फ़िल्म-धोखा अराउंड द कॉर्नर
निर्देशक-कुकी गुलाटी
कलाकार-आर माधवन,खुशाली कुमार, अपारशक्ति खुराना,दर्शन कुमार और अन्य
रेटिंग-डेढ़
धोखा अराउंड द कार्नर एक थ्रिलर सस्पेंस जॉनर की फ़िल्म है.जिसमें अभिनय के कई परिचित चेहरे जुड़े हैं, ट्रेलर ने भी कुछ उम्मीदें बांधी थी ,लेकिन यह फ़िल्म उन उम्मीदों पर खरी नहीं उतरती है. बेहद कमज़ोर कहानी वाली यह फ़िल्म मनोरंजन के नाम पर धोखा है.यह कहना गलत ना होगा.
एक खूंखार आतंकवादी गुल(अपार शक्ति खुराना) मुम्बई पुलिस की कैद से निकलकर एक रिहायशी बिल्डिंग के एक घर में जा पहुंचा है.वहां एक महिला सांची सिन्हा (खुशाली कुमार)को उसने बंदी बना लिया है. इस घटना के कुछ समय पहले ही सांची और उसके यथार्थ पति(आर माधवन)की खुशहाल शादी किस तरह से टूटने के कगार पर पहुँच गयी है.वह जुबिन नौटियाल के एक गाने में दिखाया जा चुका होता है.
अपनी पत्नी के होस्टेज बनने का मालूम पड़ने के साथ ही यथार्थ सिन्हा आफिस से निकल उसे बचाने के लिए वहां आ पहुंचता है और वह पुलिस को जानकारी देता है कि आंतकवादी से ज़्यादा खतरनाक उसकी पत्नी है क्योंकि डिलुशन डिसॉर्डर का शिकार है,जिसमें वह चीज़ें सोचने लगती हैं,जो है ही नहीं. उधर कमरे में आंतककवादी गुल को सांची एक अलग ही कहानी सुना रही है.वह उसे बताती है कि उसका पति उसे पागल बनाना चाहता है ताकि वह अपनी प्रेमिका के साथ मिलकर नयी ज़िन्दगी शुरू कर सके.यह प्रेमिका कोई और नहीं सांची की डॉक्टर है.
फ़िल्म की कहानी पढ़ने में दिलचस्प लग सकती है,लेकिन यह परदे पर पूरी तरह से बोझिल हैं.फ़िल्म की कहानी का मकसद है कि आप ये पता करते रहे कि असल में दोषी कौन है और असल में कौन नहीं लेकिन स्क्रीनप्ले इतना कमजोर है कि यह समझने में ज़्यादा समय नहीं लगता है. फ़िल्म के किरदारों और उनकी बैक स्टोरी पर ठीक से काम नहीं किया गया है.जिस वजह से किरदार आधे-अधूरे से लगते हैं.उनसे कनेक्शन ही नहीं जुड़ पाता है.
फ़िल्म की कहानी पर गौर करें तो सिनेमैटिक लिबर्टी के नाम पर कहानी से लॉजिक पूरी तरह से हटा दिया है. एक आतंकी जिस पर 14 लोगों की हत्या का आरोप है.उसे पुलिस बिना किसी खास पुख्ता इंतजाम के ले जा रही है.सिर्फ एक करप्ट पुलिस ऑफिसर आसानी से सबकुछ उलट पुलट सकता है.क्या ये सब इतना आसान है.स्नाइपर शॉट लगाए हुए नीचे से तैनात हैं,जबकि वह सामने की किसी बिल्डिंग में होने चाहिए थे.यह बात कोई दस साल का बच्चा भी बता सकता है गुल की बैक स्टोरी के दोनों वर्जन में सच कौन सा था.यह बताना भी निर्देशक ने आखिर में ज़रूरी नहीं समझा है. चूंकि गुल का किरदार विक्टिम आखिर में बनता है,तो यह दर्शकों पर ही छोड़ दिया गया है कि वो गुल के वर्जन वाली बैक स्टोरी को सही खुद से मान ले. एक आतंकी ने एक रिहायशी इलाके में घुसपैठ की है,लेकिन पुलिस आराम से चाय और स्मोकिंग के साथ होस्टेज के पति के साथ गुफ्तगू कर रही है.
अभिनय की बात करें तो एकमात्र अपारशक्ति खुराना हैं.जिनकी मेहनत पर्दे पर दिखती हैं.बाकी के किरदार आधे मन से फ़िल्म से एक्टिंग करते दिखे हैं.आर माधवन जैसे बेहतरीन अभिनेता ने यह फ़िल्म क्यों कर ली.यह सवाल बार-बार आता है क्या नाम्बी इफेक्ट्स में हुए खर्च के बाद वह इस तरह की फिल्में सिर्फ पैसों के लिए कर रहे हैं.दर्शन कुमार इस फ़िल्म में ओवर एक्टिंग करते दिखते हैं.खुशाली कुमार की यह पहली फ़िल्म है.उनके जिम्मे फ़िल्म में सिर्फ सेंसुअस दिखने की जिम्मेदारी आयी है. उन्हें खुद पर अभी काम करने की ज़रूरत है.
फ़िल्म के दूसरे पहलू पर जाए तो उसमें भी अच्छा कम है और बुरा ज़्यादा है.अच्छे पहलुओं की बात करें तो फ़िल्म की लंबाई छोटी रखी गयी है.यह एक सुखद पहलू है.गीत संगीत औसत है. कमज़ोर पहलुओं पर बात करें तो फ़िल्म के कमजोर स्क्रीनप्ले को बोझिल इसके संवाद बनाते हैं.कई बार तो संवाद सुनकर हंसी आ जाती है,जबकि वह फ़िल्म के मद्देनजर बहुत सीरियस संवाद थे.
इस धोखे से दूर रहने में ही समझदारी है.