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मंदिरों की स्वच्छता की बड़ी पहल

बड़े मंदिरों से नित्य निकलने वाले निर्माल्य की मात्रा बहुत अधिक होती है. इसलिए उसका संग्रहण और परिचालन सरल होता है और उन पर आधारित उद्योग चलाने में लागत भी कम आती है, किंतु छोटे मंदिरों में इतना निर्माल्य नहीं होता, जिस पर कोई छोटा उद्योग चल सके.

अयोध्या में श्रीराम प्रतिष्ठा के अवसर के बीच मंदिरों में साफ-सफाई रखने के बारे में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का आह्वान स्वागतयोग्य है. आशा है कि यह केवल नारा बनकर न रह जाए. ईश्वर करे यह भावना बनी रहे. मंदिर परिसरों में साफ-सफाई आंदोलन की विशेष आवश्यकता है. प्रायः हमारे मंदिरों में स्वच्छता का स्तर संतोषजनक नहीं होता. मंदिर में स्थापित देवी-देवता की पूजा-अर्चना में प्रयुक्त पत्तियां, फूल, हार, फल आदि पूजा के अवशिष्ट द्रव्यों को ‘निर्माल्य’ कहा जाता है. निर्माल्य में ‘मल’ शब्द है, जिसका अर्थ गंदगी है. परिभाषा है- देवोच्छिष्टद्रव्यम् निर्माल्यम् (देवता का जूठन निर्माल्य है). गरुड़ पुराण में इसे और स्पष्ट समझाया गया है. देव पूजा में विसर्जन से पहले समर्पित वस्तु नैवेद्य है और देवता के विसर्जन के बाद उसे निर्माल्य कहा जाता है. मंदिर या देवस्थान की सफाई को ध्यान में रखते हुए शास्त्रों में निर्माल्य को उत्तारण के बाद तुरंत विसर्जित करने का विधान है. कहा गया है कि मंदिर से जो अवशिष्ट द्रव्य (निर्माल्य) निकलता है, उसे मंदिर के बाहर ईशान दिशा में एक मंडलाकार ढेर लगाकर तुरंत उसका निपटान कर देना चाहिए. घरों में नित्य पूजन के निर्माल्य को किसी पेड़ के नीचे या जल में विसर्जित करने का विधान था क्योंकि उसकी मात्रा मंदिरों की अपेक्षा बहुत कम होती है. फिर भी नित्य ऐसा करने से तालाबों और नदियों-नहरों में प्रदूषण बढ़ता है. इसलिए निस्तारण का यह समाधान अच्छा नहीं माना जा सकता.

स्मृतियों में कहा गया है कि नित्य सूर्योदय से पहले मंदिर की सफाई कर निर्माल्य का विसर्जन कर देना चाहिए. ऐसा करने में ज्यों-ज्यों देर होती है, त्यों-त्यों अधिक पाप होता है और कठोर प्रायश्चित्त करना पड़ता है. नारद पंचरात्र के अनुसार एक पहर से अधिक देर तक अगर यह निर्माल्य अनिस्तारित पड़ा रहता है, तो इस महापाप का प्रायश्चित्त नहीं हो सकता. नरसिंह पुराण भी कहता है कि न केवल निर्माल्य हटाना, बल्कि देवालय को धोने और सफाई करने से गोदान के समान पुण्य मिलता है. पाप-पुण्य और प्रायश्चित्त की बातें जाने भी दें, तो इतना तो मानना ही पड़ेगा कि गंदगी पर्यावरण और मानव जीवन के लिए हानिकारक है. मंदिर परिसर में भक्ति भावना, पवित्रता और मानसिक शांति की कल्पना की जाती है. उसमें बिखरा हुआ कूड़ा, हवा में विचरण करती दुर्गंध मन में विक्षोभ उत्पन्न करती है. कहा भी जाता है कि स्वच्छता भक्ति से बढ़कर है और स्वच्छता में देवत्व का निवास होता है. स्वच्छता से हमारे विचारों और आचरण में भी स्वच्छता और पवित्रता आती है. विचार स्वच्छ हैं, तो मन आनंदित रहेगा और तब धर्म और उसका अर्थ समझ में आयेगा, अन्यथा दोनों को समझने में हम असफल रहेंगे.

वस्तुत: स्वच्छता का संबंध हमारी उन आदतों से अधिक है, जिनके कारण हम आसपास को साफ-सुथरा रखने के आदी नहीं हैं. इसीलिए हमें मंदिरों में फैली गंदगी उद्वेलित नहीं करती. हम यह मान लेते हैं कि सफाई करना किसी और का काम है, इसे हम क्यों करें. गुरुद्वारों में जाने वाला प्रत्येक व्यक्ति, चाहे उसका सामाजिक स्तर कितना ही बड़ा क्यों न हो, साफ-सफाई में मन से योगदान देता है. यही नहीं, आगंतुकों के जूते-चप्पलों को झाड़ने-पोंछने से भी उन्हें कोई परहेज नहीं होता. कहीं भी सामाजिक-आर्थिक स्तर आड़े नहीं आता. इसे भी एक प्रकार की ‘कार सेवा’ जैसा पवित्र कार्य माना जाता है. मंदिर परिसरों से नित्य निकलने वाला कूड़ा मुख्य रूप से दो प्रकार का होता है- पूजा स्थल का अवशिष्ट अर्थात निर्माल्य और मंदिर परिसर का विविध प्रकार का सूखा या गीला कूड़ा, जिसकी व्यवस्था नगर निगम या ऐसी अन्य संस्थाएं करती हैं. निर्माल्य के साथ चूंकि हमारी श्रद्धा और भक्ति भावना जुड़ी होती है, इसलिए उसका निपटान अपवित्र कूड़े के साथ नहीं किया जाता.

अनेक संस्थाएं इसके लाभकारी निपटान के लिए आगे आयी हैं और निर्माल्य को एकत्रित कर इससे सुगंधित द्रव्य, अगरबत्ती, जैविक खाद, साबुन, बहु-उपयोगी बायो-एंजाइम आदि उपयोगी सामग्री का निर्माण कर रही हैं. गाय के गोबर और फूलों के कचरे के मिश्रण से वर्मी कंपोस्ट बनायी जाती है. बड़े मंदिरों से नित्य निकलने वाले निर्माल्य की मात्रा बहुत अधिक होती है. इसलिए उसका संग्रहण और परिचालन सरल होता है और उन पर आधारित उद्योग चलाने में लागत भी कम आती है, किंतु छोटे मंदिरों में इतना निर्माल्य नहीं होता, जिस पर कोई छोटा उद्योग चल सके. कुछ स्वयंसेवी संस्थाएं ऐसी पहल कर रही हैं कि ऐसे मंदिरों की पहचान सुनिश्चित कर वहां से अपने वाहनों से फूलमाला आदि एकत्र कर ठिकाने पर पहुंचाया जाए. ऐसी संस्थाओं, उपक्रमों को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए.

प्रधानमंत्री की अपील के बाद कई राजनेताओं और अन्य गणमान्य लोगों द्वारा मंदिर परिसर में सफाई करने की तस्वीरें मीडिया में प्रकाशित हुई हैं. मंदिर परिसरों की स्वच्छता के ऐसे फोटो स्वच्छता के प्रति जागरूकता का संदेश देने के लिए तो एक सीमा तक ठीक हैं, किंतु ऐसे अभियान अधिक दिन चलते नहीं. इसमें प्रदर्शन और नाटकीयता होने के कारण उद्देश्य की गंभीरता समाप्त हो जाती है. इसका वास्तविक लाभ तो तब है, जब स्वच्छता का यह कार्य हमारे रोजमर्रा के जीवन का और हमारी मंदिर संस्कृति का आवश्यक अंग बन सके. उम्मीद की जानी चाहिए कि प्राण-प्रतिष्ठा के बाद भी साफ-सफाई का यह उत्साह बना रहेगा.

(ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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