विजय पाठक
एक पाठशाला है प्रभात खबर. आज के दौर में प्रभात खबर पत्रकारिता के ऐसे संस्थान के रूप में स्थापित हो चुका है, जिसने बतौर पाठशाला नये जमाने के पत्रकारों को राह दिखाने का काम किया. पाठशाला इसलिए, क्योंकि यहां सिर्फ अखबार निकालने की ही शिक्षा नहीं मिलती है. यहां जीवन जीने की कला के साथ-साथ कुशल आर्थिक प्रबंधन, मानव संसाधन का बेहतर इस्तेमाल करने, टीम भावना और सामाजिक जिम्मेवारी की भी सीख दी जाती है. जिससे यहां से जुड़ा हर शख्स बतौर पत्रकार जीवन के सफर में जहां भी रहे, नेतृत्वकर्ता की जिम्मेदारी निभाता रहे. अपनी तरक्की के हर दशक में प्रभात खबर ने युवा पत्रकारों को बताया कि वह तकनीक के स्तर पर भी कैसे आगे रहें.
सबसे आवश्यक बात है कि प्रभात खबर अपनी पाठशाला से निकले साथियों की अहमियत समझता है. यही कारण है कि आज के दौर में पत्रकारिता की दुनिया में लगभग सभी महत्वपूर्ण जगहों पर प्रभात खबर की पाठशाला से निकले लोग मौजूद हैं. साथ ही अपनी अमिट छाप छोड़ रहे हैं. आप जिस भी मीडिया हाउस में जायें, प्रिंट-इलेक्ट्रॉनिक हों या फिर डिजिटल, प्रभात खबर की पाठशाला से निकले लोग लगभग हर जगह मिल ही जायेंगे. अलग-अलग विभागों में भी. शीर्ष पदों पर भी.
पहले बात करता हूं संपादकीय विभाग में प्रभात खबर की पाठशाला से निकले कुछ लोगों की. मैं खुद प्रभात खबर की पाठशाला का ही विद्यार्थी रहा. शुरुआत गुमला जिले से बतौर स्ट्रिंगर की. फिर रांची में प्रशिक्षु उपसंपादक से संपादक तक का सफर तक किया. प्रभात खबर के कार्यकारी संपादक अनुज कुमार सिन्हा भी इसी पाठशाला से निकले हैं. हजारीबाग से रांची तक का सफर तक किया. जमशेदपुर संस्करण के संपादक संजय मिश्र भी वहीं से प्रभात खबर में रिपोर्टिंग किया करते थे. धनबाद के संपादक जीवेश रंजन सिंह, प्रभात खबर भागलपुर के संपादक अनुराग कश्यप और देवघर के संपादक कमल किशोर ने प्रभात खबर से ही अपना करियर शुरू किया था. प्रभात खबर, बिहार के संपादक अजय कुमार, ऑडिट एंड इनोवेशन सेल के संपादक रजनीश उपाध्याय, कोलकाता प्रभात खबर के संपादक कौशल किशोर प्रभात खबर की पाठशाला के ही विद्यार्थी रहे हैं और आज शीर्ष पदों पर हैं.
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अब बात प्रभात खबर के मैनेजमेंट की पाठशाला की. हम लोगों को शुरू से ही शिक्षा मिली कि कम खर्च व संसाधन में तकनीक का बेहतर प्रयोग कर किस तरह बेहतरीन काम किये जा सकते हैं. संपादकीय विभाग की बात करें, तो पहले सबएडिटर रिपोर्टर की कॉपी एडिट करता था, कंपोजिटर कंपोज करता था, प्रूफरीडर प्रूफ पढ़ता था, फिर डिजाइनर पेज तैयार करता था. हमारे पास संसाधन कम थे, तो तकनीक का सहारा लिया. संपादकीय साथियों को कंप्यूटर की शिक्षा दी गयी. उन्हें कंपोजिंग सिखायी गयी. कंप्यूटर पर ही पेज मेकिंग का प्रशिक्षण दिया गया. खुद ही संपादन, प्रूफ रीडिंग, पेज डिजाइनिंग भी सीखा, यानी जो काम चार लोग करते थे, वह काम सिर्फ एक आदमी करने लगा. लेकिन ऐसा नहीं था कि प्रबंधन ने अतिरिक्त मैनपावर को हटाया. प्रूफ रीडर्स उपसंपादक बनाये गये. कंपोजिटर डिजाइनर बन गये. पेस्टिंग और अन्य विभाग के साथी मशीन व प्रोडक्शन में एडजस्ट किये गये. ऐसा कर मानव संसाधन का बेहतर इस्तेमाल सिखाया गया.
प्रभात खबर के पास संसाधन कम थे, तो चुनौतियां भी थीं. कैसे पैसे बचाया जाये और फिर उन पैसों का सदुपयोग कैसे करें, इस पर ध्यान दिया गया. पुरानी प्रिंटिंग मशीन से काम शुरू किया गया. बहुत छोटे उपायों से पैसे बचाये गये. उदाहरण के रूप में आज भी कई प्रिंट मीडिया हाउस में रिपोर्टर एक-एक खबर की प्रिंट निकालते हैं. उसके बाद खबरों का चयन होता है. फिर पेज डिजाइन होने के बाद चेक करने के लिए उसकी प्रिंट निकाली जाती है. प्रभात खबर में यह परंपरा 1997-98 के आसपास ही बंद की गयी. कंप्यूटर पर खबरें चेक होती थीं. पेज भी कंप्यूटर पर ही चेक होता था. साल में इससे करीब-करीब 36 लाख रुपये की बचत हुई. यानी हर माह हम लोग तीन लाख रुपये का कागज बर्बाद कर देते थे.
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प्रभात खबर में ही हम लोगों ने सीखा कि अखबार में जो डाक आते थे, उसके इनवेलप का पुन: उपयोग कैसे किया जाये. किया भी गया. इससे भी बचत हुई. प्राय: देखा जाता था कि काम खत्म होने के बाद साथी कंप्यूटर खुला छोड़ जाते थे. पंखा चल रहा है. बल्ब जल रहे हैं. एसी चल रही है. फिर इसकी मॉनिटरिंग हुई. शीर्ष पदों पर बैठे लोगों ने भी इसकी मॉनिटरिंग की. बिजली का दुरुपयोग बंद हुआ. बिजली का खर्च कम हुआ. ऐसे छोटे-छोटे उपायों से प्रभात खबर आगे बढ़ा.
प्रभात खबर की पाठशाला में साथियों के बीच टीम भावना और उनके बीच बेहतर तालमेल पर बहुत ध्यान दिया गया. आज भी यह बरकरार है. आज भी प्रभात खबर कार्यालय में बाहर के लोगों को यह पता नहीं चलेगा कि कौन किस विभाग में काम करता है. हर विभाग और उसके साथी एक-दूसरे के साथ खड़ा रहते हैं. कहीं एक कॉपी कम हुई या कोई विज्ञापन छूटा, तो इसकी चिंता हर साथी को होती है, चाहे वह किसी विभाग का हो. इसी शिक्षा का परिणाम है, विभागों में बेहतरीन समन्वय है. संपादकीय और प्रसार विभाग की नियमित बैठकें होती हैं. संपादकीय, विज्ञापन और प्रोडक्शन के साथ लगातार चर्चा होती है. बेहतर समन्वय का माहौल है.
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पाठशाला के सभी साथी अपनी सामाजिक जिम्मेवारी बखूबी समझते हैं और उसे निभाते भी हैं. कोरोना काल में जब पूरे विश्व में हाहाकार मचा था, पूरा प्रभात खबर परिवार अपने साथियों के साथ तो खड़ा था ही, तब वह उन लोगों के साथ भी खड़ा हुआ, जिनके पास न पैसे थे और न ही खाने के लिए अनाज. वैसे लोगों को राशन-पानी मुहैया कराया गया, वह भी लगातार. लंबे समय तक.
प्रभात खबर आज भी बेहतर वर्क कल्चर, जिसे शुरुआत से ही प्रबंधन ने उपलब्ध कराया, के साथ आगे बढ़ रहा है. हमारा संस्थान बड़ी से बड़ी कठिनाइयां पार कर न सिर्फ देश भर में सातवें स्थान पर कायम है, बल्कि देश के तीन बड़े मीडिया घरानों के सामने सीना तान कर खड़ा है. उम्मीद है कि प्रभात खबर अपना यह सफर इसी प्रकार जारी रखेगा और आनेवाले समय में दूसरे लोगों को भी राह दिखाता रहेगा.
(लेखक प्रभात खबर रांची के स्थानीय संपादक हैं.)