़ी घटना थी. इसने आदिवासी चेतना के बड़े फलक काे सामने लाया और संतालों की जातीय अस्मिता को नयी पहचान दी.

इस विद्रोह की पृष्ठभूमि को समझने के लिए साम्राज्यवादी, राष्ट्रवादी और निर्पेक्ष इतिहासकारों ने अलग-अलग दृष्टियां अपनायीं, किंतु एक विंदु पर सभी का मत प्राय: समान है कि यह विद्रोह ब्रिटिश हुकूमत की अर्थसंग्रहनीति और उसके पृष्ठपोषक जमींदारों, महाजनों एवं पुलिस के शोषण-भ्रष्टाचार तथा प्रशासनिक दुर्व्यवस्था की कोख से उपजे आदिवासी जनाक्रोश का परिणाम था. इतिहासकारों ने जिन कारकों को इस विद्रोह की तात्कालिक वजह माना, वे स्थूल रूप में इस प्रकार वर्गीकृत या तारांकित हैं- स्थानीय साहूकारों व महाजनों की बेईमानी तथा पुलिस और न्यायालय व्यवस्था में व्याप्त भ्रष्टाचार.

1855-56 का हजारीबाग में विद्रोह :

संताल हूल की लपटें हजारीबाग भी पहुंचीं. लुबिया मांझी और बैरू मांझी के नेतृत्व में भीषण विद्रोह हुआ. विद्रोह इतना प्रबल था कि शहर से गांव तक इसकी परिधि में थे. अप्रैल 1856 में संताल विद्रोही हजारीबाग जेल में घुस गये और आग लगा दी. इस विद्रोह को दबाने के लिए जहां ब्रिटिश हुकूमत को अपने क्रूर चरित्र को दोहराना पड़ा, वहीं बड़ी संख्या में संताल विद्रोहियों ने शहादत दी.

1860-61 का जमींदारी जुल्म के खिलाफ विद्रोह :

1855-56 के महाविद्रोह के बाद भी संतालों को महाजनी शोषण और जमींदारी उत्पीड़न से मुक्ति नहीं मिली. हालांकि ब्रिटिश हुकूमत ने संतालों के असंतोष को कम करने के लिए शासनिक व्यवस्था और कर प्रणाली में सुधार की बड़ी पहल की, किंतु इस बदलाव ने नये किस्म का संकट पैदा किया. जमींदारी हक खरीद कर नये जमींदार पैदा हुए और उन्होंने कर की दरें मनमाने ढंग से बढ़ानी शुरू की. लिहाजा, संतालों ने एक बार फिर विद्रोह किया.

1866-67 का बामनघाटी का विद्रोह :

साल 1866 का उत्तरार्द्ध आते-आते उड़ीसा (ओड़िशा) के मयूरभंज के बामनघाटी परगना के संतालों का शोषण और अत्याचार सहते जाने का धैर्य जवाब दे गया और उन्होंने विद्रोही रुख अख्तियार कर लिया. स्थूल रूप में विद्रोह के यहां तीन कारक थे- भ्रष्ट अफसर, शोषक दिकू और भीषण अकाल. ब्रिटिश हुकूमत ने जमीन का सर्वे और उसकी बंदोबस्ती का काम शुरू किया था. इस काम में लगे अफसर और कर्मचारी भ्रष्ट थे.

जमीन मापी में मनमानी करते थे. लगान वसूलते थे, मगर रसीद नहीं देते थे. ऊपर से खुद के लिए नाजायज तरीके से रसद मांगते थे. वहीं, इलाके में बड़ी संख्या में बसे बाहरी लोग (दिकू/हतुआ) स्थानीय निवासियों संताल, कोल, भूमिज आदि की जमीन हड़पने के लिए महाजनी कर्ज का खेल खेल रहे थे. ऊपर से इलाके में भीषण अकाल पड़ा था. चारों ओर भुखमरी और अकाल मौत की चादर पसरी हुई थी.

लिहाजा, संताल पीड़ों के चार सरदारों ने रसद देने से इनकार कर दिया. उन्हें गिरफ्तारी कर लिया गया. संतालों ने विद्रोह शुरू कर दिया. राजा के सिपाहियों को बहलदा के बाहर खदेड़ा. महीनों तक क्षेत्र में अशांति रही. 1867 में हुकूमत को झुकना पड़ा. संताल सरदारों के साथ लिखित समझौता हुआ. राजा बर्खास्त किया गया. बामनघाटी का प्रशासन सिंहभूम के उपायुक्त डाॅ हेयस् को सौंपा गया. संताल सरदारों को पुलिस-अधिकार मिले. गांवों का बंदोबस्त उनके साथ किया गया.

1869-70 का टुंडी में विद्रोह :

यहां भी जमीन पर हक और लगान की दर को लेकर संताल रैयतों और स्थानीय जमींदार के बीच संघर्ष हुआ. 1869 के उत्तरार्द्ध में 52 गांवों के संताल रैयतों ने जमींदार के खिलाफ विद्रोह छेड़ दिया. जमींदार ने टुंडी छोड़ कर कतरास में शरण ली. 1870 में कर्नल डाल्टन के हस्तक्षेप पर संतालों एवं जमींदार के बीच समझौता हुआ. रैयतों को जंगल और जमीन पर अधिकार वापस मिला. लगान की चालू दर अगले आठ साल तक के लिए स्थिर कर दी गयी.

1871 का सफाहोड़ आंदोलन :

1855-56 के संताल हूल के बाद भी संताल परगना में शांतिपूर्ण नहीं थी. महाजनी शोषण और जमींदारी शोषण का सिलसिला बंद नहीं हुआ था. हालांकि ब्रिटिश हुकूमत ने संतालों के असंतोष को कम करने के लिए की गयी शासनिक व्यवस्था के तहत हूल शुरू होने के करीब साढ़े पांच माह बाद ही, 22 दिसंबर, 1855 को संताल परगना जिले का गठन किया गया. जमींदारी वर्ग की संरचना एवं जागीर व्यवस्था में भी परिवर्तन किये गये, किंतु इस बदलाव से भी हालात नहीं बदले.

ऐसे में हिंसा की जगह अहिंसा के रास्ते समाज को बदलने और उस नैतिक बल पर समाज को संगठित कर ब्रिटिश राज से मुक्ति पाने का रास्ता तलाश गया. राष्ट्रीय चेतना से संपृक्त इस सामाजिक आन्दोलन का नेतृत्व झारखंड के संताल परगना (तब जिला) के गोड्डा सब डिवीजन (अब जिला) के तरडीहा गांव के आध्यात्मिक नेता भागीरथ मांझी ने किया.

उन्होंने खुद को राजा घोषित कर दिया. वह जमीन का लगान वसूलने लगे और रसीद भी जारी करने लगे. रैयतों को आदेश दे दिया कि कोई सरकार या जमींदार को लगान नहीं देगा. 1871 में यह आंदोलन चरम पर था. सरकार ने भागीरथ मांझी को गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया. यह आंदोलन छोटानागपुर के हजारीबाग में भी फैला, जहां इसका नेतृत्व दुबिया गोसाईं ने किया.

1896-97 का पाकुड़ विद्रोह :

ब्रिटिश शासन व्यवस्था के खिलाफ हुए इस आंदोलन में भी जमीन और लगान का मुद्दा तो था ही, बेगारी भी बड़ा कारण था. दरअसल, तब संताल परगना में सड़कों का निर्माण और उनकी मरम्मत के लिए यह अनिवार्य कर दिया गया कि इस काम में गांव के लोग हिस्सा लेंगे, मगर उन्हें मजदूरी नहीं मिलेगी. दूसरी ओर पाकुड़ में मिस्टर क्रेवन ने भूमि संबंधी व्यवस्था में बदलाव की कोशिश की, जो संतालों को स्वीकार नहीं थी. लिहाजा, पूर्व परगनैत फत्तेह संताल (फुत्तेह संताल) के नेतृत्व में आंदोलन शुरू हुआ. रैयतों ने लगान चुकाने से इनकार कर दिया. बाजार लूटे जाने लगे. अंतत: फत्तेह गिरफ्तार कर लिये गये.

1902 का सरायकेला का विद्रोह :

सरायकेला के राजा ने लगान की दर मनमाने ढंग से तय कर दी और उसकी वसूली के लिए अत्याचार की नीति अपनायी. राजा रैयतों से नजराने की भी जबरन वसूली करने लगा. इससे कुचिंग पीड़ के संतालों में आक्रोश फैला. उन्होंने 1902 में देवी और किशुन के नेतृत्व में विद्रोह कर दिया और लगान देने से इनकार कर दिया. क्षेत्र में खूब अशांति फैल गयी. किशुन को गिरफ्तार करने पुलिस भेजी गयी, पर उन्होंने पुलिस अफसर को मार डाला. हुकूमत को विद्रोह के प्रमुख नेताओं को गिरफ्तार करने के लिए विशेष सैन्य बल भेजना पड़ा.

1917-18 का सेना में भर्ती पर विद्रोह :

1917-18 के इस विद्रोह के तात्कालिक कारण तो थे ही, इसके मूल में ब्रिटिश हुकूमत को समाप्त करने की राष्ट्रीय चेतना भी निहित थी. इस विद्रोह का केंद्र मयूरभंज था. यह प्रथम विश्वयुद्ध का समय था. फ्रांस भेजने के लिए सेना में श्रम सैनिक के रूप में आदिवासियों की भर्ती करने की कोशिश की गयी. संतालों ने इसका विरोध किया.

भर्ती अधिकारी पर हमला कर दिया. दुकानें लूटी गयीं. बांगरीपोसी के निकट रेलवे लाइन क्षतिग्रस्त की गयी. विद्रोह इतना उग्र था कि क्षेत्र में सेना भेजी गयी. विद्रोह के नेता गिरफ्तार किये गये. मैथ्यू अरिपरम्पिल लिखते हैं कि 1118 व्यक्तियों के खिलाफ न्यायिक जांच की गयी, जिनमें से 977 को दोषी करार दिया गया. चार लोगों को फांसी की और 33 को आजीवन काले पानी की सजा दी गयी.

लेखक : डॉ आरके नीरद

niradrkdumka@gmail.com

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