रांची : झारखंड आंदोलन में यूं तो कई लोगों का योगदान रहा. लेकिन आम जनमानस को इनमें से एक ही दो लोगों का नाम याद रहता है. अमूमन लोगों के जेहन में शिबू सोरेन, बिनोद बिहारी महतो और जयपाल सिंह मुंडा जैसे कुछ चुनिंदा नेता ही आते हैं. लेकिन इनके अलावा और भी कई लोग थे जिनके किस्से इतिहास के पन्नों नें कहीं दब गये. आज हम ऐसे कुछ अनसुने नेताओं के बारे में आपको बताएंगे जिनका इस राज्य गठन के निर्माण में बड़ी भूमिका रही.
क्यों पड़ी अलग राज्य की जरूरत
आदिवासी बहुल इस क्षेत्र के लोगों को अपने लिए अलग राज्य मांगने की क्या आवश्यकता पड़ी, यह आज के दौर में भी बड़ा प्रश्न है. अलग राज्य की मांग कई कारणों से हुई. कुछ राजनीतिक विशलेषक इसे सभ्यता संस्कृति के लिए जरूरी बताते हैं, तो कुछ इसे यहां पर उपलब्ध संसाधनों का लाभ स्थानीय लोगों को न मिलना बताते हैं. दोनों ही बातें सही है. जंगलों से घिरे इस भूभाग में यहां के खनिज संपदा का लाभ स्थानीय लोगों को उस लिहाज से नहीं मिला जिनके वे हकदार थे. साथ ही सरकार की बहुत सारी ऐसी योजनाएं जो खासकर यहां के आदिवासियों के उत्थान के लिए जरूरी था वह एकीकृत बिहार में सही तरीके से नहीं मिल पा रहा था. इसलिए आदिवासियों और मूलवासियों के जीवन स्तर को ऊपर उठाने के लिए जरूरा था.
जब झारखंड आंदोलन की लौ बुझी तो एनई होरो ने संभाला कमान
31 मार्च 1925 को जन्मे एनई होरो ने जयपाल सिंह मुंडा के बाद झारखंड आंदोलन को धार दी. 1963 में झारखंड पार्टी के कांग्रेस में विलय के बाद जब झारखंड आंदेलन की लौ बुझती दिखी तो उन्होंने इसका कमान अपने हाथ में ले लिया. एन ई होरो के बारे में कहा जाता है कि वे अदम्य साहस वाले नेता थे. मुद्दा से असहमत हो तो वह किसी से भिड़ जाते थे. जब जयपाल सिंह मुंडा झारखंड पार्टी का विलय कर रहे थे तो उन्होंने इसकी फिर से पुनर्स्थापना की और कई आदिवासियों को इससे जोड़ा. वह खूंटी लोकसभा से दो बार सांसद रहे. 1967 में वे कोलेबिरा विधानसभा से चुनाव जीतकर विधायक बने. 1968 में तत्कालीन बिहार सरकार में योजना एवं जनसंपर्क मंत्री एवं 1969 में शिक्षा मंत्री बने.
कोयला मजदूरों की आवाज थे एके राय
एके राय का जन्म पूर्वी बंगाल (अब बांग्लादेश) के राजशाही जिला अंतर्गत सपुरा गांव में 15 जून 1935 में हुआ था. वह केमिकल इंजीनियर बनकर धनबाद आए थे. बाद में कोयला मजदूरों की पीड़ा और शोषण से व्यथित होकर वह आंदोलनकारी बन गये. उन्होंने बिनोद बिहारी महतो और शिबू सोरेन के साथ झारखंड आंदोलन के लिए काम किया. वह झामुमो के संस्थापक सदस्यों में से एक थे. बाद में वे झामुमो से अलग हो हो गये और मार्क्सवादी समन्वय समिति (मासस) के नाम से अपना अलग संगठन खड़ा किया. वह एके राय कोयला माफियाओं के खिलाफ हमेशा मुखर रहे. वह तीन बार धनबाद के सांसद और तीन बार सिंदरी विधानसभा सीट से विधायक चुने गये.
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1980 में झामुमो से जुड़े थे निर्मल महतो
निर्मल महतो भी झारखंड आंदोलन के प्रमुख नेता थे. हालांकि उनकी मौत महज 37 साल के उम्र में हो गयी थी. 25 दिसंबर, 1950 को जन्मे झारखंड के सबसे बड़े गैर आदिवासी आंदोलनकारी के रूप में जाने जाते हैं. 1980 में झामुमो से जुड़े और महज 3 साल के अंदर पार्टी के अध्यक्ष बन गये. उन्होंने झारखंड आंदोलन को मुकाम तक पहुंचाने के लिए ऑल झारखंड स्टूडेंट यूनियन यानी कि आजसू का गठन किया था. इसे झामुमो के स्टूडेंट्स यूनियन के रूप में ही तैयार किया गया था. इसके पीछे रणनीति ये थी कि जब राजनीतिक लड़ाई से इतर अगर झारखंड आंदोलन को धार देने के लिए कोई कड़ा कदम उठाना पड़ा तो आजसू यह काम करेगा.
जयपाल सिंह के बाद बागुन सुंब्रुई ने संभाली आंदोलन की कमान
कभी कोल्हान की राजनीति में अपनी बादशाहत कायम कर रखने वाले बागुन सुंब्रुई का जन्म 1924 में पश्चिम सिंहभूम जिले के मुफस्सिल थाना क्षेत्र के एक छोटे से गांव भूता में हुआ था. प्रारंभिक जीवन भूख, अभाव व गरीबी के बीच गुजरा. प्राथमिक शिक्षा गांव के स्कूल से प्राप्त की और जिला स्कूल में पढ़ाई की. लेकिन गरीबी के कारण बीच में ही स्कूल छोड़ दर्जी का काम शुरू कर दिया. इसी बीच 1946 में 22 वर्ष की उम्र में गांव के मुंडा बन गये. यहीं से शुरू हुई उनकी राजनीतिक जीवन की यात्रा. जयपाल सिंह के बाद उन्होंने झारखंड पार्टी की कमान संभाली और अलग राज्य की लड़ाई को मुकाम तक पहुंचाया. वे पांच बार सिंहभूम लोकसभा से सांसद और चार बार विधायक रहे.
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लाल रणविजय नाथ शाहदेव ने चार दशक तक की थी वकालत
अलग झारखंड राज्य के लिए आंदोलन करने वालों में लाल रणविजय नाथ शाहदेव का भी नाम शामिल है. उन्होंने कभी सिद्धांतों से समझौता नहीं किया. गुमला के पालकोट में नागवंशी परिवार में जन्मे लाल रणविजय नाथ शाहदेव बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे. उन्होंने चार दशक तक वकालत की. इसके अलावा उन्हें कविता, कहानियां लिखने का शौक था था. साथ ही साथ झारखंड आंदोलन के लिए नारे (स्लोगन) भी लिखते थे. वे झारखंड पार्टी के कार्यकारी अध्यक्ष भी रह चुके हैं. 60 के दशक में ही वे झारखंड आंदोलन से जुड़ गये थे.
डॉ बीपी केशरी का भी था बड़ा योगदान
झारखंड के जाने माने आंदोलनकारी, लेखक, चितंक और विद्वान डॉ बीपी केशरी का झारखंड आंदोलन में योगदान किसी से भी कम नहीं है. वे डॉ राम दयाल मुंडा के साथ झारखंड आंदोलन में साथ रहे थे. बीपी केसरी पेशे से शिक्षक थे. वे रांची जनजातीय, क्षेत्रीय विभाग, रांची विश्व विद्यालय में प्रोफेसर थे. उन्होंने झारखंड आंदोलन को नई दिशा दी थी.
अलग झारखंड राज्य के लिए लेख लिखते थे डॉ रामदयाल मुंडा
पद्मश्री डॉ रामदयाल मुंडा एक ऐसी शख्सियत थे, जिन्होंने झारखंड की ट्राइबल कल्चर, लिटरेचर और ट्रेडिशन को विश्व में पहचान दिलाई. उनका जन्म 23 अगस्त 1939 को हुआ था. वो बचपन से ही बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे. वे अलग झारखंड राज्य के लिए लगातार लेख लिखते रहे. जब राज्य बना तो उन्होंने यहां के मुद्दों को भी उठाने में कोई कसर नहीं छोड़ी
शिबू सोरेन ने अलग राज्य के ही की थी झामुमो की स्थापना
शिबू सोरेन को जन्म 11 जनवरी 1944 में संयुक्त बिहार के रामगढ़ जिले के नेमरा गांव में हुआ था. उन्होंने बिनोद बिहारी महतो और एके रॉय के साथ मिलकर 4 फरवरी 1970 को झारखंड मुक्ति मोर्चा का गठन किया. पार्टी के गठन की सबसे बड़ी वजह अलग झारखंड राज्य की मांग थी. वे केंद्र सरकार में कोयला मंत्री के साथ साथ झारखंड के 3 बार मुख्यमंत्री भी रह चुके हैं.
कोयला माफियाओं के खिलाफ खूब आंदोलन किया बिनोद बिहारी महतो ने
बिनोद बिहारी महतो का जन्म 23 सितंबर 1923 को धनबाद के बालीपुर प्रखंड के बडवाहा गांव में हुआ था. उनके पिता का नाम महेंद्र महतो और माता मंदाकिनी देवी था. उनका जन्म कुड़मी महतो परिवार में हुआ था. उन्होंने अपनी प्राथमिक शिक्षा बालीपुर से पूरी की. इसके बाद आगे की पढ़ाई मिडिल और हाई स्कूल झरिया डीएवी और धनबाद इंग्लिश हाई स्कूल से पूरा की. बिनोद बिहारी महतो ने कोयला माफिया और रंगदारों के खिलाफ खूब आंदोलन किया. बाद में उन्होंने झारखंड आंदोलन को धार देने के लिए शिबू सोरेन और एके रॉय के साथ मिलकर झामुमो का गठन किया.
जयपाल सिंह मुंडा ने किया था आदिवासी महासभा का गठन
जयपाल सिंह मुंडा का नाम अगर झारखंड के सबसे बड़े आंदोलनकारी के रूप में लें तो गलत नहीं होगा. मरांग गोमके के नाम से मशहूर जयपाल सिंह मुंडा ने 1938-39 में अखिल भारतीय आदिवासी महासभा का गठन किया. इसका उद्देश्य आदिवासियों के खिलाफ हो रहे शोषण के विरुद्ध आवाज उठाना था. उन्होंने साल 1952 में अलग झारखंड राज्य की मांग को लेकर झारखंड पार्टी का गठन किया. उन्होंने अपनी कप्तानी में साल 1928 के ओलंपिक में भारत को पहला स्वर्ण पदक दिलाया था.