Lok Sabha Elections 2024: लोकसभा चुनाव 2024 से पहले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (NDA) और इंडियन नेशनल डेवलपमेंटल इंक्लूसिव अलायंस (I-N-D-I-A) के बीच आरोप प्रत्यारोप की लड़ाई अभी से तेज हो गई है. विपक्ष के गठबंधन में अभी 26 दल शामिल हो चुके हैं. इन सबके बीच यूपी में ये लड़ाई आने वाले दिनों में किसी नए मोड़ पर पहुंच सकती है. बसपा सुप्रीमो मायावती कोई अहम फैसला कर सकती हैं.
दरअसल I-N-D-I-A में शामिल दलों के नेताओं से लेकर एनडीए तक की निगाह बहुजन समाज पार्टी (बसपा) की तरफ लगी है. क्योंकि, यूपी में एससी वोट करीब 22 फीसदी हैं. यह वोट एक वक्त में बसपा सुप्रीमो मायावती का कोर वोट माना जाता था. हालांकि, यूपी विधानसभा चुनाव 2022 में बसपा को करीब 12.5 फीसदी ही वोट मिला, जिसके चलते वर्ष 2007 चुनाव में पूर्ण बहुमत की सरकार बनाने वाली बसपा का सिर्फ एक विधायक जीत पाया. बसपा का वोट प्रतिशत लगातार कम हो रहा है.
चुनाव के नतीजों पर नजर डालें तो यह वोट भाजपा के साथ ही सपा में शिफ्ट होने लगा है. मगर, लोकसभा चुनाव 2024 में कांग्रेस भी दलित वोट साधने में जुटी है. बताया जा रहा है इसके लिए कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे खास फोकस कर रहे हैं, उन्होंने पार्टी नेताओं के बीच इस रणनीति पर चर्चा भी की है. इसके साथ ही विपक्ष दलित वोटबैंक का बिखराव रोकने के लिए पूरी तरह से एकजुट होने की रणनीति बना रहा है. इसके लिए बसपा का साथ होना जरूरी है.
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वरिष्ट पत्रकार तारिक सईद कहते हैं कि I-N-D-I-A के लिए बसपा काफी जरूरी है. क्योंकि अगर लोकसभा चुनाव में बसपा अकेले लड़ती है, तो 5 से 7 फीसद वोट ले पाएगी है. मगर, बाकी 5 से 7 फीसद एससी वोट भाजपा में जा सकता है. इससे I-N-D-I-A का खेल बिगड़ने का खतरा है. हालांकि, अकेले चुनाव लड़ने से बसपा को सबसे बड़ा नुकसान है. बसपा का राष्ट्रीय दल का दर्जा खतरे में है.
बसपा का वोट प्रतिशत लगातार गिरता जा रहा है. यूपी विधानसभा चुनाव 2022 में पार्टी को 1993 के बाद सबसे कम मत मिले हैं. यह घटकर सिर्फ 12.5 फीसद रह गए. इससे बसपा काफी खराब दौर में पहुंच गई है.यूपी में 22 फीसदी दलित हैं. लेकिन, पार्टी को 12.5 फीसदी वोट मिलना यह स्पष्ट संकेत है कि पार्टी का अपना बेस वोटर भी उससे दूर हो गया है, जिसके चलते सिर्फ एक ही विधायक जीत सका.
दिल्ली एमसीडी चुनाव में की बात करें तो पार्टी को एक फीसद से भी कम वोट मिले थे. बसपा का ग्राफ 2012 यूपी विधानसभा चुनाव से गिर रहा है. 2017 में बीएसपी 22.24 प्रतिशत वोटों के साथ सिर्फ 19 सीटों पर सिमट गई. हालांकि, 2019 लोकसभा चुनाव में वोट प्रतिशत में इजाफा नहीं हुआ. लेकिन, सपा के साथ गठबंधन का फायदा मिला. तब बसपा 10 लोकसभा सीटें जीतने में सफल रही. ऐसे में बसपा की आगे की राजनीतिक राह काफी मुश्किल है. उसको राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा बचाने के साथ ही पार्टी के अस्तित्व को बचाने के लिए इंडिया गठबंधन में रहना जरूरी है, तभी विपक्ष की सामूहिक ताकत के बल पर वह चुनाव में लाभ लेने की स्थिति में होगी. वरना विधानमंडल से लेकर संसद तक में प्रतिनिधित्व का संकट खड़ा हो जाएगा.
कांग्रेस यूपी में बसपा को साथ लाने की कोशिश में लगी है. इसके लिए कई दौर की बातचीत हो चुकीं है. बताया जाता है कि बसपा दिसंबर के बाद इंडिया गठबंधन में शामिल हो जाएगी. हालांकि इसकी कोई आधिकारिक पुष्टि नहीं हुई है. वहीं जिस तरह से महिला आरक्षण बिल पर मायावती ने भाजपा के साथ कांग्रेस पर भी कटाक्ष किया है, उससे इस बात की भी संभावना है कि मायावती एकला चलो की राह पर कायम रह सकती हैं. हालांकि सियासत में कभी भी कुछ भी हो सकता है.
इस बीच बसपा के गठबंधन में शामिल नहीं होने पर कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे को यूपी में दलित चेहरे के रूप में उतारने की भी चर्चा है. कहा जा रहा है कि मल्लिकार्जुन खरगे यूपी की सुरक्षित सीट मोहनलालगंज, अंबेडकरनगर, नगीना या इटावा से चुनाव लड़ सकते हैं. इसकी संभावनाओं को तलाशा जाने लगा है. उनके यूपी से चुनाव लड़ने पर न सिर्फ कांग्रेस कार्यकर्ता पूरे जोश से सक्रिय होंगे, बल्कि दलित मतदाताओं को भी अपने पाले में करने में पार्टी को मदद मिलेगी. पार्टी इस पर काम कर रही है. हालांकि कांग्रेस की ओर से इसका खुलासा नहीं किया गया है. लेकिन माना जा रहा है कि पार्टी इन संभावनाओं पर बेहद गंभीर है.
चुनाव चिह्न (आरक्षण और आवंटन आदेश, 1968) में कहा गया है कि एक राजनीतिक दल को एक राष्ट्रीय दल के रूप में मान्यता दी जा सकती है. यदि वह कम से कम तीन अलग-अलग राज्यों से लोकसभा में 2 प्रतिशत सीटें जीतता है, लोकसभा या विधानसभा चुनावों में कम से कम चार या अधिक राज्यों में हुए मतदान का कम से कम 6 फीसदी वोट हासिल करता है. इसके अलावा, वह कम से कम चार लोकसभा सीटों पर जीत हासिल करता है. पार्टी को चार प्रदेशों में राज्य पार्टी के रूप में मान्यता मिलती है. निर्वाचन आयोग ने आखिरी बार 2016 में नियमों में संशोधन किया था, ताकि पांच के बजाय हर 10 साल में राष्ट्रीय और राज्य पार्टी की स्थिति की समीक्षा की जा सके.
बसपा की स्थापना कांशीराम ने 14 अप्रैल 1984 में की थी. बसपा के 13वीं लोकसभा (1999-2004) में के 14 सदस्य थे. 14वीं लोक सभा (2004- 2009) में यह संख्या 17 और 15वीं लोक सभा 2009-2014 में यह संख्या 21 थी. वहीं 16वीं लोकसभा (2014- 2019) में बसपा का एक भी सांसद नहीं रहा. मगर, 17वीं लोकसभा (2019) में सपा गठबंधन का फायदा मिला और पार्टी के 10 सांसद हैं. बसपा दलित-पिछड़े और अल्पसंख्यकों के लिए संघर्ष करने की तैयारी में है. इन्हीं की बदौलत फिर से चुनावी मैदान में उतरने पर काम कर रही है.
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यूपी विधानसभा चुनाव 2022 से पहले भी बसपा-कांग्रेस के बीच गठबंधन की कोशिश हुई थी. बताया जाता है कि तब तय हुआ था कि विधानसभा की 125 सीटों पर कांग्रेस और शेष 278 सीटों पर बसपा लड़ेगी. यह खबर लीक हो गई और फिर सत्ता पक्ष की ओर से ऐसी परिस्थितियां पैदा कर दी गईं कि बसपा को कदम पीछे खींचने पड़े. चुनाव के बाद राहुल गांधी ने सार्वजनिक रूप से कहा भी था कि हम बसपा को आगे रखकर यूपी में विधानसभा चुनाव लड़ना चाहते थे, पर वह तैयार नहीं हुई.
I-N-D-I-A गठबंधन की उत्तर प्रदेश में स्थिति की बात करें तो अभी ये साफ नहीं हो पाया है कि सीटों का बंटवारा किस आधार पर होगा. समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव चाहते हैं कि जल्द से जल्द इस पर फैसला हो जाए ताकि वह उम्मीदवारों का नाम तय कर सकें. सपा की कोशिश है कि उसके नेता ज्यादा से ज्यादा समय संबंधित लोकसभा क्षेत्र में दे सकें, इसलिए टिकटों का समय से बंटवारा होना जरूरी है. वहीं कांग्रेस की कोशिश है कि सीटों का बंटवारा पांच राज्यों के चुनाव परिणाम आने तक टाल दिया जाए, जिससे वह अपनी ताकत के हिसाब से राज्यों में गठबंधन के साथियों से सीटों पर बात कर सकें.
संभावना है कि इस दौरान कांग्रेस मायावती को गठबंधन में शामिल होने के लिए और तेजी से प्रयास करेगी. कांग्रेस अगर राज्यों में अच्छा प्रयास करती है तो वह समझाने में सफल हो सकती है. हालांकि सीटों का बंटवारा इतना आसान नहीं है. कहा जा रहा है कि अखिलेश यादव ने 40 ऐसी सीटें तय कर ली हैं, जिस पर वह पीछे हटने से तैयार नहीं होंगे. इसके अलावा राष्ट्रीय लोकदल दल का दावा 8 सीटों पर है. इसी तरह अपना दल कमेरावादी भी लोकसभा की एक सीट पर अपना उम्मीदवार उतार सकती है. ऐसे में सीटों का बंटवारा किस आधार पर होगा, ये बड़ा सवाल है. अगर मायावती गठबंध में शामिल हो भी जाती हैं तब सीटों को लेकर और मारामारी होना तय है. न तो अखिलेश यादव और न ही मायावती सीटों की संख्या को लेकर समझौते के पक्ष में हैं, ऐसे में उत्तर प्रदेश में गठबंधन को बनाए और बचाए रखने की बड़ी जिम्मेदारी कांग्रेस पर है, साथ ही उसे अपने कार्यकर्ताओं और टिकट लड़ने के इच्छुक नेताओं की इच्छा का भी ध्यान रखना होगा.
कांग्रेस चाहती है कि उत्तर प्रदेश में सीट शेयरिंग में 2009 के फार्मूले को अपनाया जाए. 2009 में कांग्रेस ने उत्तर प्रदेश की 21 सीटों पर जीत हासिल की थी. वहीं 2014 में वह मात्र दो और 2009 में एक सीट रायबरेली पर ही जीत हासिल कर सकी. अमेठी में राहुल गांधी को स्मृति ईरानी से शिकस्त का सामना करना पड़ा. वहीं 2019 के चुनाव में सपा को पांच सीटें मिली थी. हालांकि बाद में इनमें से दो सीटें आजमगढ़ और रामपुर उसने उपचुनाव में गंवा दी. इस तरह से वर्तमान में सपा के पास मैनपुरी, मुरादाबाद और संभल लोकसभा तीन सीटें हैं. राष्ट्रीय लोकदल के पास फिलहाल एक भी लोकसभा सीट नहीं है. 2024 के लोकसभा चुनाव से उसे भी बड़ी उम्मीद हैं.
रिपोर्ट- मुहम्मद साजिद, बरेली