पिछले वित्त वर्ष (अप्रैल 2022 से मार्च 2023 तक) में भारतीय अर्थव्यवस्था 7.2 प्रतिशत की दर से बढ़ी थी. तब अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष और विश्व बैंक ने अनुमान लगाया था कि वित्त वर्ष 2023-24 में वृद्धि दर घट कर सात प्रतिशत के आसपास रहेगी. इस अनुमान से भारतीय रिजर्व बैंक भी सहमत है, लेकिन यह बड़े अचरज की बात है कि इस वित्त वर्ष की पहली छमाही में शानदार बढ़ोतरी दर्ज की गयी है. इस अवधि में वृद्धि दर 7.7 प्रतिशत रही है, जो इन अनुमानों से बहुत अधिक है. इसकी मुख्य वजह सरकार और निजी क्षेत्र द्वारा पूंजी व्यय में 31 प्रतिशत (मुद्रास्फीति को समायोजित किये बिना नॉमिनल आंकड़ा) की बढ़ोतरी रही है. पूंजी व्यय में यह वृद्धि (जिसमें बड़ा हिस्सा सरकार का रहा है) पिछले वित्त वर्ष में हुई 11 प्रतिशत की बढ़ोतरी से बहुत ज्यादा है. ऐसे में सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में वृद्धि स्वाभाविक है. अब सरकार ने इस वित्त वर्ष की वार्षिक वृद्धि दर का अग्रिम अनुमान प्रकाशित किया है, जो 7.3 प्रतिशत है. इसका मतलब यह है कि सरकार को दूसरी छमाही में वृद्धि दर में कुछ कमी का अंदेशा है. दूसरी छमाही की अनुमानित दर 6.9 प्रतिशत के आसपास है. फिर यह आंकड़ा बहुत प्रभावी है और रिजर्व बैंक के अनुमान से अधिक है. क्या यह अनुमान बहुत आशावादी है? इसका पता हमें जल्दी ही लग जायेगा. यह अनुमान सरकार के पास उपलब्ध आंकड़ों के आधार पर निर्धारित किया गया है. इन आंकड़ों में वस्तु एवं सेवा कर समेत कर संग्रहण, वस्तुओं की ढुलाई, पर्यटकों का आगमन, निर्यात, तेल एवं ऊर्जा उपभोग आदि से संबंधित आंकड़े शामिल हैं.
लेकिन किसी को यह नहीं पता है कि बढ़ोतरी की यह गति कितनी जल्दी मंद हो जायेगी. अच्छे से अच्छे अर्थशास्त्री विशेषज्ञ मनोवैज्ञानिक नहीं होते, क्योंकि अंततः उपभोक्ता और निवेशक मनोविज्ञान एवं भावना से ही वृद्धि संचालित होती है. चालू वित्त वर्ष में उपभोग में वृद्धि दर 4.4 प्रतिशत ही है, जो जीडीपी वृद्धि दर से कम और पूंजी व्यय में वृद्धि से बहुत कम है. उपभोक्ता व्यय जीडीपी के 60 प्रतिशत हिस्से से अधिक है और वृद्धि दर को गति देने में इसका बड़ा योगदान है. यह वृद्धि इस बात पर निर्भर करती है कि पारिवारिक आय में वृद्धि कैसी है, रोजगार वृद्धि के आसार क्या हैं, आजीविका के साधनों का विस्तार कैसा है आदि. तो यह स्पष्ट है कि सरकार के अपने आकलन के अनुसार अक्तूबर से मार्च तक का समय अर्थव्यवस्था में कुछ गिरावट का दौर है. कुछ हद तक ऐसा इसलिए भी है कि पूंजी व्यय के लिए सरकार का वित्त पोषण अनिश्चित काल तक जारी नहीं रह सकता है. इससे वित्तीय घाटे पर दबाव बढ़ता है, जिसे अगर नियंत्रण में नहीं रखा गया, तो जीडीपी की तुलना में कर्ज का अनुपात 100 प्रतिशत तक जा सकता है, जैसा कि अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष ने चेतावनी दी है. इसलिए जब सरकार अपने खर्च में कमी करती है, तब अर्थव्यवस्था में वृद्धि के लिए दूसरे कारकों का प्रदर्शन बेहतर होना चाहिए.
बाकी दुनिया में जो हो रहा है, उसका असर भारत की स्थिति पर पड़ना स्वाभाविक है. वैश्विक स्तर पर सबसे विकसित अर्थव्यवस्थाओं में मंदी आने की आशंका जतायी जा रही है. भू-राजनीतिक तनावों के कारण काले बादल गहरे होते जा रहे हैं, जिससे निवेशक जोखिम उठाने से कतरा रहे हैं. दो साल से जारी रूस-यूक्रेन युद्ध के खत्म होने के आसार नजर नहीं आ रहे. इस्राइल-फिलीस्तीनी संघर्ष के मध्य-पूर्व में फैल जाने का अंदेशा भी बढ़ता जा रहा है. लाल सागर में व्यावसायिक जहाजों पर हूती समूह के हमलों ने चिंताएं बढ़ा दी हैं. वैश्विक व्यापार का आधे से अधिक यातायात इस रास्ते से होता है, पर अब बहुत से जहाज वहां से नहीं गुजर रहे हैं. कोई भी तनाव, खासकर मध्य-पूर्व में, तेल के दाम को बढ़ा सकता है, जो भारत के लिए बहुत नुकसानदेह होगा. वैसी स्थिति में मुद्रास्फीति, वित्तीय घाटा, उपभोक्ता एवं निवेशक भावना और अंततः वृद्धि पर नकारात्मक असर होगा. आम चुनाव का असर भी अर्थव्यवस्था पर पड़ सकता है. जब चुनाव आचार संहिता लागू होगी, तो विकास पर खर्च रुक जायेगा. लोकसभा के अलावा अनेक राज्यों में विधानसभा चुनाव भी होने हैं. चुनावी साल में अर्थव्यवस्था में पूंजी प्रवाह में कुछ तेजी आती है. सरकार लंबित परियोजनाओं को पूरा करने का प्रयास करती है, अधिक फाइलों का निपटारा होता है, रिक्त सरकारी पदों पर भर्ती होती है आदि. यह सब भले वित्तीय रूप से संदेहास्पद हो, पर अर्थव्यवस्था के लिए सकारात्मक है. चुनाव से पहले खर्च में तेजी का मतलब है कि चुनाव के बाद इसमें कुछ कमी आ सकती है. मौजूदा सरकार को अगर यह लगता है कि अभी कृत्रिम रूप से व्यय बढ़ाने पर उसकी वापसी निर्भर नहीं करती है, तो वह अभी खर्च में बढ़ोतरी नहीं भी कर सकती है.
आर्थिक संभावनाओं का सकारात्मक पहलू है संरचनात्मक कारकों का मजबूत होना. इसमें युवा आबादी और बढ़ता श्रम बल, तेज शहरीकरण, हरित अर्थव्यवस्था पर बढ़ता खर्च और बड़ी इंफ्रास्ट्रक्चर आकांक्षा शामिल हैं. साथ ही, सॉफ्टवेयर सेवाओं के निर्यात में लगातार तेजी बनी हुई है. जो नकारात्मक पहलू है, उसमें कमजोर उपभोक्ता खर्च, वैश्विक अनिश्चितता, तेल के दाम बढ़ने की आशंका, उच्च मुद्रास्फीति और रोजगार बढ़ने की कमजोर संभावनाएं शामिल हैं. उल्लेखनीय है कि कुल उपभोक्ता खर्च तब बढ़ेगा, जब सभी आय वर्गों के उपभोक्ता अच्छी स्थिति में हों यानी आय और रोजगार के आसार अच्छे हों. इसलिए निम्न आय वर्गों का हाल अच्छा नहीं होना चिंता का विषय है. यह उस बढ़ोतरी की कहानी का जारी रहना है, जिसमें उच्च आमदनी वाले उपभोक्ता और अधिक मूल्य की वस्तुओं एवं सेवाओं की खरीद करने वाले लोग अच्छी स्थिति में हैं, पर निचले आय वर्गों के लोग संघर्षरत हैं. वास्तविक मेहनताने में बढ़ोतरी निम्न स्तर पर है. विशेष रूप से कृषि, ग्रामीण क्षेत्र और असंगठित क्षेत्र में यह बढ़त बहुत ही कम है. यह नीति-निर्धारण के लिए एक गंभीर चुनौती है. गरीब वर्गों की आय में वृद्धि नहीं होने के अभाव की कुछ भरपाई करने की कोशिश के रूप में अस्सी करोड़ से अधिक लोगों के लिए मुफ्त राशन योजना को पांच साल के लिए बढ़ा दिया गया है. दीर्घ अवधि में तेज आर्थिक वृद्धि को बरकरार रखने के लिए जरूरी है कि यह वृद्धि व्यापक हो और अधिक समावेशी हो. संतुलित आधार पर हम इस वर्ष की अपेक्षा अगले वित्त वर्ष 2024-25 में वृद्धि दर के कम होने का अनुमान कर सकते हैं.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)