डॉ राम चंद्र उरांव, असिस्टेंट प्रोफेसर
नेशनल यूनिवर्सिटी ऑफ स्टडी एंड रिसर्च इन लॉ, रांची
ईमेल : oraonramc@gmail.com
न्याय से सम्बंधित एक कथन प्रचलित है-“जस्टिस डिलेड इज जस्टिस डिनाइड” अर्थात “न्याय में देरी, न्याय अस्वीकृत करना है”. त्वरित, सुलभ और सुगम न्याय हरेक नागरिक का मौलिक अधिकार के साथ सामाजिक न्याय का मूलभूूत आधार है. इसका उद्देश्य समाज के अंतिम व्यक्ति तक समुचित न्याय दिलाना है. भारतीय संविधान, विशेषकर, वंचित और शोषित समुदायों जैसे, गरीब, दलित, आदिवासी, महिलाओं आदि को न्याय देने के लिए कटिबद्ध है,
ताकि न्याय चंद पैसों और रसूखदारों तक सीमित न रह जाये, बल्कि सर्वसुलभ हो. इसी के मद्देनजर अनुच्छेद 39 में निशुल्क कानूनी सहायता की बात हुई है. परंतु वर्त्तमान में न्यायालयों पर बढ़ते मुकदमों के बोझ, न्यायाधीशों की अपर्याप्तता, बुनियादी ढांचे एवं सुविधा के अभाव एवं तारीख पे तारीख के कुचक्र में फंसकर न्याय पाना जटिल हो गया है.
भारत सरकार के राष्ट्रीय न्यायिक डाटा ग्रिड के अनुसार एक जून, 2023 तक देश में कुल 4.96 करोड़ से ज्यादा मामले न्यायालयों में लंबित हैं. इनमें से 22.75 प्रतिशत पिछले 3 वर्षों से जिला और तालुका स्तर पर और करीब 1.76 करोड़ मामले पिछले 30 वर्षो से लंबित हैं. दिसंबर, 2019 से अप्रैल, 2022 तक 27 प्रतिशत तक लंबित मामलों में बढ़ोतरी हुई है. वहीं जनसंख्या एवं न्यायाधीशों का अनुपात जो अभी प्रति दस लाख पर 21 है, देश की बढ़ती आबादी के लिए अपर्याप्त है.
वर्त्तमान में सर्वोच्च न्यायालय में आवंटित 34 न्यायाधीशों को छोड़, बाकी न्यायालय आपने कुल रिक्तियां नहीं भर पायीं हैं. एक ओर, सुप्रीम कोर्ट ने पहली बार मार्च, 2023 में अपनी रिक्तियां भर ली हैं, पर वहीं एक जून, 2023 तक देश के 25 राज्यों के उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों की 1114 आवंटित संख्या के विरुद्ध केवल 788 न्यायाधीश ही कार्यरत हैं और 326 सीटें रिक्त हैं. वहीं, देश के अधीनस्थ न्यायालयों में कुल 25129 रिक्तियों पर 19379 न्यायाधीश ही कार्यरत हैं और 5750 पद रिक्त हैं.
ऐसे में समाज के वंचितों और सुविधाविहीन समुदायों के लिए न्याय पाना और भी मुश्किल होता जा रहा है. अज्ञानता, अशिक्षा, गरीबी, जटिल न्यायिक प्रणाली की वजह से छोटे आरोपों में आदिवासी लोग जेलों में बंद हैं और न्याय की बांट जोह रहे हैं. विदित हो कि आदिवासी समुदाय की अपनी विशिष्ट पहचान है. उनका सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन उनके रीति-रिवाज से संचालित होता है, जो अलिखित और मौखिक अनुपालन पर आधारित है.
विवाद के निबटारे भी आदिवासी समाज प्रथागत विधि से करते आये हैं. इसमें पद्दा-पड़हा, मुंडा-मानकी, मांझी-परगनैत, डोकोलो-सोहर इत्यादि व्यवस्था प्रमुख है, जो आदिकाल से ही विभिन्न आदिवासी समुदायों के स्वशासन व्यवस्था के केंद्र हैं. आधुनिक समय में भी इनकी उपयोगिता बरकरार है. उरांव समुदाय में पड़हा अपना विश्ष्टि स्थान रखती है. पंचायती राज के आने से पहले पड़हा आदिवासी शासन-प्रशासन का केंद्र रहा है.
पड़हा मुख्यतया तीन, पांच, सात, नौ, 12 व 22 गांवों का संघ है, जिसका क्षेत्राधिकार परंपरागत गांव समूह हैं. सामाजिक मुद्दों पर पद्दा-पंचा (गांव/ग्राम सभा) से निर्णय नहीं होने की स्थिति में विवाद को उस क्षेत्र के पड़हा पंच में लाया जाता है और जरूरत होने पर मदैइत (सहयोगी) पड़हा का सहयोग ले कर प्रचलित रीति-रिवाज से विवादों का समाधान करने की परंपरा है.
इसमें पाहन, महतो, कोटवार के साथ पड़हा के पदाधिकारियों जैसे, पड़हा बेल (बेल पद्दा), दीवान, कोटवार, भंडारी की अहम् भूमिका है. आदिवासी समाज अपने सामाजिक मुद्दों को रूढ़ि-प्रथा के अनुसार हल करते है. यहां तक न्यायालय भी आदिवासियों की विभिन्न सामाजिक पहलुओं जैसे, छूटा-छुट्टी (विवाह-विच्छेद), विभाजन, उत्तराधिकार, गोद लेने संबंधित रूढ़ि-प्रथा के स्पष्ट दस्तावेजीकरण के अभाव में और क्षेत्राधिकार ना होने की बात कह कर पारंपरिक ग्राम-सभा को प्रेषित कर देती है.
दूसरी तरफ, ग्राम-सभा में इन मुद्दों पर समुचित निर्णय ना होने और पड़हा व्यवस्था शिथिल होने से आदिवासी समुदाय को समुचित न्याय नहीं मिल पाता है. हताशा में आदिवासी समाज दीवानी और रिवाजिये मामलों में कोर्ट के शरण में चले जाते हैं और वर्षो तक न्याय के लिए इंतजार करते हैं. इससे लंबित मामलों में और बढ़ोतरी होती जाती है, और न्याय सुलभ नहीं होता. पेसा एक्ट,1996 ग्राम-सभा को अपने रीति-रिवाज के अनुसार संचालित करने और विवादों का निबटारा पारंंपरिक तरीके से करने का अधिकार देती है.
पड़हा-प्रणाली आदिवासियों की वैकल्पिक न्याय का सशक्त माध्यम है, जो सभी लोगों को नैसर्गिक, सुलभ, त्वरित और सुगम न्याय दे सकती है. यह सिविल कोड 1908 की धारा 89 की वर्णित मध्यस्था जैसे वैकल्पिक विवाद समाधान को मजबूत करती है. पर, कमजोर ग्राम-सभा और पड़हा व्यवस्था की वजह से न्यायालयों में मुकदमोंं का अंबार लग रहा है.
आज पड़हा-व्यवस्था आपसी मतभेद, स्वार्थ, सत्ता-लोलुपता और राजनीतिक गुटबाजी की वजह से बिखराव पर है. अपवादस्वरूप कुछ पड़हा और विशेष मौके जैसे जतरा (मेला), चुनाव, और बिशु सेंदरा इत्यादि को छोड़ कर अधिकांशः पड़हा निष्क्रिय और रस्म अदायगी के रूप में विद्यमान है.
विश्व के अन्य देश जैसे फिलीपींस, नॉर्वे, मेक्सिको आदि ने अपने न्याय व्यवस्था में अपने आदिवासियों को समुचित स्थान दिया है. उसी तरह, पड़हा और अन्य पारंपरिक व्यवस्था को वैकल्पिक न्याय के रूप में जगह देने की जरूरत है. विल्किंसन रूल्स के तहत चाईबासा में मुंडा-मानकी न्याय पंच का गठन रूढ़िगत विधि से सुलभ न्याय दिलाने में अग्रणी एवं सफल प्रयास है. आदिवासियों के रीति रिवाज और उनके जल-जंगल-जमीन पर चौतरफा समस्याओं को देखते हुए न केवल रीति-रिवाज का समय रहते दस्तावेजीकरण हो, बल्कि युवा वर्ग को जागरूक कर पड़हा व अन्य पारंपरिक व्यवस्थाओं से जोड़ने की जरूरत है.
इससे आदिवासियों के रीति-रिवाज को मूर्त रूप मिलेगा, साथ ही पड़हा वैकल्पिक न्याय का द्वार खोलेगा, जो आदिवासियों के स्वशासन और सामाजिक न्याय के लक्ष्यों को प्राप्त कर सके. अतः समय रहते इन्हें नये तरीके से पुनर्जीवित और सशक्त करने की जरूरत है. विवादों के निबटारे भी आदिवासी समाज प्रथागत विधि से करते आये हैं. इसमें पद्दा-पड़हा, मुंडा-मानकी, मांझी-परगनैत, डोकोलो-सोहर इत्यादि व्यवस्था प्रमुख है, जो आदिकाल से ही विभिन्न आदिवासी समुदायों के स्वशासन व्यवस्था के केंद्र हैं