डॉ अनुज लुगुन
जैव विविधताओं के बारे में आदिवासी समाज के पास समृद्ध सामुदायिक ज्ञान है. वनस्पतियों और जीव-जंतुओं के साथ उनका सांस्कृतिक संबंध रहा है. उनके स्वभाव और गुण के बारे में आदिवासी समाज से बेहतर जानकारी शायद ही अन्य समाज के पास हो. आदिवासी समाज के टोटेम, गोत्र, पारंपरिक रीति-रिवाज आदि से वनस्पतियों और जीव-जंतुओं की सांस्कृतिक संबद्धता है. उनकी पुरखा अभिव्यक्तियों में यह जगह-जगह व्यक्त हुआ है. उन्हीं जैव-विविधताओं में से एक है तिरिल का पेड़.
तिरिल जंगल में मिलने वाला एक पेड़ है. यह भारतीय भूगोल का प्राचीन पेड़ है, जो अब केवल आदिवासी क्षेत्रों में बचा हुआ है. ‘तिरिल’ मुंडा भाषा परिवार का नाम है. आर्य भाषा परिवार में यानी हिंदी में इसे ‘केंदू’, केंद, या ‘तेंदू’ के नाम से जाना जाता है. यह औषधीय गुणों से युक्त पेड़ है. इसका कच्चा फल हरा होता है और फल पकने पर पीला हो जाता है. कच्चा फल कसैला होता है, लेकिन पकने पर यह मीठा होता है. इसमें ग्लूकोज की मात्रा बहुत अधिक होती है. यह ऊर्जा देता है और दिनभर ऊर्जावान रख सकता है. इससे थकान दूर हो जाती है.
अगर आप जंगल में भटक गये हों, और थक-हार कर लड़खड़ा रहे हों, तो तिरिल के पेड़ के पास जाइए, उसका फल खाइए, पानी पीजिए और फिर से चलने की ऊर्जा रिस्टोर कर लीजिए. जो जंगल की जीवन शैली से परिचित हैं वे तिरिल के इस गुण से भी परिचित होंगे. आदिवासी-सदान समुदायों के लोग जंगलों से जुड़कर अपनी दैनिक क्रियाओं को संपादित करते हैं. ये तिरिल आदि जंगल के फलों के सहारे ही लंबे समय तक जंगलों में अपनी दैनिक क्रियाओं को संपादित कर पाते हैं. दस्त आदि बीमारियों के लिए भी यह कारगर माना जाता है.
आदिवासी-सदान समाज के लिए यह पेड़ जीवनदायिनी है. अकाल के दिनों में, गरीबी में, इस फल का प्रयोग ‘भात’ के विकल्प के रूप में भी किया जाता रहा है. मेरे पिताजी बताते हैं कि उनके बचपन के दिनों में जब अकाल आया था, तब इसके कच्चे फल को कूट कर ही भात की तरह खाया जाता था. कच्चा में इसका बीज चावल की तरह होता है. उसे धो कर खाया जाता है. पकने पर फल का बीज कठोर हो जाता है.
कथित मुख्यधारा के लोग इस पेड़ को ‘बीड़ी’ बनाने वाले पेड़ के नाम से जानते हैं. इसी पेड़ के पत्ते से ही बीड़ी बनायी जाती है. बीड़ी उद्योग की वजह से ही इस पेड़ का बहुत नुकसान हुआ है. बीड़ी बनाने के लिए तिरिल के कोमल पत्तों का प्रयोग किया जाता है. कोमल पत्तों के लिए जंगल को जला दिया जाता है. जले हुए ठूंठ से कोमल पत्ते निकलते हैं. कोमल पत्तों से ही बीड़ी बनती है, पेड़ के बड़े पत्तों से नहीं. बीड़ी के पत्ते तोड़ने का काम मूलत: आदिवासी-सदान महिलाएं करती हैं.
इस काम से उनका आर्थिक जुड़ाव होता है, लेकिन यह काम जितना कठिन है उसका मूल्य उतना ही कम है. महिलाएं दिनभर घूम-घूम कर जंगल से कोमल पत्तों को एकत्रित करती हैं. उन पत्तों को गिनकर बंडल बनाती हैं. उसी बंडल के आधार पर उनकी कीमत तय होती है. इस पूरी प्रक्रिया में बीड़ी उद्योग ने आदिवासी-सदानों का घनघोर शोषण भी किया है. 80-90 के दशक में बीड़ी व्यवसायी और ठेकेदारों के खिलाफ सीधी कारवाई करके भी जंगल के क्षेत्रों में नक्सल आंदोलन ने अपनी पकड़ बनायी थी.
तिरिल के पेड़ का आदिवासी जीवन में सांस्कृतिक महत्त्व है और इसका मिथकीय संदर्भ भी है. मुंडा पुरखा कथा के अनुसार जब ‘सेंगेल द:आ’ यानी अग्नि वर्षा हुई थी, तब आदिवासी बूढ़ा-बूढ़ी पुरखे ने इसी तिरिल की खोह में अपनी जान बचायी थी. जंगल में तिरिल का पेड़ ही एक ऐसा पेड़ है, जिसके तने में खोह होता है. इसके तने में खोह बनने की भी वजह है. जब इसका फल पक जाता है तो उसे तोड़ने के लिए पेड़ पर चढ़ने की जरूरत नहीं होती है. उसके तने पर बड़ा पत्थर मारने से उसके पके फल दरक कर नीचे गिर जाते हैं. इसी चोट से इसके तने में खोह बन जाता है. तिरिल का पेड़ दूसरे पेड़ों की तरह ज्वलनशील नहीं होता. मुंडाओं में ऐसी मान्यता बन गई है कि भविष्य में जब अग्नि वर्षा होगी तो यही पेड़ उन्हें संरक्षण देगा. यही वजह है कि मुंडा धान रोपनी के बाद खेतों में तिरिल की डाली गाड़ते हैं. आज भी कुछ क्षेत्रों में मुंडा इस प्रथा का पालन करते हैं.
रोचक बात यह है कि तिरिल आदिवासी समाज की खेल-संस्कृति से भी जुड़ा हुआ है. आदिवासी समाज में तिरिल के पेड़ से हॉकी स्टिक बनाने का प्रचलन रहा है. इसके किशोर पेड़ सीधे होते हैं, उन्हें आग में तपा कर हॉकी स्टिक के आकार में आसानी से ढाल दिया जाता है. झारखंड के अधिकांश हॉकी खिलाड़ी इस कला से परिचित ही होंगे.
तिरिल के पेड़ को आदिवासी समुदाय ने समुचित सम्मान दिया है. इस पेड़ का नाम कई आदिवासी गांवों के इतिहास से जुड़ा हुआ है. तिरिल पोसी, तिरिल, तिरिल हातु, आदि आदिवासी गांव का नामकरण तिरिल पेड़ के नाम पर ही हुआ है. रांची में भी एक गांव का नाम ‘तिरिल’ है. फागुन-चैत का माह तिरिल का मौसम है. आप किसी भी आदिवासी-सदान गांव या हाट जाकर तिरिल का स्वाद लेकर उसकी ऐतिहासिकता से जुड़ सकते हैं.
रांची में बहुत पुराना हाट है, जिसे अब लोग ‘बहु बाजार’ के नाम से जानते हैं. इस बाजार में जाकर भी आप तिरिल खरीद सकते हैं. यहां रनिया, तोरपा, बसिया, मार्चा आदि सूदूरवर्ती क्षेत्रों से आदिवासी महिलाएं तिरिल सहित अन्य जंगली फल, साग-सब्जी बेचने आती हैंं तिरिल की तरह ही वे जीवट होती हैं. उनकी वाणी भी तिरिल की तरह मीठी और ऊर्जावान होती है. सखुआ का पेड़ तो हमारा पूर्वज है, उसी पूर्वज का साथी है तिरिल. तिरिल हमारा सहजीवी है.