अभिषेक रॉय, रांची:
16 दिसंबर का दिन पूरे देशभर में ”विजय दिवस” के रूप में मनाया जाता है. भारत-पाकिस्तान के बीच 1971 में हुए युद्ध और इसमें मिली जीत भारतीय सेना के शौर्य को प्रमाणित करती है. युद्ध की मुश्किल घड़ी में भी देश के सैनिक डटे रहें. 52 वर्ष पूर्व हुए इस युद्ध में राज्य के कई सैनिक शामिल थे. 15 दिनों तक चले युद्ध में कई सैनिक घायल हुए, तो कई वीर गति को प्राप्त हुए. इनमें परमवीर लांस नायक अलबर्ट एक्का भी शामिल थे. राजधानी का अलबर्ट एक्का चौक उनकी शहादत को समर्पित है. वहीं, युद्ध के दौरान तत्कालीन बिहार से राज्य के कई सैनिक मुक्तिवाहिनी, 10 बिहार बटालियन, 14 बटालियन, 15 बटालियन, सेवेन गार्ड, रेड मेन 10 बटालियन में शामिल थे. भारत-पाक युद्ध में शामिल कई वीर योद्धाओं ने देश के लिए अपनी आहूती दी. पेश है रिपोर्ट…
रांची में रखा गया था 1000 युद्ध बंदियों को
भारत-पाक युद्ध के बाद 16 दिसंबर को सरेंडर किये पाक सैनिकों में से 1000 युद्ध बंदियों को रांची के विभिन्न आर्मी कैंप की जेलों में रखा गया था. वहीं, घायल 100 युद्ध बंदियों को नामकुम आर्मी अस्पताल में भर्ती किया गया था. उन लोगों ने भागने के लिए सुरंग बना ली थी. कुछ युद्ध बंदी सुरंग के रास्ते भागने का भी प्रयास कर रहे थे. पर भारतीय सेना के जवानों ने उन्हें मार गिराया.
बंकर में घुसकर पोदना ने चलायी थी गोली, पूर्वी स्टार का मिला मेडल
मूल रूप से चाइबासा के सिपाही पोदना बालमुचू (77 वर्षीय) इन दिनों रांची में हैं. उन्हें 1971 भारत-पाक युद्ध में शामिल होने का अवसर मिला था. इस युद्ध में पोदना घायल हुए थे. शौर्य युद्ध की कहानी साझा करते हुए पोदना ने बताया कि – एक दिसंबर 1971 को युद्ध की शुरुआत हो गयी थी. पाकिस्तानी सेना से मुकाबला करने के लिए हमारा ”रेड मेन 10 बिहार बटालियन” अखौरा पहुंच चुका था. देर रात पाकिस्तानी सेना ने हमला कर दिया. अंधेरी रात में कुछ दिखायी नहीं दे रहा था. हमें जिस जगह पहुंचना था, वहां का रास्ता हम भटक चुके थे. किसी तरह बटालियन के सैनिक कोड़ा पुलिया तक पहुंचे. पास में एक गांव था. सुबह छह बजे तक हमने वहां डेरा जमाये रखा.
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सुबह छह बजते ही बटालियन के कप्तान ने आगे बढ़ने का आदेश दिया. आगे बढ़ने पर ग्रामीण से सूचना मिली कि आगे पाकिस्तानी सेना का एक बंकर और तोप है. सात बजे तक सैनिक दल ने घेरा लगाकर उस बंकर में हमला किया. मेरे साथ साथ सैनिक सिचिन सिंकू थे. हम दोनों अन्य सैनिकों के साथ गोली चलाते हुए आगे बढ़े. पाकिस्तानी सेना ने भी जवाबी फायरिंग की. एक पत्थर के पीछे से हम फायरिंग कर रहे थे. फायरिंग करते हुए सिचिन ने अपना सर उठाया, उसी वक्त उसे गोली लग गयी और आंखों के सामने वह शहीद हो गये. मैंने, फिर भी गोली बारी जारी रखी. एक समय था जब पीछे पलट कर देखा, तो कई सैनिक शहीद हो चुके थे. यह देख सहम गया, पर डरे बीना बंकर में घुसकर हमला करने की ठानी. बंकर के सामने पहुंचते ही पाकिस्तानी सैनिक को गोले चलाते देखा.
हम चार सैनिक बंकर में घूस गये. गोली के बीच मैं तोप तक पहुंचा और उससे हमला कर रहे पाकिस्तानी सैनिक को शिकस्त दी. पर तोप में बम लोड किया जा चूका था, किसी तरह उसका मूंह मोड़ने में सफल रहे. पाकिस्तानी सेना पहाड़ के उपर से हमला करने लगी. इसी बीच एक गोली सीधे मेरे जांघ पर लगी. किसी तरह उठा और वापस फायरिंग की. खून बहने से कुछ समय बाद आंखें धूंधली होने लगी. मेरे एक साथी ने मुझे कंधे पर उठाया और पहाड़ के पीछे बने रिलिफ कैंप तक पहुंचाया. 11 दिनों बाद कर्नल साहब ने आकर हौसला बढ़ाया. युद्ध के प्रारंभिक दौर में ही घायल होने का अफसोस आज भी है.
सिमडेगा के कुर्डेइ ब्लॉक के परकन्ना ग्राम निवासी हवलदार स्व लेवनूस किंडो 1971 में हुए भारत-पाक युद्ध के चार माह बाद घर लौटे थे. दो वर्ष पूर्व 77 वर्ष की आयु में उनकी मृत्यु हो गयी. पत्नी नॉरमा कुजूर ने हवलदार लेवनूस की डायरी से उनकी वीर गाथा साझा किया. बताया कि हवलदार लेवनूस युद्ध के दौरान 10 बिहार बटालियन का हिस्सा रहे थे. युद्ध के दौरान चटगांव से होते ढाका तक पहुंचे थे. इस बीच लगातार युद्ध में कई पाकिस्तानी टुकड़ियों को शिकस्त दिया. डायरी में चटगांव के युद्ध का विवरण था, जिसमें उन्होंने लिखा है कि – अखौरा बॉडर पर मेरे साथ हवलदार बर्नाबस किड़ो और बेल्हेम मिंज को गोली लग गयी थी, मैंने उसे कंधे पर उठाया और आगे बढ़ता रहा. उसका खून मेरी वर्दी पर फैल गया. अखौरा से कुंभिला पहुंचकर उनका अंतिम संस्कार किया. इसके बाद दोबारा बटालियन के साथ युद्ध में शामिल हो गया. कई पाकिस्तानी सिपाही मेरी गोली का शिकार हुए. 10 दिनों तक लगातार युद्ध के बाद पाकिस्तान ने सरेंडर कर दिया. जीत का जश्न मना जबकि, इस बीच युद्ध बंदियों को साथ लेकर लौट रहा हूं. इनकी निगरानी की जिम्मेदारी मिली है. हवलदार लेवनूस अपनी जिम्मेदारियों को पूरा कर चाह माह बाद सही सलामत घर वापस लौटे थे.
श्यामली कॉलोनी के लेफ्टिनेंस कर्नल सौरभ चौधरी अपने पिता से प्रभावित होकर आर्मी में शामिल हुए. उन्होंने बताया कि 1971 में पिता स्व कैप्टन उत्पल कुमार चौधरी मुक्तिवाहिनी में इंस्ट्रक्टर के पद पर स्थापित थे. मार्च-अप्रैल से ही युद्ध की तैयारी शुरू हो चुकी थी. उस दौरान सेना कर्मी अपनी पहचान बदलकर लोगों को प्रशिक्षित कर रहे थे. कैप्टन उत्पल को उस समय कैप्टन गयासुद्दीन नाम मिला था. सैन्य गतिविधियां अक्तूबर से बढ़ गयी थी. इस बीच पिता की पहचान इस्ट पाकिस्तानियों सैनिकों का मिल गयी. उन्हें एक पुलिया में घेर लिया था. किसी तरह उन्होंने चलती जीप से नदी में छलांग लगा दी थी. इस दौरान उन्हें रीढ़ की हड्डी में गोली लगी थी. ग्रामीणों की मदद से जान बची. इससे पूर्व पिता 1965 में हुए भारत-पाक युद्ध के दौरान नौशेरा में पोस्टेड थे.
सिपाही आनंद खेस, हवलदार लेविनूस किंडो, नायक सैमुअल डांग, सुबेदार कल्याण कुल्लू, नायब सूबेदार राफेल कुंडूलना, हवलदार धर्मदास मिंज, हवलदार हाबिल डांग, सिपाही शुखराचंद, नायक हिलार्यूस मिंज, सिपाही जयमसीह जाेजो, नायक मानसिद्ध कंडुलना, नायक मार्टिन कुल्लू, हवलदार बर्नाबस किड़ो, हवलदार वेनेसियस किड़ो, नायक प्रभुदयाल कंड़लना और हवलदार जोसेफ रूपेश डुंगडुंग.