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Lok Sabha Election 2024: असम की काजीरंगा सीट पर लहरा रहा झारखंड का आदिवासी परचम, दोनों प्रमुख उम्मीदवार हैं ट्राइबल

असम की काजीरंगा लोकसभा सीट पर भी झारखंड का आदिवासी परचम ही लहरा रहा है. यहां कांटे की टक्कर में आमने-सामने भिड़े भाजपा और कांग्रेस दोनों के उम्मीदवार भी झारखंड से गए आदिवासी मूल के ही हैं.

रांची, प्रवीण मुंडा : झारखंड से बाहर भी सत्ता की बाजी पलटने के फैसले अगर अखरा में होने के नजारे देखने हो तो असम चलिए. यहां की सभी 14 लोकसभा क्षेत्रों में अखरा या आदिवासी समूहों की बैठक से समर्थन नहीं मिलने वाले उम्मीदवारों की सांस अटकी रहती है. यह सियासी ताकत है असम में झारखंड मूल के आदिवासियों की. पांच लोकसभा सीटों डिब्रूगगढ़, तेजपुर, जोरहाट, कलियाबोर और काजीरंगा में तो हार-जीत की बाजी ही इनके हाथ होती है. काजीरंगा सीट पर तो दोनों प्रमुख प्रत्याशी झारखंड मूल के आदिवासी ही हैं. यहां से भाजपा ने कामाख्या प्रसाद और कांग्रेस ने रोजलीन तिर्की को उतारा है. मंगलदोई लोकसभा सीट पर भी कांग्रेस प्रत्याशी प्रेमलाल गंझू झारखंडी ही हैं. हालांकि असम में इन्हें सामूहिक रूप से टी ट्राइब्स कहा जाता है. इनमें पश्चिम बंगाल, ओड़िशा और छत्तीसगढ़ की झारखंड से लगी सीमा से गए आदिवासी भी शामिल हैं. यह लगभग वही इलाका है, जिसे वृहत्तर झारखंड की कल्पना का भू-भाग कहा जाता है. इसलिए टी ट्राइब्स खुद को वृहत्तर झारखंडी सामुदायिक संरचना का ही घटक मानते हैं.

असम की पॉलिटिक्स में कितने पावरफुल हैं झारखंडी?

गुवाहाटी के वरिष्ठ पत्रकार और सेंटिनल हिंदी के संपादक रहे दिनकर कुमार कहते हैं कि केवल आबादी और मतदाता की संख्या की लिहाज से देखा जाय तो टी ट्राइब्स जरूर पावरफुल हैं. अगर परिणाम और प्रतिनिधित्व की दृष्टि से देखा जाय तो कमजोर हैं. सच तो यह है कि इन्हें अपने संख्याबल का सियासी लाभ नहीं मिल रहा है. इसके कारण असम की सामाजिक-सांस्कृतिक संरचना में छिपे हैं.

‘झारखंड मूल के आदिवासी जिन्हें टी ट्राइव्स भी कहा जाता है, उन्हें असम में अपने संख्य़ाबल का सियासी लाभ नहीं मिल रहा है.’

Dinkar Kumar
दिनकर कुमार, वरिष्ठ पत्रकार, गुवाहाटी

कहलाते हैं आदिवासी, दर्जा ओबीसी का है

असम विधानसभा के स्पीकर रहे पृथ्वी मांझी कहते हैं कि सौ साल पहले छोटानागपुर के पठार और संथाल परगना आदि क्षेत्रों से लोगों को चाय बागानों में काम करने के लिए ले जाया गया था. ये करीब तीन-चार पीढ़ियों से असम के विभिन्न क्षेत्रों में रह रहे हैं. वहां जो लोग गये उनका नाता झारखंड से बस स्मृतियों और लोकगीतों में रहा. इनकी विडंबना यह है कि असम में इतने अरसे रहकर भी इनको वह हक और अधिकार नहीं मिला जो मिलना चाहिए था. सामाजिक और आर्थिक रूप से तो ये पिछड़े हैं ही पर बड़ी तादाद में होने के बाद भी इन्हें राजनीतिक रूप से वह स्थान नहीं मिला जो मिलना चाहिए था. असम में इन्हें टी ट्राइब्स कहा तो जाता है, लेकिन दर्जा ओबीसी का है. चाय बागानों में काम करने गए लोगों के वंशज भी चाय बागानों में मजदूरी या छोटे-मोटे काम ही कर रहे हैं. कुछ लोग पढ़-लिख जरूर गये, कुछ राजनीति में भी पहुंचे पर हालात नहीं बदले. पृथ्वी मांझी उन गिने-चुने लोगों में हैं जो असम में सांसद बने. असम विधानसभा में एक बार डिप्टी स्पीकर और एक बार स्पीकर भी रहे. पृथ्वी मांझी संताल समुदाय से आते हैं, उनके पूर्वज सौ साल पहले जमशेदपुर से असम चले गये थे.

‘असम में झारखंडी आदिवासियों की तादाद लगभग एक करोड़ है. यहां पर हमारी सबसे बड़ी मांग एसटी का दर्जा पाने और विकास में भागीदारी की है. ‘
पृथ्वी मांझी, पूर्व स्पीकर असम विधानसभा

आबादी अधिक पर राजनीतिक ताकत कमजोर क्यों

असम में झारखंडी आदिवासिय़ों की आबादी लगभग झारखंड में रहने वाले आदिवासिय़ों के बराबर होने के बाद भी उनका सियासी रसूख काफी कमजोर क्यों है? गुवाहाटी के पत्रकार दिनकर कुमार जहां इसके कारणों का केवल संकेत भर कर छोड़ देते हैं वहीं साहित्यकार महादेव टोप्पो इसकी गुत्थियां सुलझाते हैं. महादेव टोप्पो लंबे समय तक असम में रहने के बाद अब रांची में रह रहे हैं. महादेव टोप्पो कहते हैं कि असम में सांस्कृतिक संरचना के दो प्रमुख आयाम हैं- असमिया और बांग्ला. दोनों ही अपनी पहचान को श्रेष्ठता देते हैं. इसका असर असमिया मूल के आदिवासी समुदाय पर भी है. उनमें भी श्रेष्ठता बोध है. वे झारखंड से गए आदिवासियों को कमतर मानते हैं. इस कारण संख्या बल अधिक होने के बाद भी उनके साथ ठीक व्य़वहार नहीं होता है. इस कारण झारखंड के आदिवासी सियासी हाशिये पर रहते हैं. वहीं अधिकतर कमजोर आर्थिक स्थिति वाले भी हैं. इस कारण इनकी आवाज मुखर नहीं होती है.

‘असम की आबादी में झारखंडी आदिवासियों का स्थान तीसरा है. असम के लोग और वहां के आदिवासी नहीं चाहते हैं कि इन्हें आदिवासी का दर्जा मिले. इसलिए वे भी हमेशा इनकी मांगों के विरोध में रहते हैं. इससे साफ है कि अपने हक और अधिकार को पाने में इन्हें लंबा संघर्ष करना होगा.’

प्रभाकर तिर्की, आदिवासी बुद्धिजीवी

सियासत में सफलता की कहानी भी है

डिब्रूगढ़ से जीते पवन सिंह घटवार केंद्रीय श्रम मंत्री भी रहे.
डिब्रूगढ़ के ही सांसद रहे रामेश्वर तेली केद्रीय राज्य मंत्री रहे.
पिछले 20 सालों में असम सरकार के अधिकतर श्रम मंत्री झारखंडी आदिवासी ही रहे.
पृथ्वी मांझी विधानसभा के स्पीकर रहे.

कब कौन कहां से रहे सांसद

सांसद सीट
हरेन भूमिज डिब्रूगढ़
पवन सिंह घटवार डिब्रूगढ़
बी तांती डिब्रूगढ़
जोसेफ टोप्पो तेजपुर
रामेश्वर तेली डिब्रूगढ़
कामाख्या प्रसाद जोरहाट
पल्लव लोचन तेजपुर

राज्यसभा सदस्य रहे
पृथ्वी मांझी 1984-1990.
सेटिंयस कुजूर 2013-2018.

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