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Jharkhand Foundation Day: पर्यटन स्थलों की ये सात कहानियां डेस्टिनेशन तक पहुंचने के लिए करती हैं मजबूर

झारखंड अपना 22वां स्थापना दिवस मनाने जा रहा है. यह राज्य कई मायने में सबसे अलग है. यहां की प्राकृतिक संपदा लोगों को बरबस अपनी ओर खिंचती है. राज्य की प्रकृति की गोद में कई ऐसे पर्यटन स्थल हैं, जो अपनी कहानियों की वजह से चर्चित हैं. इस रिपोर्ट में ऐसी सात कहानियां बता रहें हैं...

झारखंड जितना खनिज संपदा से परिपूर्ण है, उतना ही पर्यटन स्थलों के लिए भी लोगों को अपनी ओर आकर्षित करता है. राज्य में ऐसे-ऐसे पर्यटन स्थल हैं, जो अपने आप में रिकॉर्ड कायम किए हुए हैं. यहां के हर पर्यटन स्थल की अपनी कहानी है. पर्यटन स्थलों से जुड़ी ये कहानियां बरबस अपनी ओर आकर्षित करती हैं. उन जगहों पर आप जाने से खुद को रोक नहीं पायेंगे. ऐसे में इस विशेष रिपोर्ट में आपको राज्य के कुछ ऐसे ही पर्यटन स्थल और उनसे जुड़े मिथक/कहानियों से रूबरू करा रहे हैं. यह मिथक/कहानियां पर्यटन स्थलों के निर्माण से जुड़ी हुई हैं.

गुमला का टांगीनाथ धाम : जहां 15 किमी के दायरे में नहीं रहता कोई लोहार परिवार

गुमला शहर से करीब 75 किलोमीटर की दूरी पर बसा है टांगीनाथ धाम. इस स्थान का संबंध रामायण काल से है. मान्यता है कि इस स्थान का भगवान परशुराम से गहरा नाता है. यहां अभी भी परशुराम का फरसा (टांगी)जमीन में गड़ा हुआ है. स्‍थानीय लोगों के मुताबिक इस धाम में आज भी भगवान परशुराम के पद चिह्न मौजूद हैं.

स्थापना की कहानी

इस स्थान को लेकर प्रचलित कथा के मुताबिक भगवान राम के द्वारा सीता के लिये आयोजित स्वयंवर में भगवान शिव का धनुष तोड़ देने पर परशुराम बहुत क्रोधित होते हुए वहां पहुंचते हैं. राम को शिव का धनुष तोड़ने के लिए भला-बुरा कहते हैं. सब कुछ सुनकर भी राम मौन रहते हैं. यह देख कर लक्ष्मण को क्रोध आ जाता है. वे परशुराम से बहस करने लग जाते हैं. इसी बहस के दौरान जब परशुराम को यह पता चलता है कि राम भी भगवान विष्णु के ही अवतार हैं. वे बहुत लज्जित होते हैं. वहां से निकलकर पश्चाताप करने के लिये घने जंगलों के बीच आ जाते हैं. यहां वे भगवान शिव की स्थापना कर और बगल में अपना फरसा गाड़ कर तपस्या करते हैं. यहीं जगह आज काटांगीनाथ धाम है.

क्या है मिथक

ऐसा माना जाता है कि यहां जो फरसा गड़ा हुआ है, वह लोहे के ऐसे किस्म का है कि इसमें जंग नहीं लगा है. कहा जाता है कि एक बार क्षेत्र में रहने वाले लोहार जातिके कुछ लोगों ने लोहा निकालने के लिए फरसे को काटने प्रयास किया था. वे फरसे को तो नहीं काट पाये, लेकिन उनकी जाति के लोगों को इसकी कीमत चुकानी पड़ी. वे अपने आप मरने लगे. इस डर से लोहार जाति ने क्षेत्र छोड़ दिया. आज भी टांगीनाथ धाम से 15 किलोमीटर के दायरे में लोहार जाति के लोग नहीं बसते हैं.

बुंडू का देवड़ी मंदिर : सम्राट अशोक आते थे मां का दर्शन करने

झारखंड की राजधानी रांची से टाटा जाने वाली सड़क पर तमाड़ से तीन किलोमीटर दूर स्थित है प्राचीन देवड़ी मंदिर. रांची से इसकी दूरी करीब 60 किलोमीटर है. इसकी पहचान देश-विदेश में है. इस मंदिर में एक 16 भुजी मूर्ति है, जो सोलहभुजी देवी के नाम से प्रख्यात है. लोग इसी देवी की पू करते हैं.

स्थापना की कहानी

प्रचलित प्राचीन कथा के अनुसार केरा (सिंहभूम) के एक मुंडा राजा ने अपने दुश्मन से पराजित होने के बाद वापस लौटते समय देवड़ी में जाकर शरण ली थी. यहां मां दशभुजी का आह्वान कर उसकी मूर्ति स्थापना की थी. आह्वान के बाद उक्त मुंडा राजा ने अपने दुश्मन को पराजित कर अपना राज्य वापस ले लिया था. इस मंदिर को बनाने में पत्थरों को काट कर बिना जोड़े हुए एक दूसरे के ऊपर रखा गया है.

क्या है मिथक

इस मंदिर से जुड़ी हुई कई तरह की कहानियां हैं. ये कहानियां रोमांचित करती हैं. ऐसी भी मान्यता है कि‍ सम्राट अशोक इस देवी के दर्शन के लिए आते थे. काला पहाड़ ने इस मंदिर को ध्वस्त करने की चेष्टा की थी. किन्तु उसे सफलता नहीं मिली थी. ऐसा भी कहा जाता है कि साल 1831-32 के कोल आंदोलन के समय उद्दंड अंग्रेज अधिकारियों ने इस मंदिर पर गोलियां चलाई थीं, जिसके निशान आज भी हैं. एक कहानी यह भी है कि इस मंदिर के अंदर की पुरानी बनावट की तस्वीर लेने की हर कोशिश असफल होती है. कई लोगों ने इसकी तस्‍वीर लेने की कोशिश की. सभी धुंधली आयी.

गढ़वा का बाबा बंशीधर का मंदिर : 32 मन सोने से बनी प्रतिमा ने नहीं स्वीकारा राजदरबार जाना

गढ़वा जिले के नगरऊंटारी में बाबा बंशीधर का मंदिर है. इसमें सैकड़ों वर्ष पुरानी राधाकृष्ण की मूर्ति है. बंशीधर श्रीकृष्ण की मूर्ति साढ़े चार फीट ऊंची और बत्तीस मन सोने से बनी एक मोहक प्रतिमा है. अभी इसकी कीमत लगभग 2,500 करोड़ रुपये बतायी जाती है. यह प्रतिमा जमीन में गड़े शेषनाग के फन पर निर्मित चौबीस पंखुड़ियों वाले कमल पर विराजमान है.

स्थापना की कहानी

इस मंदिर की स्थापना के पीछे की कहानी है कि 1885 में नगरऊंटारी के महाराज भवानी सिंह की विधवा रानी शिवमानी कुंवर ने इस प्रतिमा को जन्माष्टमी की रात सपने में देखा था. भगवान ने कहा कि कनहर नदी के किनारे शिवपहरी पहाड़ी में उनकी प्रतिमा जमीन के नीचे दबी पड़ी है. तुम आकर मुझे यहां से अपनी राजधानी में ले जाओ. अगले दिन सुबह रानी सैनिकों के साथ प्रतिमा की तलाश में गयी. रानी उस पहाड़ी पर गईं. पूजा-अर्चना के बाद उनके बताए गए स्थान पर खुदाई शुरू की. खुदाई के दौरान रानी को बंशीधर की अद्वितीय प्रतिमा मिली. रानी इस प्रतिमा को अपने गढ़ में स्थापित कराना चाहती थी. हालांकि जिस हाथी पर रखकर प्रतिमा नगर उंटारी लायी जा रही थी, वह नगर उंटारीगढ़ के मुख्य द्वार पर बैठ गया. लाख कोशिश के बाद भी हाथी वहां से नहीं उठा. तब रानी ने राजपुरोहितों से सलाह कर वहीं पर मंदिर का बनवा दिया.

क्या है मिथक

इस प्रतिमा से जुड़ी कहानी है कि साल 1930 में इस मंदिर में एक चोरी हुई थी. जिसमें भगवान बंशीधर की बांसुरी और छतरी चोर चुरा के ले गए थे. कहा जाता है कि चोरी करने वाले अंधे हो गए थे. उन्होंने अपना अपराध स्वीकार कर लिया था, परन्तु चोरी की हुई वस्तुएं बरामद नहीं हो पायी. बाद में राज परिवार ने दुबारा स्वर्ण बांसुरी और छतरी बनवा कर मंदिर में लगवाया.

दुमका का मलूटी मंदिर : 15 फीट से 60 फीट तक ऊंचे हैं मंदिर

संताल परगना प्रमंडल के दुमका जिले में शिकारीपाड़ा के पास है मलूटी. इसे मंदिरों को गांव कहा जाता है. यहां हर तरफ प्राचीन मंदिर नजर आता है. गांव में शुरूआत में कुल 108 मंदिर थे. वर्तमान में 72 मंदिर ही रह गए हैं. इसका निर्माण सुप्रसिद्व चाला रीति से की गयी है. मंदिरों की ऊंचाई 15 फीट से 60 फीट तक है.

स्थापना की कहानी

मलूटी में मंदिरों का निर्माण 1720 से लेकर 1840 के मध्य हुआ है. ये मंदिर बाज बसंत राजवंशों के काल में बनाए गए हैं. इस गांव का राजा कभी एक किसान हुआ करता था. उसके वंशजों ने यहां 108 भव्य मंदिरों का निर्माण कराया. यहां बने मंदिरों दीवारों पर रामायण-महाभारत के दृ़श्यों का चित्रण भी बेहद खूबसूरती से किया गया है. मलूटी पशुओं की बलि के लिए भी जाना जाता है. यहां काली पूजा के दिन एक भैंस और एक भेड़ सहित करीब 100 बकरियों की बलि दी जाती है.

क्या है मिथक

मलूटी गांव में इतने सारे मंदिर होने के पीछे एक रोचक कहानी है. यहां के राजाओं में अच्छे से अच्छा मंदिर बनाने की होड़ थी.. इसी वजह से यहां हर जगह खूबसूरत मंदिर ही मंदिर हैं. कहा जाता है कि यह गांव सबसे पहले ननकार राजवंश के समय में प्रकाश में आया था. उसके बाद गौर के सुल्तान अलाउद्दीन हसन शाह (1495-1525) ने इस गांव को बाज बसंत रॉय को इनाम में दे दिया था. राजा बाज बसंत शुरुआत में एक अनाथ किसान थे. उनके नाम के आगे बाज शब्‍द कैसे लगा इसके पीछे भी एक अनोखी कहानी है. एक बार की बात है. सुल्तान अलाउद्दीन की बेगम का पालतू पक्षी बाज उड़ गया. बाज को उड़ता देख गरीब किसान बसंत ने उसे पकड़कर रानी को वापस लौटा दिया. बसंत के इस काम से खुश होकर सुल्तान ने उन्‍हें मलूटी गांव इनाम में दे दिया. इसी के बाद से बसंत राजा बाज बसंत के नाम से पहचाने जाने लगे.

मैकलुस्‍कीगंज : 10 हजार एकड़ जमीन में बसा एंग्लो-इंडियन गांव

राजधानी रांची से लगभग 65 किलोमीटर की दूरी पर है मैकलुस्‍कीगंज. कोलोनाइजेशन सोसायटी ऑफ इंडिया ने इसे 1933 में बसाया था. यह खासतौर पर एंग्लो-इंडियन समुदाय के लिए बनाया गया था. इस समुदाय का यह पूरी दुनिया में इकलौता गांव है.

स्थापना की कहानी

इस गांव को अर्नेस्ट टिमोथी मैकलुस्की की पहल पर 1930 के दशक में रातू महाराज से लीज पर ली गयी 10 हजार एकड़ जमीन पर बसाया गया है. यह इलाका 365 बंगलों के साथ पहचाना जाता है. इसमें कभी एंग्लो-इंडियन लोग आबाद थे। पश्चिमी संस्कृति के रंग-ढंग और गोरे लोगों की उपस्थिति इसे लंदन का सा रूप देती तो इसे लोग मिनी लंदन कहते हैं.

क्या है मिथक

इसे बसाने वाले अर्नेस्ट टिमोथी मैकलुस्की के पिता आइरिश थे. रेल की नौकरी करते थे. नौकरी के दौरान बनारस के एक ब्राह्मण परिवार की लड़की से उन्हें प्यार हो गया. समाज के विरोध के बावजूद दोनों ने शादी की. ऐसे में मैकलुस्की बचपन से ही एंग्लो-इंडियन समुदाय की छटपटाहट देखते आए थे. अपने समुदाय के लिए कुछ कर गुजरने का सपना शुरू से उनके मन में था. वे बंगाल विधान परिषद के मेंबर बने. वर्ष 1930 के दशक में साइमन कमीशन की रिपोर्ट में एंग्लो-इंडियन समुदाय के प्रति अंग्रेज सरकार ने अपनी जिम्मेवारी से मुंह मोड़ लिया. ठीक इसी समय अर्नेस्ट टिमोथी मैकलुस्की ने तय किया कि वह एंग्लो-इंडियन समुदाय के लिए एक गांव इसी भारत में बनाएंगे. इसी जिद के बाद मैकलुस्कीगंज अस्तित्व में आया.

चाईबासा का महादेवशाल धाम : शिवलिंग तोड़ने वाले इंजीनियर की हो गई थी मौत

चाईबासा के गोइलकेरा में एक गांव हैं बड़ैला. यहां महादेवशाल धाम नाम से एक शिव जी का मंदिर है. इस मंदिर में खंडित शिवलिंग की पूजा होती है. शिवलिंग का आधा हिस्‍सा कटा हुआ है, फिर भी लोग दूर-दूर से इस मंदिर में पूजा करने आते हैं.

स्थापना की कहानी

इसके स्थापित होने की कहानी 19 वीं शताब्दी के मध्य की है. जब गोइलेकेरा के बड़ैला गांव के पास बंगाल-नागपुर रेलवे की ओर से कोलकाता से मुंबई के बीच रेलवे लाइन बिछाने का काम चल रहा था. इसके लिए जब मजदूर वहां खुदाई कर रहे थे, तब उन्हें एक शिवलिंग दिखाई दिया. मजदूरों ने शिवलिंग देखते ही खुदाई रोक दी. आगे काम करने से मना कर दिया. हालांकि वहां मौजूद ब्रिटिश इंजीनियर रॉबर्ट हेनरी ने इसे बकवास बताते हुए फावड़ा उठाया शिवलिंग पर प्रहार कर दिया, जिससे शिवलिंग दो टुकड़ो में बंट गया. इसी के बाद शिवलिंग की पूजा होने लगी.

क्या है मिथक

ब्रिटिश इंजीनियर रॉबर्ट हेनरी की ओर से शिवलिंग तोड़े जाने के बाद जब सभी शाम को काम से लौट रहे थे, उस वक्त इंजीनियर की रास्ते में ही मौत हो गई. इंजीनियर की मौत के बाद मजदूरों और ग्रामीणों में दहशत फैल गई. सभी को लगा कि उस शिवलिंग में कोई दिव्‍य शक्ति है. ऐसे में वहां रेलवे लाइन की खुदाई का जोरदार विरोध होने लगा. बाद में अंग्रेज अधिकारियों को लगा कि यह आस्था और विश्वास की बात है. जबरदस्ती करने के उल्टे परिणाम हो सकते हैं. तब उन्होंने रेलवे लाइन के लिए शिवलिंग से दूर खुदाई करने का फैसला किया। इसके कारण रेलवे लाइन की दिशा बदलनी पड़ी और दो सुरंगो का निर्माण करना पड़ा.

पिठोरिया के जगतपाल का किला : अभिशाप की वजह से अब भी होता है वज्रपात

राजधानी रांची से लगभग 18 किलोमीटर की दूरी पर रांची-पतरातू रास्ते में है राजा जगतपाल सिंह का किला. यह तकरीबन दो सौ साल पुराना है. कभी यह 100 कमरों वाला विशाल महल हुआ करता था. अब खंडहर में तब्दील हो चुका है.

स्थापना की कहानी

यह किला नागवंशी राजाओं का है. वैसे रांची का पिठोरिया मुंडा और नागवंशी राजाओं का प्रमुख केंद्र रहा है. यह इलाका वर्ष 1831-32 में हुए कोल विद्रोह के कारण इतिहास में अंकित है. राजा जगतपाल सिंह ने पिठोरिया का चहुमुखा विकास किया. उसे व्यापार और संस्कृति का प्रमुख केंद्र बनाया. वे वहां की जनता में काफी लोकप्रिय थे. हालांकि उनकी कुछ गलतियों ने उनका नाम इतिहास में खलनायक और गद्दारों की सूची में शामिल करवा दिया.

क्या है मिथक

स्‍थानीय लोगों के अनुसार इसके खंडहर में तब्दील होने का कारण किले पर हर साल बिजली गिरना है. इसके पीछे की कहानी है कि क्रांतिकारी ठाकुर विश्वनाथ नाथ शाहदेव ने गद्दारी करने की वजह से राजा जगतपाल सिंह को श्राप दिया था. इसी श्राप की वजह से अब भी किले में हर साल बिजली गिरती है. उन्होंने श्राप देते हुए कहा था कि आने वाले समय में उनका कोई नाम लेने वाला नहीं रहेगा. उसके किले पर हर साल उस समय तक वज्रपात होता रहेगा, जब तक यह किला पूरी तरह बर्बाद नहीं हो जाता. तब से हर साल पिठोरिया स्थित जगतपाल सिंह के किले पर वज्रपात हो रहा है. इस कारण यह किला खंडहर में तब्दील हो चुका है.

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