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भक्ति और आराधना का पुण्य काल है भादो मास

मानव जीवन में वर्षा की बहुत अहमियत है, क्योंकि पानी के बिना जीवन संभव नहीं है. वर्षा से खेतों को पानी मिलता है, पानी से फसल में अन्न आते हैं. तालाब और नदियों को फिर से भरने के लिए वर्षा ऋतु का होना जरूरी है.

भारत की सनातन परंपरा में ऋतुओं के प्रति सदैव से एक अनुराग का भाव रहा है. प्रकृति और ऋतुओं के प्रति साहचर्य की भावना ने आषाढ़ के प्रति आभार, सावन के प्रति सम्मान को प्रकट किया. जब आसमान दान के लिए उमड़ पड़ता है, जब नील गगन श्यामल चादरों से ढक जाता है तब धरती पर भादो का आगमन होता है. भादो ने भाव की बारिश से जीवन को भरपूर भरा है. जल से परिपूर्ण भादो में पूर्णतः भाव की प्रधानता है. व्रत-पर्व के माध्यम से खुद को जागृत और साधना में लीन रहने का अवसर मिलता है. सावन पूर्णिमा से 30 दिन ज्ञान, भक्ति, सत्संग और पर्वों की यात्रा शुरू होती है, जो कृष्ण और राधा के प्रेम के सुरीले सरगम से हरेक पल गूंजित होती रहती है.

बारिश की ऋतुएं जल संरक्षण, प्रकृति की उपासना, जीवन में भक्ति और उपासना व चातुर्मास के अकर्म काल में भी मन और वचन से कर्म में रहने का संदेश देती हैं. तालाब, नदियों एवं अन्य गहरे स्थलों पर जल का भरना संदेश देता है, जैसे सद्गुण स्वयं ही सज्जन पुरुष के पास आ जाते हैं, वैसे ही नदी का जल समुद्र में जाकर स्थित हो जाता है.

‘शतपथ ब्राह्मण’ में वर्षा के बारे में कहा गया है कि प्रजापति ने आदित्य से चक्षु को तत्पश्चात चक्षु से वर्षा को बनाया. वर्षा की व्युत्पति देते हुए निरुक्त में वर्णित है कि इनमें बादल बरसता है, इसीलिए वर्षा नाम पड़ा. वर्षा से खेतों को पानी मिलता है और फसल में अन्न आते हैं. तालाब और नदियों को फिर से भरने के लिए वर्षा का होना जरूरी है. जल ही जीवन है, तो सावन और भादो जल के दाता मास हैं. अतएव उनका हरेक दिन वंदनीय है. ये पूरी उदारता से बरसते हैं, तो किसान, समाज और देश की अर्थव्यवस्था सुधर जाती है. सावन की संतुष्टि और भादो की भद्रता पर साल के दस माह निर्भर होते हैं, जिनसे हमारे घर और आंगन में अन्न की प्रचुरता और जल की परिपूर्णता आती है.

वैदिक साहित्य में वर्षा ऋतु पर कई सूक्त हैं. ऋग्वेद में पर्जन्य सूक्त, वृष्टि सूक्त, प्राण सूक्त, मंडूक सूक्त का उल्लेख है. पर्जन्य सूक्त में कहा गया है कि मेघ का गरजना जीवन में सुखदायक वर्षा होने एवं सृष्टि के फलने-फूलने का संदेश है. मंडूक सूक्त में कहा गया है कि वर्षा ऋतु में मनुष्यों के दायित्व का प्रतिपादन होता है. जगत के श्रेष्ठ व्यक्तियों के लिए कहा गया है कि रात्रि के अनंतर ब्रह्म मुहूर्त में जिस समय सौम्य की वृद्धि होती है, उस समय वेदध्वनि से परमेश्व के यज्ञा का वर्णन करते हुए बारिश के आगमन का उत्सव मनाओ. रामायण के किष्किंधाकांड में श्रीराम कहते हैं, वर्षाकाल में आकाश में छाये हुए बादल जब गरजते हैं, तब बहुत सुहावन लगते हैं.

रामचरितमानस में एक चौपाई में श्री रामचंद्र जी लक्ष्मण से कहते हैं कि वर्षा में मेंढ़कों की ध्वनि इस तरह सुनायी देती है, जैसे ब्रह्मचारीगण वेद पढ़ रहे हों. पेड़ों पर नये पत्ते निकल आये हैं. एक योगी के मन को यह विवेक देने वाला है.

दादुर धुनि चहु दिसा सुहाई।

वेद पढ़हिं जनु बटु समुदाई।।

नव पल्लव भए बिटप अनेका।

साधक मन जस मिलें विवेका।।

भारतीय मनीषा और परंपरा ने ऐसी व्यवस्था की है कि प्रकृति का संग सदैव जीवन के साथ चलता रहे. साथ ही जीवन की विकृतियों को दूर करने के लिए पर्व, व्रत और उत्सव का उपकर्म बनाया गया. भादो में स्नान, दान और व्रत करने से पापों का नाश होता है. चातुर्मास में भादो तो पूर्णतः अध्ययन, सत्संग और आराधना का काल है. इसे शून्य मास भी कहा जाता है, क्योंकि इसमें लोक व्यवहार के कार्य निषेध होते हैं. मान्यता है कि यह माह गलतियों के प्रायश्चित करने के लिए श्रेष्ठ है. यह भारतीय संस्कृति एवं ऋषियों की खूबी रही कि उसने नकारात्मकता में भी सकारात्मकता की खोज की. तो आइए, हम अकर्म पथ पर अपने तप, व्रत, ज्ञान और साधना से जीवन को सुरीला और सहज बनायें.

शुक्ल पक्ष की तृतीय तिथि से कई तीज-त्योहार

सावन शंकर का माह है, तो भादो श्रीकृष्ण का महीना. इस माह में श्रीकृष्ण का जन्मोत्सव भादो के कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि को मनाया जाता है, तो शुक्ल पक्ष की अष्टमी तिथि को जगतजननी राधामाता का जन्मोत्सव होता है. समूचे माह पर्व और त्योहार का आयोजन होता है. शुक्ल पक्ष की तृतीय तिथि से पर्वों का अनुष्ठान शुरू हो जाता है. तृतीय को हरितालिका तीज के दिन भारतीय महिलाएं सौभाग्य का व्रत करती हैं, वहीं तृतीया तिथि को वराह जयंती मनायी जाती है. चर्तुथी को गणेश उत्सव का दिन होता है. इस दिन पूजा, उपवास और आराधना के माध्यम से जीवन में शुभ और लाभ की कामना की जाती है.

शुक्ल पक्ष की एकादशी तिथि को देवझूलन के रूप में विष्णु की पूजा का विधान है, तो चर्तुदशी के दिन भगवान विष्णु के अनंत रूपों का ध्यान किया जाता है. भाद्रपद के शुक्ल पक्ष की एकादशी को लेकर मान्यता है कि श्रीविष्णु शयन के पश्चात पहली बार इसी दिन करवट बदलते हैं. इस दिन परिवर्तनी या वामन एकादाशी के रूप में पूजा-अर्चना की जाती है.वहीं भाद्रपद की संक्रांति को विश्वकर्मा की पूजा का विधान है. भाद्र पूर्णिमा को उमा-महेश्वर व्रत रखकर संयुक्त रूप से पूजा-अर्चना की जाती है.

भगवान की सेवा

शौरपुच्छ नामक वणिक ने एक बार भगवान बुद्ध से कहा- भगवन! मेरी सेवा स्वीकार करें, मेरे पास एक लाख स्वर्ण मुद्राएं हैं, वे सब आपके काम आयें. बुद्ध भगवान कुछ न बोले, चुपचाप चले गये.

कुछ दिन बाद वह पुन: तथागत की सेवा में उपस्थित हुआ और कहने लगा- ‘‘देव! यह आभूषण और वस्त्र लें. दुखियों की सेवा में काम आयेंगे. मेरे पास अभी भी बहुत-सा द्रव्य शेष है.’’

भगवान बुद्ध बिना कुछ कहे वहां से उठ गये. शौरपुच्छ बड़ा दुखी था, सोचने लगा कि वह गुरुदेव को किस तरह से प्रसन्न करे.

कुछ समय बाद वैशाली में महान धर्म सम्मेलन होनेवाला था. हजारों लोग वहां आने थे. बड़ी व्यवस्था जुटानी थी. सैकड़ों शिष्य और भिक्षु आयोजन की पूरी व्यवस्था में लगे थे. आज शौरपुच्छ ने किसी से कुछ न पूछा और चुपचाप अपने काम में जुट गया. रात बीत गयी, सब लोग चले गये, पर शौरपुच्छ बेसुध कार्य-निमग्न रहा. बुद्ध भगवान उसके पास पहुंचे और बोले- ‘‘शौरपुच्छ! तुमने प्रसाद पाया या नहीं?’’ शौरपुच्छ का गला रुंध गया. भावविभोर होकर उसने तथागत को साष्टांग प्रणाम किया. भगवान बुद्ध ने कहा- ‘‘वत्स! परमात्मा किसी से धन और संपत्ति नहीं चाहता, वह तो केवल निष्ठा का भूखा है. लोगों की निष्ठाओं में ही वह रमण किया करता है. देखो यह आज तुमने स्वयं जान लिया.’’

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