विनय कुमार सिंह
भारतीय गणतंत्र आज 76 वें वर्ष में प्रवेश कर रहा है. नि:संदेह यह भारत राष्ट्र राज्य के लिए एक बड़ी उपलब्धि है. ब्रिटिश औपनिवेशिक ताकत को मात देकर हम आजाद हुए और आज एक मजबूत गणतंत्र के रूप में विश्व पटल पर स्थापित हैं. हमारा राष्ट्रीय तिरंगा आसमान में शान से लहरा रहा है. इतने वर्षों में हमने धरती से अंतरिक्ष तक ढेर सारी सफलताएं प्राप्त की है. इनमें से कई तो चमत्कृत करनेवाली हैं. विश्व के राष्ट्रों में भारत ने महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त किया है. भारत की बात को आज गंभीरता से लिया जाता है. फिर भी, ज्ञान-विज्ञान और आर्थिकी के क्षेत्र में ऊंचाई की ओर बढ़ते इस देश के समक्ष कई चुनौतियां भी हैं जिन्हें नजरअंदाज करना अंततः हमारी सारी कामयाबियों पर पानी फेर सकता है.
स्वार्थों की बलि चढ़ रहे हैं नैतिक मूल्यों की प्रस्थापना
स्वाधीनता संग्राम के दौर में गांधी ने जिस नैतिक मूल्यों की प्रस्थापना की थी, वे मूल्य विभिन्न स्वार्थों की बलि चढ़ रहे हैं. कहना नहीं होगा कि शुचिता,ईमानदारी और सामाजिक-राष्ट्रीय हितों के लिए त्याग भावना ही वे नैतिक आदर्श हैं जो किसी देश को दुनिया में ऊपर उठाते हैं. हम आत्मावलोकन करें कि क्या हम ‘भारत के लोगों’ और हमारे ‘भाग्यविधाता’ बने राजनेताओं के अंदर उन मूल्यों-आदर्शों के लिए कोई जगह बची है?
राजनीतिक तंत्र नैतिक रूप से कंगाल
राजनीतिक तंत्र नैतिक रूप से कंगाल है. हर राजनीतिक दल में जो जहां है,उसके लिए पैसा और पैसे से पद-कुर्सी–यही एकमेव आदर्श है.दल आज विचारधाराओं से नहीं, पैसे और तिकड़म से संचालित हैं. किसी भी दल को अपने प्रेरणा-पुरुषों के जीवन और दर्शन से कोई खास मतलब नहीं;सिवा उनके चित्रों पर भी फूल-मालाएं चढ़ाने,धूप-दीप दिखलाने या जिंदाबाद चिल्लाने के.गाँधी,जेपी,लोहिया या पं.दीनदयाल के नाम केवल जपने के लिए बचे हैं, उनके आदर्शों पर चलने के लिए नहीं.
सिद्धांतहीन राजनीति को महात्मा गांधी जी ने दी सामाजिक अभिशाप’ की संज्ञा
इसी तरह की सिद्धांतहीन राजनीति को महात्मा गांधी जी ने ‘सामाजिक अभिशाप’ की संज्ञा दी है.इसी सिद्धांतहीन, अनैतिक राजनीति के चलते शासन-प्रशासन में भ्रष्टाचार चरम पर है जिससे गणतंत्र बदहाल और लोकजीवन त्रस्त हैं. राष्ट्रकवि दिनकर ने गणतंत्र की अभ्यर्थना में यह जो लिखा था–‘अभिषेक आज राजा का नहीं, प्रजा का है;तैंतीस कोटि के सिर पर छत्र धरो’.लेकिन आज प्रजा के सर पर छत्र धरने के संवैधानिक शपथ लेनेवाले सांसद-विधायक-मंत्री वास्तव में राजतंत्र से भी ज्यादा शाही आचरण करते हुए प्रजा के ही सर पर सवार हैं. और संविधान?
संविधान की दुहाई की लगी है होड़
हंसी आती है कि संविधान की दुहाई की होड़ लगी है. जैसा कि तुलसीदास जी कहते हैं कि “ब्रह्म ग्यान बिनु नारि नर कहहिं न दूसरि बात”(कलिकाल में स्त्री-पुरुष ब्रह्मज्ञान के सिवा दूसरी बात नहीं करते, लेकिन आचरण में ब्रह्मतत्व नहीं दिखता). वही हाल राजनेताओं का है. संविधान की प्रस्तावना में जो समता, बंधुत्व और व्यक्ति की गरिमा के तत्व हैं, इनसे कोई मतलब नहीं; सिर्फ वोट के लिए जनता में जाति-पंथ-भाषा और क्षेत्र को लेकर दुर्भावनाएं भड़काना है. न केवल देश के अंदर, ब्लकि अपने-अपने दलों के अंदर भी. देश की एकता-अखंडता और संप्रभुता को चुनौती देने वालों को शह देने में लज्जा नहीं आती. एक पार्टी के लाडले संविधान को पाकेट में लेकर घूम रहे हैं. उनका कहना है कि संविधान पर खतरा है. वे संविधान को बचाने निकले हैं. सरकार से लड़ते-लड़ते ‘भारत स्टेट’ से लड़ने की बात करने लगे हैं.’स्टेट’ के अंदर सरकार के साथ-साथ भूमि,जन और संप्रभुता भी शामिल है. उनसे कोई पूछे कि वे इनमे किन-किन से लड़ेंगे?
लोकलाज से ही लोकराज चलता है
लोकनायक जयप्रकाश नारायण कहते थे कि “लोकलाज से ही लोकराज चलता है”.यदि लोकलाज को ही तिलांजलि दे दी तो कोई ‘लोकनेता’ कैसे हो सकता है,चाहे वह किसी भी दल का क्यों नहीं हो.भारतरत्न अटल बिहारी वाजपेयी जी की एक मशहूर कविता है जिसमें वे कहते हैं कि “बौनों की नहीं,ऊंचे कद के इंसानों की जरूरत है.” कहना नहीं होगा कि केवल ऊंची सोचवाले,ऊंचे कद के राजनेता और उनके विचारों से अनुप्राणित लोग ही गणतंत्र की ताकत बन सकते हैं.