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मायावती को क्यों देनी पड़ रही है गठबंधन पर सफाई, मजबूरी या सियासी दांव, जानें NDA और I-N-D-I-A से दूरी की वजह

मायावती लगातार कोशिश में जुटी हैं कि उनके वोटर किसी बात को लेकर भ्रमित नहीं हों, इसलिए वह कांग्रेस और भाजपा दोनों की ही आलोचना कर रही हैं. उनकी कोशिश है कि अपने दम पर ज्यादा से ज्यादा सीटें जीती जा सकें, जिससे चुनाव परिणाम के बाद स्पष्ट बहुमत नहीं मिलने की स्थिति में उनकी पार्टी की अहमियत बढ़ सके.

Loksabha Ekection 2024: लोकसभा चुनाव, 2024 को लेकर सियासी दल सियासी रणनीति साधने में जुटे हैं. प्रमुख रूप से लड़ाई दो गठबंधनों इंडियन नेशनल डेमोक्रेटिक इंक्लूसिव एलायंस (I-N-D-I-A) और राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (NDA) के बीच है. हालांकि कुछ दल दोनों गठबंधनों से किनारा करते हुए सही वक्त का इंतजार कर रहे हैं. इन्हीं में से बहुजन समाज पार्टी पर सभी की निगाह लगी हुई है. अटकलें लगाई जा रही हैं कि बसपा सुप्रीमो मायावती चुनाव से पूर्व कोई अहम फैसला कर सकती हैं. हालांकि, मायावती लगतार दोनों गठबंधनों से दूरी बनाए रखने की बात कह रही हैं. वह इस तरह की अटकलों को विरोधी दलों की साजिश का हिस्सा भी बता रही हैं. उन्होंने कहा है कि बसपा हर हाल में चुनाव अकेले लड़ेगी और मजबूत पार्टी बनेगी.

अकेले चुनाव लड़ने के पीछे की वजह

मायावती लगातार कोशिश में जुटी हैं कि उनके वोटर किसी बात को लेकर भ्रमित नहीं हों, इसलिए वह कांग्रेस और भाजपा दोनों की ही आलोचना कर रही हैं. उनकी कोशिश है कि अपने दम पर ज्यादा से ज्यादा सीटें जीती जा सकें, जिससे चुनाव परिणाम के बाद स्पष्ट बहुमत नहीं मिलने की स्थिति में उनकी पार्टी की अहमियत बढ़ सके. हालांकि जिस तरह से गठबंधन को लेकर मायावती लगातार अपनी स्थिति स्पष्ट कर रही हैं, उससे कई सवाल भी उठ रहे हैं कि आखिकर मायावती को बार बार ऐसा करने के लिए क्यों मजबूर होना पड़ रहा है. बरेली में बसपा से जुड़े एक नेता अपना नाम नहीं सार्वजनिक करने की शर्त पर कहते हैं कि बहनजी और उनके भाई के खिलाफ जांच चल रही हैं. उनको जांच एजेंसियों की कार्रवाई का खौफ है. इसीलिए बार-बार गठबंधन नहीं करने को लेकर सफाई देनी पड़ रही है.

भ्रमित नहीं हों, इसलिए वह कांग्रेस और भाजपा दोनों की ही आलोचना कर रही हैं. उनकी कोशिश है कि अपने दम पर ज्यादा से ज्यादा सीटें जीती जा सकें, जिससे चुनाव परिणाम के बाद स्पष्ट बहुमत नहीं मिलने की स्थिति में उनकी पार्टी की अहमियत बढ़ सके. हालांकि जिस तरह से गठबंधन को लेकर मायावती लगातार अपनी स्थिति स्पष्ट कर रही हैं, उससे कई सवाल भी उठ रहे हैं कि आखिकर मायावती को बार बार ऐसा करने के लिए क्यों मजबूर होना पड़ रहा है. बरेली में बसपा से जुड़े एक नेता अपना नाम नहीं सार्वजनिक करने की शर्त पर कहते हैं कि बहनजी और उनके भाई के खिलाफ जांच चल रही हैं. उनको जांच एजेंसियों की कार्रवाई का खौफ है. इसीलिए बार-बार गठबंधन नहीं करने को लेकर सफाई देनी पड़ रही है.

वहीं वरिष्ठ पत्रकार संजीव दिवेदी कहते हैं कि बसपा प्रमुख मायावती पुरानी सियासी नेता हैं. इसलिए वह नहीं चाहती हैं कि उनके मतदाता किसी प्रकार के भ्रम में रहें, जिसका फायदा उनके विरोधी दल उठाएं, इसलिए वह लगातार अपनी स्थिति स्पष्ट कर रही हैं. वहीं वरिष्ठ पत्रकार तारिक सईद का कहना है कि मायावती अगर I-N-D-I-A के साथ मिलकर चुनाव लड़ती हैं, तो बसपा और I-N-D-I-A दोनों को फायदा होगा, लेकिन उनके अलग लड़ने से I-N-D-I-A से अधिक बसपा को नुकसान होगा. इस बात की भी संभावना है कि बसपा के अलग चुनाव लड़ने से भाजपा को बड़ा फायदा होगा. चुनावी विशेषज्ञों का ये भी मानना है कि अंतिम समय में मायावती I-N-D-I-A के साथ ही मिलकर चुनाव लड़ेंगी.

दुष्प्रचार को लेकर सावधान रहने की नसीहत

लखनऊ में आयोजित मीटिंग में मायावती ने एक बार फिर कहा कि पार्टी किसी भी खेमे में नहीं जाएगी. उन्होंने लोकसभा चुनाव की तैयारियों के लिए समीक्षा बैठक में कहा कि बसपा दोनों गठबंधन से दूरी बनाकर अकेले लोकसभा का चुनाव लड़ेगी. मायावती ने गठबंधन के सिलसिले में फैलाई जा रही भ्रामक खबरों से नेताओं को सावधान किया. उन्होंने कहा कि बीएसपी विरोधी ताकतें दुष्प्रचार से काम ले रही हैं. जनहित और जनकल्याण पर मायावती ने बीजेपी और कांग्रेस के रवैयै को एक माना. उन्होंने कहा कि ज्वलंत समस्याएं जैसे महंगाई, गरीबी, बेरोजगारी, आय में कमी, बदहाल सड़क, कानून व्यवस्था, स्वास्थ्य के मुद्दे दिलो दिमाग पर हावी जरूर हैं, लेकिन लोकसभा चुनाव में गंभीर मुद्दा बनने की संभावनाओं पर कहना जल्दबाजी होगा.

भाजपा-कांग्रेस पर बोला सियासी हमला

बसपा प्रमुख ने जनकल्याण और जनहित के मुद्दों पर बीजेपी और कांग्रेस का रवैया लगभग एक जैसा बताया. उन्होंने कहा कि एससी, एसटी और ओबीसी को मिले आरक्षण के अधिकार को निष्प्रभावी करने की कोशिश जारी है. ऐसे में आरक्षण को बेरोजगारी दूर करने का कारण नहीं बनने देना चाहिए. उन्होंने जातिवाद के आधार पर आर्थिक शोषण, नाइंसाफी और गैर बराबरी पर भी चिंता जताई. मायावती ने कहा कि समाज और सरकार में गैर बराबरी वाली नीयत और नीति जारी रहेगी, तब तक आरक्षण का सही लाभ लोगों को नहीं मिल पाएगा. बैठक में मायावती ने बुलडोजर की कार्रवाई पर भी सवाल खड़े किए. उन्होंने कहा कि एक शख्स की सजा घोषित होने से पहले पूरे परिवार को दंडित किया जाना घोर जनविरोधी कदम है. इससे आम जनजीवन प्रभावित हो रहा है और लोगों की परेशानी बहुत बढ़ रही है.

राष्ट्रीय दल का दर्जा बचाना चुनौती

मौजूदा सियासी परिस्थितियों की बात करें तो I-N-D-I-A में शामिल दलों के नेताओं से लेकर एनडीए तक की निगाह बहुजन समाज पार्टी (बसपा) की तरफ लगी है. क्योंकि, यूपी में दलित (एससी) वोट करीब 22 फीसद है. यह वोट बसपा सुप्रीमो मायावती का कोर वोट माना जाता था. हालांकि, यूपी विधानसभा चुनाव 2022 में बसपा को करीब 12.5 फीसद वोट मिला, जिसके चलते वर्ष 2007 चुनाव में पूर्ण बहुमत की सरकार बनाने वाली बसपा का सिर्फ एक विधायक जीत पाया. बसपा का वोट फीसद लगातार कम हो रहा है. यह वोट भाजपा के साथ ही सपा में शिफ्ट होने लगा है. मगर, लोकसभा चुनाव 2024 में कांग्रेस भी दलित वोट साधने में जुटी है. इसकी जिम्मेदारी कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष मलिकार्जुन खरगे संभाल रहे हैं.

इस लोकसभा में बसपा अकेले लड़ती है, तो 5 से 7 फीसद वोट लेने की उम्मीद जताई जा रही है. मगर, बाकी 5 से 7 फीसद एससी वोट भाजपा में शामिल हो सकता है. इससे I.N.D.I.A का खेल बिगड़ने का खतरा है. हालांकि, अकेले चुनाव लड़ने से बसपा को सबसे बड़ा नुकसान है. बसपा का राष्ट्रीय दल का दर्जा खतरे में है. बसपा का वोट प्रतिशत लगातार गिरता जा रहा है. यूपी विधानसभा चुनाव 2022 में 1993 के बाद सबसे कम मत मिले हैं. यह घटकर सिर्फ 12.5 फीसद रह गए. इससे पार्टी काफी खराब दौर में पहुंच गई है. यूपी में 22 फीसदी दलित हैं, लेकिन पार्टी को 12.5 फीसदी वोट मिलना, यह साफ संकेत है कि पार्टी का अपना बेस वोटर भी पार्टी से दूर हो गया है.

2007 के बाद से गिरने लगा जनाधार

यूपी में बसपा ने 2007 में पूर्ण बहुमत की सरकार बनाई थी. मगर, इसके बाद 2022 चुनाव में सिर्फ एक ही विधायक बना. दिल्ली एमसीडी चुनाव में एक फीसद से कम वोट मिले थे. बीएसपी का ग्राफ 2012 यूपी विधानसभा चुनाव से गिर रहा है. 2017 में बीएसपी 22.24 प्रतिशत वोटों के साथ सिर्फ 19 सीटों पर सिमट गई. हालांकि, 2019 लोकसभा चुनाव में वोट प्रतिशत में इजाफा नहीं हुआ. लेकिन, एसपी के साथ गठबंधन का फायदा मिला और 10 लोकसभा सीटें पार्टी ने जीतीं थीं. ऐसे में बीएसपी की आगे की राजनीतिक राह काफी मुश्किल है. उसको राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा बचाने के साथ ही पार्टी के अस्तित्व को बचाने के लिए इंडिया गठबंधन में रहना मजबूरी होगी. इसके साथ ही विधानमंडल से लेकर संसद तक में प्रतिनिधित्व का संकट खड़ा हो जाएगा.

बसपा के साथ नहीं आने पर कांग्रेस का प्लान बी

कांग्रेस यूपी में बसपा को साथ लाने की कोशिश में लगी है.इसके लिए कई दौर की बातचीत होने की चर्चा है. संभावना जताई जा रही है कि बसपा दिसंबर के बाद इंडिया गठबंधन में शामिल हो जाएगी. मगर, बसपा के शामिल नहीं होने पर कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष मलिकार्जुन खरगे को यूपी में दलित चेहरे के रूप में उतारा जाएगा. उनको यूपी की सुरक्षित सीट बाराबंकी, मोहनलालगंज, अंबेडकरनगर, नगीना, या इटावा से चुनाव लड़ाने की संभावनाओं को तलाशा जाने लगा है.

यह है राष्ट्रीय दल बरकरार रखने का नियम

राष्ट्रीय दल के नियम के मुताबिक चुनाव चिह्न (आरक्षण और आवंटन आदेश, 1968) में कहा गया है कि एक राजनीतिक दल को एक राष्ट्रीय दल के रूप में मान्यता दी जा सकती है, यदि वह कम से कम तीन अलग-अलग राज्यों से लोकसभा में 2 प्रतिशत सीटें जीतता है. लोकसभा या विधानसभा चुनावों में कम से कम चार या अधिक राज्यों में हुए मतदान का कम से कम 6 फीसदी वोट हासिल करता है. इसके अलावा वह कम से कम चार लोकसभा सीटों पर जीत हासिल करता है. चुनाव आयोग ने आखिरी बार 2016 में नियमों में संशोधन किया था, ताकि पांच के बजाय हर 10 साल में राष्ट्रीय और राज्य पार्टी की स्थिति की समीक्षा की जा सके.

लोकसभा में बसपा की ताकत

बसपा की स्थापना कांशीराम ने 14 अप्रैल 1984 में की थी. इस पार्टी का राजनीतिक प्रतीक (चुनाव चिह्न) हाथी है. बसपा के 13वीं लोकसभा (1999-2004) में 14 सदस्य थे. 14वीं लोक सभा (2004- 2009) में यह संख्या 17 और 15वीं लोक सभा 2009-2014 में 21 थी. इसके बाद 16वीं लोकसभा (2014- 2019) में बसपा का एक भी सांसद नहीं था. इसके बाद 17वीं लोकसभा (2019) में बसपा को सपा के साथ गठबंधन का फायदा मिला. बसपा के 10 सांसद हैं. वहीं बसपा इस बार इससे ज्यादा सीटों पर जीत हासिल करने के लिए पुरजोर कोशिश में जुटी है. इसलिए वह दलित-पिछड़े और अल्पसंख्यकों मतदाताओं पर फोकस कर रही है.

रिपोर्ट- मुहम्मद साजिद, बरेली

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