फ़िल्म- धक धक
निर्देशक: तरूण डुडेजा
निर्माता – तापसी पन्नू और अन्य
कलाकार: फातिमा सना शेख, संजना सांघी, दीया मिर्जा, रत्ना पाठक शाह और अन्य
प्लेटफार्म- सिनेमाघर
रेटिंग- तीन
हिंदी सिनेमा में रोड ट्रिप के बहाने महिला सशक्तिकरण के मुद्दे को हाईवे, पीकू, क्वीन जैसी फिल्मों ने सशक्त तरीके से पेश किया हैं .इसकी अगली कड़ी फिल्म धक धक है, जिसमें कार्यस्थल से लेकर घर तक में महिलाओं के साथ होने वाले भेदभाव पर टिप्पणी है. अपनी जिंदगी, अपने सपनों के लिए बेड़ियों को तोड़ने की भी बात हो रही है, जिसमें बाइक की धक-धक इस आवाज को और मुखर कर रही है. यह एक नेक नीयत से बनाई गयी फिल्म है, जो कुछ कमियों के बावजूद दिल को सुकून पहुंचाती है.
फिल्म की कहानी स्काई (फातिमा सना शेख) की है की है,जो पेशे से यूट्यूबर और बाइकर है, लेकिन सोशल मीडिया पर वायरल उसकी एक न्यूड फोटो उसकी पहचान बन चुकी है. जिसने उसकी पर्सनल प्रोफेशनल दोनों ही जिंदगियों को तहस-नहस कर दिया है. वह एक नई पहचान चाहती है, इसके लिए उसे विश्व प्रसिद्ध बार्सिलोना रेस का हिस्सा बनना है, लेकिन उसे स्पॉन्सरशिप तभी मिल पाएगी जब वह कोई ऐसा वीडियो अपने यूट्यूब पर ला सके, जिसमें कहानी भी हो. कहानी की खोज उसे 60 प्लस महिला मनजीत कौर (रत्ना पाठक) के पास ले जाती है. जो इस उम्र में ना सिर्फ बाइक राइड करती हैं, बल्कि उनका सपना है कि वह बाइकर के तीर्थ स्थान के तौर पर मशहूर खरदुंगला का सफर बाइक से तय करें.वह स्काई से मदद मांगती है. स्काई को इसमें कहानी नजर आती है, जो उसकी जरूरत है.इस रोड ट्रिप का हिस्सा उजमा (दिया मिर्ज़ा) और मंजरी (संजना) भी बनते हैं. जिंदगी और अपनों से उनकी अपनी शिकायतें हैं. 7 दिनों में खारदुंगला के शिखर पर पहुंचने के लिए ये चारों निकल पड़ती है. क्या यह जर्नी सात दिनों में पूरी होगी.क्या यह अपने मंजिल तक पहुंच पाएंगी. मंजिल महत्वपूर्ण है या रास्ते इन तमाम सवालों के जवाब यह फिल्म आगे देती है.
फ़िल्म महिला सशक्तिकरण पर है, लेकिन फिल्म ट्रीटमेंट काफी हल्का-फुल्का है. फिल्म में हल्के-फुल्के पलों की भरमार है, लेकिन गंभीर मुद्दों को भी यह फिल्म सामने ले आती है. फिल्म चार अलग-अलग उम्र और परिवेश से आयी महिलाओं की कहानी है. जिनके सपने, ख्वाहिशें और कमजोरी को बखूबी दिखाती हैं. जिंदगी से जुडी कई अहम सीख भी देती है.यह महिला प्रधान फिल्म है, लेकिन यहां पर सभी पुरुष किरदारों को नकारात्मक नहीं दिखाया गया है. विदेशी ट्रैवलर का किरदार हो, रेस्टोरेंट मैनेजर या फिर ट्रक ड्राइवर यह सभी कहानी में इन औरतों की मदद करते नजर आये हैं. तकनीकी पहलु पर आये तो यह एक रोड ट्रिप फिल्म है और सिनेमैटोग्राफी ऐसी फिल्मों का अहम किरदार होता है और यह इस फिल्म में भी नज़र आया है. खुबसूरत लोकेशंस फिल्म के अनुभव को खास बनाते हैं. फिल्म की यूएसपी इसकी सिनेमैटोग्राफी है. फिल्म के संवाद अच्छे बन पड़े हैं, जो गुदगुदाने के साथ-साथ कई मौकों पर बड़ी सीख भी दे जाते हैं. ख़ामियों की बात करें तो ये रोड ट्रिप की कहानी है लेकिन कहानी में उससे जुड़ी मुश्किलों को कम ही जगह मिल पाई है.शशि कुमारी यादव से स्काई बनने के सफर पर थोड़ा फोकस करने की जरुरत थी बस फिल्म में एक बार उसका जिक्र हुआ उसके बाद कोई बात ही नहीं हुई. प्रेमी पर हर वक्त बात हुई लेकिन परिवार वालों का जिक्र तक नहीं हुआ. स्काई के हृदय परिवर्तन को थोडा प्रभाव तरीके से दिखाने की जरूरत थी. जिसमें वह दिल्ली से वापस लेह अस्पताल पहुंच जाती है.नशे के पैकेट को पकड़े जाने पर पैसे देने के बात पर महिलाएं आपस में भिड़ती हैं, लेकिन अगले ही मौके पर दिया मिर्जा का किरदार पैसे देता नज़र आ जाता है. यह बात भी अटपटी सी लगती है .फिल्म का गीत संगीत कहानी के अनुरूप है.
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अभिनय की बात करें तो चार अभिनेत्रियों की इस कहानी में बाजी रत्ना पाठक शाह मार ले जाती है. पूरी फिल्म में उनका किरदार हंसता है, गुदगुदाता है और कई बार इमोशनल भी कर गया है. फिल्म उनके अभिनय के मजबूत कंधे पर टिकी है. ये कहना गलत ना होगा. फातिमा सना शेख ने अच्छे से साथ दिया है।दीया मिर्जा की भी अच्छी रह रही है, संजना सांघी ने किरदार की भाषा पर पकड़ बनाने की कोशिश की है, लेकिन वह उसमें री तरह से कामयाब नहीं हुई हैं.