किसानों को कृषि कार्यों के लिए पैसे या वित्त की जरूरत पड़ती है. पहले के समय में सूदखोर महाजन किसानों को कर्ज दिया करते थे, लेकिन उससे किसानों की मदद कम नुकसान ज्यादा होता था. किसानों को वित्तीय मदद पहुंचाने में सहकारिता बैंकिंग की व्यवस्था काफी प्रभावी रही है. देश में एक सदी से ज्यादा समय से काम कर रहे ये सहकारी बैंक बिना फायदे की परवाह किये, जरूरतमंद लोगों को कम ब्याज पर कृषि ऋण देते हैं. प्रदेशों में त्रिस्तरीय सहकारी बैंकिंग व्यवस्था में सबसे निचले स्तर की इकाई प्राथमिक कृषि ऋण समिति या पैक्स है. ग्राम स्तर की इन सहकारी ऋण समितियों से छोटे किसानों को बहुत लाभ होता है जिनके लिए बैंकों तक पहुंचना आसान नहीं होता. पैक्स न्यूनतम कागजी कार्रवाई के साथ बहुत कम समय में किसानों को ऋण उपलब्ध करवा सकते हैं. देश में पहला पैक्स 1904 में खुला था. एक सदी से ज्यादा समय से किसानों की मदद कर रहीं इन समितियों की अहमियत को ध्यान में रख, केंद्रीय गृह एवं सहकारिता मंत्री अमित शाह ने कहा है कि देश में हर पंचायत में एक पैक्स गठित किया जायेगा.
उन्होंने कहा कि इससे अगले पांच वर्षों में तीन लाख पैक्स बनाये जा सकेंगे. पिछले साल रिजर्व बैंक की एक रिपोर्ट के अनुसार, देश में एक लाख से ज्यादा पैक्स मौजूद थे. इस संख्या को तिगुना करने के लक्ष्य के साथ-साथ अमित शाह ने यह भी कहा कि ये प्राथमिक ऋण समितियां बहुआयामी होंगी, और अब उनमें डेयरी, मछली-पालन, पेट्रोल पंप, कुकिंग गैस, खाद्यान्न और मेडिकल दुकानों के कामों को भी जोड़ा जायेगा. बदलते समय में नये तरह के कामों के लिए वित्तीय सहायता उपलब्ध कराने से गांवों की तस्वीर बदलेगी. हालांकि पैक्स को प्रभावी बनाने की राह में कुछ चुनौतियों की भी बात उठती रही है.
देशभर में पैक्स की वर्तमान संख्या से स्पष्ट है कि अभी भी ग्रामीणों की एक बहुत बड़ी आबादी इनकी सुविधाओं से वंचित हैं. पैक्स के पास संसाधन भी अपर्याप्त रहे हैं, और उन्हें कर्ज के पैसे जुटाने के लिए दूसरी बड़ी संस्थाओं पर निर्भर रहना पड़ता है. एक बड़ी समस्या एनपीए, या कर्ज के डूबने की भी है. देश में अभी मौजूद प्राथमिक ऋण समितियों में आधी से ज्यादा समितियां घाटे में हैं. इन ऋण समितियों को प्रभावी बनाने के लिए इनको वित्तीय तौर पर मजबूत बनाने की भी व्यवस्था की जानी चाहिए.