डॉ ईश्वर गिलाडा
(स्वास्थ्य विशेषज्ञ)
हमारे देश में मानसिक स्वास्थ्य की चुनौती की गंभीरता की तुलना में उसके बारे समुचित जागरूकता एवं सक्रियता का अभाव है. जोधपुर के भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान के हालिया अध्ययन से यह बात फिर साबित हुई है. इस अध्ययन में रेखांकित किया गया है कि भारत में एक प्रतिशत से भी कम लोग अपनी मानसिक स्वास्थ्य समस्या के बारे स्वयं जानकारी देते हैं. यह अध्ययन 2017-18 के 75वें नेशनल सैंपल सर्वे के आंकड़ों पर आधारित है. ये आंकड़े ग्रामीण एवं शहरी क्षेत्र के 5.55 लाख से अधिक लोगों से जानकारी प्राप्त कर तैयार किये गये हैं. अध्ययनकर्ताओं का मानना है कि मानसिक स्वास्थ्य को लेकर समाज में जो गलत समझ है, उसकी वजह से लोग मदद या उपचार की कोशिश करने के बजाय चुप रह जाते हैं तथा उनकी समस्या बढ़ती जाती है.
मेरी राय में भारत में इस स्थिति का बड़ा कारण यह है कि एकल परिवारों की संख्या बढ़ती जा रही है और व्यवसाय या काम के चलते लोगों की बड़े परिवार से दूरी बढ़ती जा रही है, तो मानसिक स्वास्थ्य की समस्या का सामना कर रहे व्यक्ति के लिए निकट सहयोग या मार्गदर्शन पाना मुश्किल हो जाता है. पारंपरिक परिवारों में बड़े-बुजुर्ग काउंसेलर की भूमिका निभाते थे. वे किसी भी समस्या में सकारात्मक हस्तक्षेप कर सकते थे और उनकी बात मानी जाती थी. तब मानसिक स्वास्थ्य के पेशेवर परामर्श की आवश्यकता नहीं होती थी. यह आवश्यकता तब होने लगी, जब एकल परिवारों का चलन बढ़ा. ऐसे परिवारों में दो लोग और उनके बच्चे होते हैं. यदि दोनों व्यक्तियों में संतुलन है और वे एक दूसरे की समस्याओं को लेकर संवेदनशील हैं, तब तो जीवन में सहूलियत रहती है, पर जब ऐसा नहीं होता, तो दूरी भी बढ़ती है और समस्याएं भी. आज जिस प्रकार की जीवन शैली है, कामकाज का तौर-तरीका है, आर्थिक चुनौतियां हैं, भाग-दौड़ है, तो मानसिक स्वास्थ्य की चुनौती भी बढ़ रही है और उस पर पूरा ध्यान देने की जरूरत भी.
अध्ययन में यह भी पाया गया है कि धनी लोगों में अपनी समस्या बताने और उसका समाधान पाने का आंकड़ा गरीब लोगों से अधिक है. इसका कारण यह है कि धनी लोग अपने जीवन और स्वास्थ्य को लेकर अधिक सजग रहते हैं तथा वे समाज की बेकार बातों की परवाह नहीं करते हुए अपनी समस्या को पेशेवर परामर्शदाताओं या चिकित्सकों के समक्ष रख सकते हैं. चूंकि उनके पास पैसा है, तो वे बेहतर सुविधा का लाभ भी उठा सकते हैं और अपनी निजता की सुरक्षा भी कर सकते हैं. इस पहलू को देखते हुए सरकार और समाज को जागरूकता प्रसार पर अधिक ध्यान देना चाहिए. आम तौर पर मानसिक स्वास्थ्य के बारे में चर्चा हो या परामर्श या उपचार की व्यवस्था हो, वह अधिकतर बड़े शहरों में होती है. छोटे शहरों, कस्बों और गांवों में भी ऐसी सुविधा उपलब्ध करायी जानी चाहिए. प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों तथा पंचायत के माध्यम से गांवों में सूचना देने, कार्यशाला लगाने और परामर्श देने की व्यवस्था की जा सकती है. साल 2017 में नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ मेंटल हेल्थ एंड न्यूरो-साइंसेज के द्वारा राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य सर्वेक्षण कराया गया था. उस सर्वेक्षण में पाया गया था कि हमारे देश में लगभग 19.73 करोड़ लोग मानसिक समस्याओं का सामना कर रहे हैं. यह एक बहुत बड़ी संख्या है. जो ताजा अध्ययन आया है, उसमें बताया गया है कि 23 प्रतिशत से भी कम लोगों के पास मानसिक समस्याओं के लिए स्वास्थ्य बीमा है. गरीबों में यह आंकड़ा केवल 3.4 प्रतिशत है. सरकारी अस्पतालों से पांच गुना अधिक खर्च निजी अस्पतालों में होता है. मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं का सबसे अधिक उपचार निजी क्षेत्र ही कर रहे हैं. इसका मतलब यह भी है कि सरकारी अस्पतालों में सुविधाएं या तो कम हैं या कुछ जगहों पर ही सुविधाएं उपलब्ध हैं. इस खाई को पाटना बहुत जरूरी है, अन्यथा हम इस बड़ी स्वास्थ्य चुनौती को ठीक से संभाल नहीं सकेंगे.
यह भी ध्यान देना जरूरी है कि बच्चों में भी मानसिक स्वास्थ्य की समस्या बढ़ रही है. यदि प्रारंभ में ही उन पर ध्यान नहीं दिया गया, तो जीवन भर उन्हें परेशानी हो सकती है. अभिभावकों और शिक्षकों को अधिक सचेत होना चाहिए. कुछ स्कूलों में परामर्शदाता रखने और कार्यशाला लगाने की व्यवस्था है, पर इसके व्यापक विस्तार की आवश्यकता है. परिवार के भीतर पति एवं पत्नी, कार्यालयों में अधिकारियों और अधीनस्थ कर्मियों तथा समाज में लोगों के बीच अच्छे संबंध बनाये रखने पर ध्यान देना चाहिए. इसी प्रकार, परिवार में बुजुर्गों पर भी समय देना चाहिए, नहीं तो उन्हें लगता है कि उनकी संतानें उनका ध्यान नहीं रख रही हैं और वे मानसिक समस्या से ग्रस्त हो जाते हैं. कई बार ऐसी समस्याएं पारिवारिक और पेशेवर कारणों से पैदा होती हैं, तो कई बार आर्थिक परेशानियों से. ऐसे कारणों को ठीक से पहचान करना और उनका निदान करना जरूरी हो जाता है. इसके लिए परामर्श महत्वपूर्ण हो जाता है. लोगों को समझना चाहिए कि मानसिक स्वास्थ्य की समस्या उसी तरह से एक समस्या है, जैसे कोई शारीरिक परेशानी. मानसिक स्वास्थ्य को लेकर अगर हम सजग रहें, तो अवसाद, चिंता आदि कई परेशानियों को गंभीर होने से बचाया जा सकता है तथा आत्महत्या जैसी प्रवृत्तियों को रोका जा सकता है.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)