फ़िल्म-फराज
निर्देशक -हंसल मेहता
कलाकार – जहान कपूर, आदित्य रावल, जूही बब्बर, आमिर अली,सचिन और अन्य
प्लेटफार्म -सिनेमाघर
रेटिंग – तीन
रुपहले परदे पर लीग से हटकर अपरंपरागत लेकिन असल जिंदगी की कहानियों को कहने के लिए माहिर फिल्मकार हंसल मेहता, इनदिनों अपनी फराज़ को लेकर सुर्खियों में है. यह फिल्म पड़ोसी देश बांग्लादेश में हुए आंतकी हमले पर आधारित है लेकिन यह फिल्म आतंकवाद की कहानी नहीं है.यह फिल्म इंसानियत की कहानी है.
फिल्म की कहानी हमारे पड़ोसी देश बांग्लादेश की राजधानी ढाका के होली आर्टिसन कैफ़े में 1 जुलाई 2016 को हुए आतंकी हमले पर आधारित है.जिसमें सात आतंकियों ने 22 विदेशी नागरिकों की हत्या कर दी थी. जिसमें एक भारतीय महिला भी शामिल थी. कई लोगों को कई घंटों तक बंधक बनाया गया था. ढेरों सुरक्षा बल के जवान शहीद भी हुए थे. यह कहानी इस खौफनाक आंतकी घटना की कहानी भर नहीं है, बल्कि यह 20 वर्षीय मुस्लिम युवक फराज़ (जहान कपूर )के साहस और इंसानियत की कहानी है. जो अपनी भारतीय महिला मित्र और एक मुस्लिम महिला मित्र के साथ वहां मौजूद था.
आंतकियों ने मुस्लिम धर्म और बांग्लादेशी होने की वजह से फराज़ को वहां से जाने का विकल्प दिया था, लेकिन उसके दोनों दोस्तों को नहीं, क्योंकि एक महिला मित्र भारतीय नागरिक थी और दूसरी मुस्लिम होते हुए भी पश्चिमी कपड़ों में थी. फराज़ ने खुद को बचाने के विकल्प के बजाय अपने दोस्तों के साथ को चुना. मासूम लोगों की जान बचाने के लिए फराज़ बिना किसी हथियार के आंतकियों के खिलाफ बेखौफ़ खड़ा हो जाता है. वह उनसे सवाल पूछता है.इस्लाम के असल मायने वह बताता है.इस साहस और इंसानियत की कीमत फराज को अपनी जान देकर चुकानी पड़ती है.
यह फिल्म आंतकी घटना पर आधारित है, लेकिन यह फिल्म इस विषय पर बनी फिल्मों और सीरीज से अलग है. यह सुरक्षा एजेंसीज के शौर्य को नहीं एक आम आदमी के साहस को दिखाती है.कहानी को रेस अगेंस्ट टाइम के जरिए नहीं दिखाया गया है. जैसा आमतौर पर इस जॉनर की फिल्मों और सीरीज में आम है. यहां स्क्रीन पर कोई टाइमलाइन नहीं चलती रहती है, किरदारों के संवाद के जरिए बताया जा रहा है कि घटना को हुए कितने घंटे हो चुके हैं. फिल्म शुरुआत से ही आपको एंगेज कर देती है, क्योंकि दसवें मिनट में ही फिल्म अपनी मूल कहानी पर आ जाती है लेकिन क्या होगा. कैसे होगा. यह सवाल फिल्म के सेकेंड हाफ में ही मिल पाता है.दो घंटे की यह फिल्म आखिरी के 40 मिनट में आपको झकझोर देती है.
फिल्म में पुलिस कमिशनर के किरदार और संवाद के जरिए मूड को ज़रूर थोड़ा हल्का किया गया है, लेकिन विषय की संवेदनशीलता को ध्यान में रखते हुए.युवा लोगों को मजहब के नाम पर किस तरह से गुमराह किया जाता है. यह फिल्म इस पर भी अपनी बात रखती है. यह मुस्लिम समुदाय के दो अलग -अलग विचारधाराओं को सामने लाती है. एक जो इस्लाम के नाम पर लोगों की जान लेना चाहते हैं और एक जो इस्लाम के नाम पर खून खराबे को गलत मानते हैं, लेकिन स्क्रीनप्ले इन दो विचारधाराओं की टकराव उस तरह से कहानी में सामने नहीं ला पायी है, जैसी फिल्म को जरूरत थी खासकर फराज़ के किरदार और विचारधारा को थोड़ा और प्रभावी ढंग से रखने की जरूरत महसूस होती है.आख़िरकार फिल्म का शीर्षक फराज़ था. किरदारों के बैक स्टोरी को भी कहानी में अहमियत नहीं दी गयी है
अभिनय की बात करें तो इस फिल्म के जरिए शशि कपूर के बेटे जहान कपूर ने बॉलीवुड में अपनी शुरुआत की है.वे अपने सहज परफॉरमेंस से उम्मीद जगाते हैं , लेकिन बाज़ी आदित्य रावल ने मारी है. अपने किरदार में वह पूरी तरह से रचे -बसे दिखते हैं.उन्होने दमदार एक्टिंग से अपने किरदार को बेहद प्रभावी बनाया है.जूही बब्बर, सचिन और बाकी के कलाकारों ने भी अपनी भूमिका के साथ न्याय किया है.
फिल्म के दूसरे पहलुओं की बात करें तो फिल्म की सिनेमाटोग्राफी कहानी और उसके हालात को बखूबी सामने ले आती है.बैकग्राउंड म्यूजिक भी अच्छा बन पड़ा है.फिल्म के संवाद हार्ड हिटिंग हैं. तुम जैसे लोगों से अपना इस्लाम चाहिए. यह संवाद अपने आप में फिल्म की कहानी में बहुत कुछ जोड़ जाता है.
इंसानियत की बेमिसाल कहानी पर आधारित यह फिल्म सभी को ज़रूर देखनी चाहिए.