Independence Day 2023: बलिया, पूर्वी उत्तर प्रदेश का जिला, जिसे अक्सर लोग बागी बलिया कहकर पुकारते हैं. ऐसा इसलिए क्योंकि स्वतंत्रता की पहली किरण बलिया में ही फूटी हालांकि, यह आजादी अधिक दिनों तक नहीं कायम नहीं रह सकी थी. साथ ही 1857 के स्वतंत्रता संग्राम में पहली गोली चलाने वाले मंगल पांडेय से लेकर भारतीय राजनीति के युवा तुर्क चंद्रशेखर तक का नाम इसी बलिया जिले से जुड़ा है.
मगर आजादी की लड़ाई में बलिया ने वो कारनामा कर दिखाया है, जिसे सिर्फ भारतीय इतिहास में ही नहीं बल्कि ब्रिटिश हिस्ट्री में भी सुनहरे लफ्जों में दर्ज किया गया है. 1947 में भारत की आजादी से 5 साल पहले ही बलिया के लोगों ने खुद को ब्रिटिश हुकूमत से आजाद करवा लिया था और वो भी बाकायदा सत्ता हस्तांतरण के जरिए.
महात्मा गांधी ने 8 अगस्त 1942 को भारत छोड़ो आंदोलन आरम्भ किया था, जिसकी आग में देश के साथ पूरा बलिया जिला भी जल रहा था. जनाक्रोश चरम पर था. 9 अगस्त से ही बलिया में जगह-जगह थाने जलाये जा रहे थे. सरकारी दफ्तरों को लूटा जा रहा था. रेल पटरियां उखाड़ दी गई थी. जनाक्रोश को कुचलने के लिए अंग्रेजी सरकार ने आंदोलन के सभी नेताओं को जेल में बंद कर दिया था. मगर अंग्रेज ये भूल गये कि वो बलिया जिला था, जहां का हर निवासी खुद को किसी नेता से कम नहीं समझता. लिहाजा नेताओं को जेल में बंद करने का कदम, खुद अंग्रेजों पर ही भारी पड़ गया.
नेतृत्व विहीन जनता को जो समझ में आया, उन्होंने करना शुरु कर दिया. 11 अगस्त को बलिया में आजादी का जुलूस निकला. 12 अगस्त को बलिया व बैरिया में विशाल जुलूस निकला. 13 अगस्त को बनारस से बलिया पहुची ट्रेन से आये छात्रों ने चितबड़ागांव स्टेशन को फूंक दिया. 14 अगस्त को मिडिल स्कूल के बच्चों के जुलुस को सिकंदरपुर में थानेदार द्वारा बच्चों को घोड़ो से कुचला गया. 14 अगस्त को ही चितबड़ागांव, ताजपुर, फेफना में रेल पटरियों को उखाड़ दिया गया. वही बेल्थरा-रोड में मालगाड़ी को लूट कर पटरियों को उखाड़ दिया गया. इसके बाद बलिया रेल सेवा से पूरी तरह से कट गया.
ऐसा नहीं था कि अंग्रेजों ने इस आंदोलन को कुचलने के लिए दमन चक्र नहीं चलाया. फिरंगियों की कार्रवाई में बड़ी तादात में लोग शहीद हुए, जिनमे 16 अगस्त को पुलिस गोलीबारी में बलिया शहर के लोहापट्टी, गुदरी बाजार में दुखी कोइरी सहित 7 लोग शहीद हुए, 17 अगस्त को रसडा में 4 लोग पुलिस गोलीबारी में शहीद हुए, 18 अगस्त को बैरिया में थाने पर तिरंगा फहराने के जंग में कौशल कुमार सहित 18 लोग शहीद हुए. हजारों लोगों को जेलों में बंद कर दिया गया. लेकिन लोगों का गुस्सा थमने का नाम नहीं ले रहा था.
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बलिया में क्रांति का रूप ऐसा था, जिसके सामने गांव के चौकीदार से लेकर जिले के कलक्टर तक को नतमस्तक होना पड़ा. 19 अगस्त को लोग अपने घरों से पैदल ही सड़को पर निकल पड़े थे. जिले के ग्रामीण इलाके से शहर की ओर आने वाली हर सड़क पर जन सैलाब उमड़ पड़ा था. जिले के कोने-कोने से हजारों की संख्या में लोग जिला कारागार पर उपस्थित हो चुके थे. लोगों के अंदर अंग्रेजों के दमनात्मक कार्रवाई को लेकर रोष व्याप्त था.
जेल पर एकत्र हो रहे लोगों की भीड़ का दबाव बढ़ते देख अंग्रेज कलेक्टर जे सी निगम और पुलिस कप्तान जियाउद्दीन अहमद जेल के अंदर घुस गए और दूसरी बार चित्तू पांडेय समेत क्रांतिकारी नेताओं से वार्ता कर जेल का फाटक खुलवा दिया. टाउन हाल क्रांति मैदान में एकत्रित जनसमूह के बीच पंडित चित्तू पांडे, राधा मोहन सिंह, राधागोविंद सिंह तथा विश्वनाथ चौबे आदि का भाषण हुआ. नेताओं ने कहा जनआंदोलन के दबाव में यह रिहाई हुई है.
आंदोलनकारियों के उग्र तेवर को देख जिले के 10 से अधिक थानों की पुलिस निष्क्रिय हो गई थी. उधर, अंग्रेजी हुकूमत के बलिया में पंगु हो जाने के बाद 20 अगस्त 1942 को नए प्रशासन की विधिवत घोषणा कर दी गई. ब्रिटिश हुकूमत के कलेक्टर जे सी निगम ने बाकायदा चित्तू पांडेय को प्रशासन का हस्तांतरण किया और चलते बने.
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बलिया में राष्ट्रीय स्वराज सरकार का गठन हुआ. इस सरकार का नेतृत्व एक करिश्माई नेता चित्तू पांडेय ने किया. जनता ने राष्ट्रीय स्वराज सरकार का समर्थन किया और हजारों रुपये चंदा के रूप में इकट्ठा कर दिए. इस प्रकार भारत के आजादी से 5 वर्ष पूर्व ही आजाद हुए बलिया जिले के पहले कलेक्टर चित्तू पांडेय तथा पंडित महानन्द मिश्रा पुलिस अधीक्षक घोषित किए गए.
23 अगस्त की रात में ब्रिटिश सरकार के गवर्नर जनरल हैलेट ने बनारस के कमिश्नर नेदर सोल को बलिया का प्रभारी जिलाधिकारी बना कर बलूच फौज के साथ भेज दिया. जिसने बनारस के तरफ से रेल पटरियों को बिछाते हुए बलिया आते ही कत्लेआम मचा दिया, 23 अगस्त को ही दोपहर में बक्सर की ओर से जलमार्ग से मार्क स्मिथ के नेतृत्व में और 24 अगस्त की सुबह आजमगढ की ओर से कैप्टन मुर के नेतृत्व में ब्रिटिश फौज बलिया पहुंच गयी.
ब्रिटिश फौज का भारी दमन चक्र शुरू हो गया, इस दौरान 84 लोग शहीद हुए और बलिया पर फिर ब्रिटिश का शासन हो गया. समस्त नेता फिर जेल में डाल दिये गए. गांव-गांव दमन का चक्र चलना शुरू हुआ जो 1944 तक चलता रहा. बीबीसी रेडियो ने बाकयदा बलिया पर फिर से कब्जे का ऐलान किया, जो ये बताने के लिए काफी था कि इस बगावत ने ब्रिटिश हुकूमत की दुनियाभर में कितनी किरकिरी कराई थी. लेकिन बलिया के क्रांतिकारियों ने इतिहास बना चुके थे.
बलिया की यह आजादी भले ही चंद दिनों की रही, लेकिन इसके निहितार्थ बड़े व्यापक थे. एक छोटे से जिले के, हर ओर अंग्रेजी शासन से घिरे रहकर भी आजाद हो जाना क्रांतिकारियों में नए उत्साह का संचार कर गया, वहीं इस खबर से दुनिया भी चौंक पड़ी. 1942 की क्रांति के समय प्रांत कांग्रेस कमेटी के कार्यकारिणी सदस्य रहे स्वतंत्रता सेनानी दुर्गा प्रसाद गुप्त ने अपनी पुस्तक ‘स्वतंत्रता संग्राम में बलिया’ में लिखा है कि अगस्त महीने के अंत में प्रदेश के गवर्नर सर हैलेट ने लंदन को यह खबर भेजी कि बलिया पर फिर कब्जा कर लिया गया है.
गवर्नर के इस संदेश में भी इस बात की स्वीकारोक्ति थी कि बलिया में अंग्रेजी शासन समाप्त हो गया था. यह मुद्दा ब्रिटिश संसद में भी उठा. तब संसद में भारतीय मामलों के मंत्री एमरी ने भी हैलेट की बात दोहराई. ब्रिटिश संसद में बलिया की आजादी गूंजी. दुनिया के अन्य देशों में इसे ब्रिटिश शासन की ओर से अपनी पराजय की स्वीकारोक्ति के रूप में देखा गया.
बलिया की क्रांति की तब के लगभग हर बड़े नेता ने सराहना की. अपनी पुस्तक में दुर्गा प्रसाद गुप्त लिखते हैं कि कांग्रेस के तत्कालीन अध्यक्ष मौलाना अबुल कलाम आजाद ने कहा था कि मैं बलिया की उस सरजमीं को चूम लेना चाहता हूं, जहां इतने बहादुर और शहीद पैदा हुए.” आजाद भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने भी 42 के आंदोलन में बलिया की भूमिका को सराहा था. उन्होंने कहा था कि अगर 1942 में मैं जेल से बाहर होता, तो मैंने भी वही किया होता जो बलिया की जनता ने अपने यहां किया था.