कूनो राष्ट्रीय उद्यान में दक्षिण अफ्रीका और नामीबिया से लाये गये कई चीतों की मौत के बाद अब बचे हुए 15 चीते फिलहाल पूरी तरह स्वस्थ हैं. मध्य प्रदेश के पीसीसीएफ वन्यजीव और मुख्य वन्य जीवन वार्डन ने कहा कि सभी 15 चीते जिसमें 7 नर, 7 मादा और 1 मादा शावक अभी बोमा में हैं और स्वस्थ हैं. वार्डन ने बताया कि कूनो पशु चिकित्सा टीम उनके स्वास्थ्य मापदंडों पर लगातार निगरानी कर रही है.
इससे एक सप्ताह पहले कूनो नेशनल पार्क में एक और चीता धात्री (टिबलिसी) की मौत हो गई थी. वन्य कर्मियों की निगरानी से चीता धात्रा पहले गायब हो गई. चीता धात्री की काफी खोजबीन की गई. बाद में वन्य कर्मियों को उसका शव मिला.
देश में 1952 के बाद से विलुप्त हुए चीतों को फिर से बसाने के लिए कूनो नेशनल पार्क में करोड़ों की लागत से चीतों को बसाने की कोशिश की गई है. हालांकि बीते करीब चार महीनों से यह योजना खटाई में पड़ती जा रही है. इसका कारण है कि बीते चार महीनों से लगातार एक-एक कर चीतों की मौत हो रही है.
बीते महीने जुलाई में दो चीतों की मौत हो गई थी. जुलाई महीने में पहले नर चीता तेजस की मौत हो गई थी. उसके बाद जुलाई महीने में ही दूसरा झटका लगते हुए चीता सूरज की संक्रमण के कारण मौत हो गई थी. वहीं, कूनो में लगातार हो रही चीतों की मौत से सरकार और वन विभाग के माथे पर चिंता की लकीरें खिंच गई है.
इधर, चीते को लेकर एक राहत भरी खबर भी है. मध्यप्रदेश के कूनो में दक्षिण अफ्रीका से लाई गई मादा चीता निरवा वापस मिल गई है. वन्य कर्मियों ने धोरेट रेंज से उसे पकड़ा है. करीब 22 दिन लापता रहने के बाद उसे पकड़ा गया. दरअसल, 21 जुलाई के उसके कॉलर ने काम करना बंद कर दिया था , जिसके कारण उसकी लोकेशन मिलनी बंद हो गई थी. इधर, निरवा को खोजने में पशु चिकित्सक, चीता ट्रैकर्स सहित 100 से अधिक फील्ड कर्मचारी लगे हुए थे.
गौरतलब है कि भारत से पूरी तरह से चीते खत्म हो गये थे. इसी को देखते हुए देश में चीतों की आबादी को फिर से बसाने के लिए एक महत्वाकांक्षी कार्यक्रम के तहत आठ चीतों को नामीबिया से मध्यप्रदेश के केएनपी लाया गया. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पिछले साल 17 सितंबर को इन्हे विशेष बाड़ों में छोड़ा. इनमें पांच मादा और तीन नर चीते शामिल थे.
इसके बाद साल 2023 के 18 फरवरी को दक्षिण अफ्रीका से 12 और चीते (सात नर और पांच मादा) केएनपी में लाये गये थे. धरती से सबसे तेज दौड़ने वाले जानवर चीते को 1952 में देश में विलुप्त घोषित कर दिया गया था.