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300 वर्ष पुरानी है भगवान जगन्नाथ की रथयात्रा, आज भाई-बहन संग मौसी के घर गुंडिचा मंदिर जायेंगे प्रभु

रथयात्रा में आस्था की डोर खींचने के लिए भक्त सालभर इंतजार करते हैं. मान्यता है कि आषाढ़ शुक्ल की द्वितीया तिथि को आयोजित होने वाली रथयात्रा की प्रथा प्राचीन काल से चली आ रही है.

खरसावां, शचिंद कुमार दाश: प्रभु जगन्नाथ 20 जून को बड़े भाई बलभद्र व बहन सुभद्रा के साथ रथ पर सवार होकर मौसीबाड़ी गुंडिचा मंदिर जायेंगे. 28 जून को फिर भाई-बहन संग श्रीमंदिर लौटेंगे. श्री मंदिर से रथ पर सवार होकर मौसीबाड़ी जाने को रथयात्रा, गुंडिचा यात्रा या घोष यात्रा कहा जाता है. श्री जगन्नाथ की रथयात्रा विभिन्न धर्म, जाति के बीच सामंजस्य स्थापित करता है. रथयात्रा ही एक मात्र ऐसा समय होता है जब मनुष्यों में किसी तरह का भेदभाव नहीं होता है. सभी एक समान होते हैं. श्री जगन्नाथ की वार्षिक रथयात्रा प्रभु के प्रति भक्त की आस्था, मान्यता व परंपराओं की यात्रा है.

शास्त्र व पुराणों में भी स्वीकार किया गया है रथ यात्रा की महत्ता

रथयात्रा में आस्था की डोर खींचने के लिए भक्त सालभर इंतजार करते हैं. मान्यता है कि आषाढ़ शुक्ल की द्वितीया तिथि को आयोजित होने वाली रथयात्रा की प्रथा प्राचीन काल से चली आ रही है. शास्त्रों व पुराणों में भी रथयात्रा की महत्ता को स्वीकार किया गया है. स्कंद पुराण में कहा गया है कि रथयात्रा में जो व्यक्ति श्री जगन्नाथ जी के नाम का कीर्तन करता हुआ गुंडिचा मंदिर तक जाता है, वह सीधे भगवान श्री विष्णु के उत्तम धाम को जाते हैं. जो व्यक्ति गुंडिचा मंडप में रथ पर विराजमान जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा देवी के दर्शन करते हैं, उन्हें मोक्ष की प्राप्ति होती है.

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जीवंत होती है राजवाड़े के समय से चली आ रही उत्कलीय परंपरा

रथयात्रा में न सिर्फ प्रभु के प्रति भक्त की भक्ति दिखायी देती है, बल्कि राजवाड़े के समय से चली आ रही समृद्ध उत्कलीय परंपरा भी जीवंत हो जाती है. मान्यता है कि रथयात्रा एक मात्र ऐसा मौका होता है, जब प्रभु भक्तों को दर्शन देने के लिए श्रीमंदिर से बाहर निकलते हैं और रथ पर सवार प्रभु जगन्नाथ के दर्शन से ही सभी पाप कट जाते हैं.

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रथयात्रा की विशेषता

जिले में पुरी की तर्ज पर पारंपरिक रूप से रथयात्रा निकलती है. यहां 300 वर्ष से भी अधिक समय से रथ यात्रा का आयोजन हो रहा है. रथयात्रा के दौरान सदियों पुरानी परंपरा देखने को मिलती है. रथयात्रा के समय विग्रहों को मंदिर से रथ तक पहुंचाने के समय राजा सड़क पर चंदन छिड़क कर झाड़ू लगाते हैं. इस परंपरा को छेरा पोंहरा कहा जाता है. इसी रस्म अदायगी के बाद रथयात्रा की शुरुआत होती है. रथ के आगे भक्तों की टोली भजन कीर्तन करते आगे बढ़ती है. भले ही राजपाट चली गयी हो, लेकिन राजवाड़े के समय शुरू परंपरा आज भी निभाई जाती है.

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रथयात्रा को देखने बाहर से पहुंचते हैं श्रद्धालु

खरसावां के हरिभंजा, बंदोलोहर, गालूडीह, दलाईकेला, जोजोकुड़मा, सरायकेला, सीनी, चांडिल, रघुनाथपुर व गम्हरिया में भी भक्तिभाव से रथयात्रा का आयोजन होता है. हरिभंजा में जमीनदार नर्मदेश्वर सिंहदेव के समय शुरू रथयात्रा करीब 250 साल पुरानी है. यहां में बाहर से भी लोग रथयात्रा देखने के लिए पहुंचते हैं. सरायकेला में रथयात्रा पर आठ दिनों तक मेला भी लगता है. साथ ही भगवान जगन्नाथ, बलभद्र व देवी सुभद्र के अलग वेशों में रूप सज्जा की जाती है. खरसावां में भी रथयात्रा के दौरान उत्कलीय परंपरा की झलक दिखायी देती है. चांडिल में पुरी की तर्ज पर तीन अलग अलग रथों पर सवार हो कर प्रभु जगन्नाथ, बलभद्र व देवी सुभद्रा गंडिचा मंदिर पहुंचते हैं. इसी कारण स्थानीय ओडिया संस्कृति को श्री जगन्नाथ संस्कृति भी कहा जाता है.

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