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हाईकोर्ट ने दुष्कर्म पीड़िता को गर्भपात के लिए मेडिकल सुविधा और मुआवजा देने का दिया आदेश, जानें पूरा मामला

Allahabad High Court News: इलाहाबाद हाईकोर्ट ने नाबालिग दुष्कर्म पीड़िता को अपने 29 सप्ताह के गर्भ को समाप्त करने की मांग की याचिका पर सुनवाई की. कोर्ट ने पीड़िता को पर्याप्त मेडिकल सुविधा और मुआवजा देने का आदेश दिया है

Allahabad High Court News: इलाहाबाद हाईकोर्ट ने नाबालिग दुष्कर्म पीड़िता को ‘रानी लक्ष्मी बाई महिला सम्मान कोष’ योजना के तहत पर्याप्त चिकित्सा सुविधाएं और मुआवजा दिए जाने का निर्देश दिया है. पीड़िता ने कोर्ट में याचिका दायर कर अपने 28 सप्ताह के गर्भ को समाप्त करने की अनुमति मांग रही थी. मगर उसके पिता अपनी बेटी का मेडिकल रिपोर्ट देखने के बाद गोद लिये जाने तक नवजात शिशु की देखभाल करने के लिए तैयार हो गए. कोर्ट ने इसे देखते हुए पीड़िता को पर्याप्त मेडिकल सुविधा और मुआवजा देने का आदेश दिया.

जस्टिस महेश चंद्र त्रिपाठी और जस्टिस प्रशांत कुमार की पीठ ने कहा कि कोर्ट के आदेश के अनुपालन में पीड़िता की जांच करने वाले मेडिकल बोर्ड ने सर्वसम्मति से राय दिया है कि पीड़िता किसी भी ऑपरेशन से गुजरने के लिए मेडिकल रूप से फिट है. लेकिन भ्रूण की प्री मैच्योरिटी को देखते हुए नवजात जीवित रह भी सकता है और नहीं भी. जब मेडिकल बोर्ड की राय से पीड़िता के पिता को अवगत कराया गया तो उन्होंने शपथ पत्र दाखिल कर कहा कि वह बच्चे के जन्म तक और उसके बाद गोद लेकर उसकी देखभाल करने के लिए तैयार हैं.

रानी लक्ष्मीबाई महिला सम्मान कोष से अनुग्रह राशि देने का दिया निर्देश

हालांकि, उन्होंने कोर्ट से अनुरोध किया कि चिकित्सा सुविधा का खर्च, गोद लेने तक नवजात शिशु का रखरखाव और अन्य सुविधाएं राज्य द्वारा दी जाए. कोर्ट ने इस पर पीड़िता और उसके परिवार के सदस्यों की दयनीय वित्तीय स्थिति को देखते हुए जिला अस्पताल चंदौली और यदि आवश्यक हो तो सर सुंदरलाल अस्पताल बीएचयू में पर्याप्त चिकित्सा सुविधाएं प्रदान करने का आदेश दिया है. साथ ही जिला मजिस्ट्रेट, चंदौली को ‘रानी लक्ष्मीबाई महिला सम्मान कोष’ योजना के तहत पीड़िता को अनुग्रह राशि प्रदान करने का निर्देश दिया है.

बता दें कि दुष्कर्म पीड़िता द्वारा हाईकोर्ट में दायर याचिका में प्रतिवादियों को उसके अवांछित गर्भ को समाप्त करने और ऐसी प्रक्रिया का खर्च वहन करने का निर्देश देने की मांग की गई थी. पीड़िता दसवीं कक्षा की छात्रा है, उसके साथ आरोपी ने कई बार दुष्कर्म और यौन उत्पीड़न किया था. पीड़िता के पिता द्वारा आरोपी के खिलाफ 18 अगस्त, 2023 को आईपीसी की धारा 363 के तहत एक प्राथमिकी दर्ज की गई थी, जिसमें जांच के दौरान जांच अधिकारी ने आईपीसी की धारा 366, 376 और POCSO अधिनियम की धारा 7/8 जोड़ दी थी.

मेडिकल जांच में 29 सप्ताह की गर्भवती

इसके बाद, पीड़िता की गर्भावस्था को समाप्त करने की याचिका 30 अगस्त, 2023 को मुख्य चिकित्सा अधिकारी, चंदौली के समक्ष उसके पिता द्वारा दायर की गई और 31 अगस्त को पीड़िता की मेडिकल जांच की गई, जिसमें यह पाया गया कि वह 29 सप्ताह और 2 दिन की गर्भवती थी. चूंकि, गर्भावस्था की अवधि 24 सप्ताह से अधिक हो चुकी थी, इसलिए इसे समाप्त करने के लिए कोर्ट से अनुमति की आवश्यकता थी.

गौरतलब है कि 4 सितंबर को मामले की सुनवाई करते हुए कोर्ट ने पीड़िता की जांच के लिए सर सुंदर लाल अस्पताल, बनारस हिंदू विश्वविद्यालय, वाराणसी के चिकित्सा अधीक्षक से प्रसूति एवं स्त्री रोग विभाग, एनेस्थीसिया विभाग और रेडियो डायग्नोसिस विभाग की अध्यक्षता में पांच सदस्यीय टीम गठित करने का अनुरोध किया था.

सुनवाई के दौरान कोर्ट ने कहा था कि यौन उत्पीड़न के मामले में एक महिला को गर्भावस्था के मेडिकल टर्मिनेशन के लिए न कहने और उसे मातृत्व की ज़िम्मेदारी से बांधने के अधिकार से इनकार करना उसके सम्मान के साथ जीने के मानव अधिकार से इनकार करने के समान होगा. क्योंकि उसे अपने शरीर पर अधिकार है, जिसमें मां बनने के लिए हां या ना कहना शामिल है.

हाईकोर्ट ने 150 रुपए प्रति माह वेतन पर काम कर रहे चौकीदार को राहत दी

इलाहाबाद हाईकोर्ट के जस्टिस इरशाद अली की पीठ ने एक स्कूल चौकीदार की याचिका पर सुनवाई करते हुए कहा कि 150 रुपये महाने का भुगतान जबरन श्रम है और यह कानून में अस्वीकार्य है. साथ ही राज्य को छह सप्ताह के भीतर याचि चतुर्थ श्रेणी कर्मचारियों के लिए स्वीकार्य न्यूनतम वेतनमान के बराबर वर्तमान वेतन का भुगतान करने का निर्देश दिया.

कोर्ट ने कहा कि चौकीदार का काम स्कूल में सुरक्षा व्यवस्था बनाए रखना है. उस पर नियमित कर्मचारियों के समान जिम्मेदारी और काम करने की अवधि शामिल हैं. यदि राज्य सरकार इतनी कम दर पर श्रम करने के लिए मजबूर करती है, जिस पर कोई भी इंसान अपना भरण-पोषण नहीं कर सकता है या यहां तक ​​​​कि अस्तित्व में भी नहीं रह सकता है, तो काम की मांग को मानवीय श्रम के शोषण, बुनियादी मानवाधिकारों और काम करने के अधिकार का उल्लंघन करने के अलावा नहीं माना जा सकता है. यह भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 के गरिमा का उल्लंघन है.

याचिकाकर्ता (अमर सिंह) ने हाईकोर्ट में याचिका दायर की और विपक्षी पक्षों को चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी के नियमित वेतनमान का भुगतान करने और चौकीदार के पद पर उनकी सेवाओं को नियमित करने के लिए आदेश देने की प्रार्थना की थी. याचिकाकर्ता ने कोर्ट को बताया कि उनकी नियुक्ति दिसंबर 1992 में हुई थी और शुरुआत में उन्हें 30 रुपये प्रति माह मिलते थे और जनवरी में वह चौकीदार के रूप में सेवाओं में शामिल हुए. 1998 में उनका वेतन 30 रुपये से बढ़ाकर 150 रुपये कर दिया गया और 1998 से उन्हें यही राशि मिल रही है.

याचिकाकर्ता के वकील ने कोर्ट में कहा कि 1992 से अन्य कर्मचारियों की तरह बिना किसी रोक के 10 साल से अधिक की सेवा (प्रतिदिन सुबह 10 बजे से शाम 4 बजे तक) पूरी की है और इसलिए, वह चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी के रूप में न्यूनतम वेतनमान पाने के हकदार है. साथ ही यह भी बताया कि उन्होंने आधिकारिक अधिकारियों को अभ्यावेदन दिया लेकिन कोई कदम नहीं उठाया गया.

कोर्ट ने याचिका पर विचार करते हुए चतुर्थ श्रेणी के लिए स्वीकार्य न्यूनतम वेतनमान के बराबर वर्तमान वेतन के भुगतान का निर्देश दिया. कोर्ट ने यह भी कहा कि याचिकाकर्ता के रोजगार की प्रकृति स्कूल में सुरक्षा बनाए रखना है और काम की प्रकृति में नियमितता, जिम्मेदारी और यदि नियमित कर्मचारियों से अधिक नहीं तो नियमित कर्मचारियों के समान काम के घंटे शामिल हैं. नतीजतन, प्रतिवादियों को छह सप्ताह की अवधि के भीतर चतुर्थ श्रेणी कर्मचारियों को स्वीकार्य न्यूनतम वेतनमान के बराबर वर्तमान वेतन का भुगतान करने के निर्देश के साथ रिट याचिका का निपटारा कर दिया गया.

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