Hul Diwas: संताल परगना में आदिवासियों के हूल को इतिहासकारों ने विद्रोह का नाम दिया, लेकिन यह असल में अपने जमीन, संस्कृति और परंपराओं को बचाने की लड़ाई थी. आदिवासियों ने कभी अंग्रेजों की दासता स्वीकार ही नहीं की. उन्होंने हमेशा अंग्रेजों, जमींदारों और महाजनों से युद्ध किया. इसलिए हूल को क्रांति या विद्रोह कहना उचित नहीं है. असल में हूल एक युद्ध था.
सिदो-कान्हू, चांद-भैरव की एक आवाज पर जुट गए थे 10 हजार लोग
ये बातें प्रभात खबर कार्यालय में झारखंड के जाने-माने आदिवासी चिंतक, नेता और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने शनिवार (29 जून) को हूल दिवस की पूर्व संध्या पर आयोजित विमर्श में कहीं. इन्होंने कहा कि हमारे पूर्वजों ने हमेशा अंग्रेजों, महाजनों और जमींदारों के खिलाफ युद्ध ही किया. 1855 में जब हूल युद्ध का शंखनाद हुआ, तो सिदो-कान्हू, चांद-भैरव के आह्वान पर साहिबगंज में एक साथ 10 हजार लोग जुट गए.
कोलकाता के लाटसाहब से मिलने जा रहे थे आदिवासी
कहा कि ये लोग कोलकाता के लाट साहब से मिलने के लिए आगे बढ़ रहे थे. इस काफिले में लगातार लोगों का हुजूम जुड़ता गया. देखते ही देखते 10 हजार की भीड़ 60 हजार के जनसैलाब में तब्दील हो गया. ये लोग कोलकाता में लाट साहब को यह बताने जा रहे थे कि स्थानीय महाजनों और जमींदारों की टैक्स वसूली से आदिवासी त्रस्त हैं.
जबरन रोकने की कोशिश हुई, तो हिंसक हो गई भीड़
इसी दौरान उन्हें जबरन रोकने की कोशिश हुई और भीड़ भी हिंसक हो गई. हिंसक भीड़ ने गुस्से में सरकारी संपत्तियों को भी नुकसान पहुंचाया. आखिरकार अंग्रेजों को पहली बार मार्शल लॉ लागू करना पड़ा. भारत के इतिहास में यह पहला मौका था, जब मार्शल लॉ लगाया गया.
टैक्स वसूली से परेशान थे आदिवासी : ईवा मार्ग्रेट हांसदा
हूल दिवस की पूर्व संध्या पर आयोजित परिचर्चा में गोस्सनर कॉलेज की प्रोफेसर ईवा मार्ग्रेट हांसदा कहा कि आदिवासी स्थानीय महाजनों और जमींदारों की टैक्स वसूली से परेशान थे. वे इसकी शिकायत करने कोलकाता के लाट साहब के पास जा रहे थे, जब उन्हें रोका गया तो अंग्रेजों का गुस्सा फूटा और आंदोलन हिंसक हो गया. इतिहास में पहली बार नागरिक आंदोलन को दबाने के लिए मार्शल लॉ लागू किया गया.
हूल में महिलाओं के योगदान को जगह नहीं मिली : वंदना टेटे
सोशल एक्टिविस्ट और कवयित्री वंदना टेटे ने कहा कि हूल में महिलाओं के योगदान को कभी वो जगह नहीं मिली, जो मिलनी चाहिए. इसकी वजह यह है कि जिन्होंने इतिहास लिखा, उन्होंने अपनी सामाजिक स्थिति और सोच के अनुसार आदिवासी महिलाओं को परिभाषित किया, जबकि आदिवासी समाज में स्त्री-पुरुष का भेद नहीं है और वह आज भी दिखाई नहीं देता है. आज जरूरत इस बात की है कि इतिहास का पुनर्लेखन हो. महिलाओं ने हूल में रसद पहुंचाने, संदेश पहुंचाने जैसे महत्वपूर्ण कार्य किए थे, जिनका जिक्र आदिवासियों की डायरी में मिलता है.
पुरखों की जमीन पर किराया वसूली के खिलाफ था युद्ध : गीताश्री
झारखंड की पूर्व शिक्षा मंत्री गीताश्री उरांव ने कहा कि हूल इसलिए हुआ, क्योंकि हमारे पुरखों की जमीन पर हमसे किराया मांगा जा रहा था. जल-जंगल और जमीन आदिवासियों का हक है, इससे उन्हें हटाया नहीं जा सकता. उन्होंने कहा कि अंग्रेज आदिवासियों की भाषा नहीं समझते थे, इसलिए वे यह नहीं समझ पा रहे थे कि आखिर आदिवासी उनका विरोध क्यों कर रहे हैं, जबकि हम उनके लिए व्यवस्था बनाने की कोशिश कर रहे हैं.
उन्होंने कहा कि जो आदिवासियों की भाषा समझते थे, उन्होंने अंग्रेजों को जैसा फीड किया, अंग्रेजों ने उसी अनुसार आदिवासियों का आकलन किया. आदिवासी समाज की महिलाओं की भूमिका को भी कम करके बताया गया, जिसे आज बताने की जरूरत है.
हूल के वास्तविक अर्थ को समझने की जरूरत : रतन तिर्की
सामाजिक कार्यकर्ता रतन तिर्की ने कहा कि हूल का जो वास्तविक अर्थ है, उसे समझने की जरूरत है. जिस वजह से हूल हुआ था, वे कारण आज भी मौजूद हैं. इसलिए हूल की जरूरत सामाजिक, शैक्षणिक और राजनीतिक हर क्षेत्र में है. जल-जंगल-जमीन पर आदिवासियों का हक है, हमें उसपर 5 डिसमिल का पट्टा नहीं, अपना खतियान चाहिए. हूल हुआ था जमीन और जंगल बचाने के लिए लेकिन हम उसे बचा नहीं पा रहे हैं, इसलिए हूल की जरूरत है क्योंकि परिवर्तन होना बहुत जरूरी है.
हूल का अर्थ क्रांति या आंदोलन नहीं, आह्वान : शिव शंकर उरांव
पूर्व विधायक शिव शंकर उरांव ने कहा कि हूल का अर्थ है आह्वान. आदिवासियों ने अपने अधिकारों की रक्षा के लिए हूल किया. 200 साल के अंग्रेजों के शासन में आदिवासियों ने कभी भी उनकी दासता को स्वीकार नहीं किया. हमने युद्ध किया. संताल परगना में जो एसपीटी एक्ट लागू हुआ, वह एक युद्ध संधि था, अंग्रेजों ने हमारे हित की सोचकर नहीं बल्कि हमारे युद्ध से डरकर यह एक्ट बनाया था. आदिवासी समाज एकजुट रहता है और अपने हक की लड़ाई लड़ता है जो हम आज भी लड़ रहे हैं.
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