मनोज लकड़ा, रांची: आदिवासी समाज की कुछ परंपराएं वास्तव में स्त्री बोधक हैं. आदिवासी समाज के पर्व-त्योहार में भी स्त्रियों के सुखद जीवन की कामना जुड़ी हुई होती है, क्योंकि हर पर्व प्रकृति और धरती से जुड़ा हुआ है. भारतीय समाज के ढांचे में धर्म, राज, संपत्ति सब कुछ पर पुरुषों का वर्चस्व रहा है. दूसरी तरफ आदिवासी समाज में स्त्रियों की स्थिति और उनका अलग जीवन दर्शन व शैली एक सुंदर समाज का विकल्प देखने का अवसर देती है़
आदिवासी समाज में महिलाएं ही घर-परिवार के मसले में निर्णायक भूमिका निभाती हैं. नगड़ा टोली के हलधर चंदन पाहन कहते हैं कि आदिवासी समाज में स्त्री-पुुरुष में भेदभाव नहीं है. पुरुष भी घर के काम में हाथ बंटाते हैं. खेती के समय पुरुष हल चलाते हैं, तो महिलाएं रोपनी, निकाई करती हैं. दाेनोें मिल कर फसल काटते हैं. आदिवासियों मेें दहेज प्रथा नहीं होती. वधू की तलाश में लड़का पक्ष वाले ही अगुवे के साथ लड़की के घर जाते हैं.
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आदिवासी समाज में महिलाएं ही घर-परिवार के मसले में निर्णायक भूमिका निभाती हैं
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आदिवासियों में दहेज प्रथा नहीं, वधू की तलाश में लड़का पक्ष ही लड़की के घर जाता है
किसी घर की बेटी को वधू बनाने के लिए करनी पड़ती है भरपाई : शादी-विवाह में भी स्त्री पक्ष को विशेष अधिकार दिया गया है. लड़की की हां और ना का बहुत महत्व होता है. दोनों पक्ष के लोग बैठते हैं, तब समाज के लोग यह तय करते हैं कि इस घर में एक सदस्य की कमी हो जायेगी आैर इसलिए इसकी भरपाई करानी होगी. यह भरपाई दो जोड़ी बैल, बकरियां व जरूरत पड़ने पर लड़की के घर में खेतीबारी के काम में सहयोग देकर की जाती थी.
स्त्रीबोधक हैं आदिवासियों की कई परंपराएं : ओड़िशा के आदिवासियों के बीच काम कर रही कवयित्री जसिंता केरकेट्टा कहती हैं कि कोंध आदिवासियों में धरणी मां की पूजा के दौरान तैयारियां स्त्रियां ही करती हैं. धरणी मां की आत्मा को अपने ऊपर बुलाने, प्रकृति की ताल में नाचने और उनसे संवाद करने का काम स्त्रियां ही करती हैं. उस संवाद को सुनने और उसका अर्थ बताने का काम बुजुर्ग महिलाएं करती हैं. इन स्त्रियों के साथ प्रार्थना में साथ नृत्य करनेवाले पुरुष, स्त्रीवेश में उनके साथ आते हैं.
Posted by: Pritish Sahay