खेती-किसानी की संस्कृति वाले अपने देश की विडंबना कहें या कुछ और, गुलाम भारत में बदहाल रही खेती-किसानी को लेकर आजाद भारत में भी क्रांतिकारी बदलाव नहीं आ पाया. राजनीति का खेल कहें या शासन की नाकामी, सारे चुनावों में किसानों की स्थिति मुद्दा रही. हर राजनीतिक दल किसान, मजदूर और गरीब को ही मुद्दा बनाता रहा. पर आज भी संपूर्ण भारत भूमि को वैसी चमक हासिल नहीं हो पायी, जैसी औद्योगिक क्रांति के बाद महज डेढ़ सौ सालों में ही यूरोप ने हासिल कर लिया. बेशक भारत आज दुनिया की पांचवीं बड़ी अर्थव्यवस्था बन चुका है और तीसरी बड़ी अर्थव्यवस्था बनने की ओर अग्रसर है, लेकिन इस आर्थिक विकास का आनुपातिक हिस्सा गरीबों, मजदूरों और किसानों को नहीं मिल पाया है. मौजूदा किसान आंदोलन को लेकर अगर देश के एक बड़े वर्ग में सहानुभूति है, तो इसकी एक बड़ी वजह हमारी व्यवस्था की नाकामी से उपजा असंतुलन ही है. हमारा देश औद्योगिक और सेवा क्षेत्र का बड़ा हब बनता जा रहा है, लेकिन एक आंकड़े के मुताबिक ग्रामीण आबादी का 54 फीसदी हिस्सा सिर्फ खेती-किसानी पर ही निर्भर है. अपना देश विशाल है और स्थानीय स्तर पर लोगों की अपनी-अपनी समस्याएं भी हैं.
स्वाधीन भारत ने जिस ब्यूरोक्रेसी को अपनाया है, कई बार उसकी जड़ सोच की वजह से भी स्थानीय स्तर पर समस्याएं उपजती रहती हैं. उसकी वजह से स्थानीय स्तर पर हर समय देश के किसी ना किसी हिस्से में किसान आंदोलन होते रहते हैं. लेकिन हाल के वर्षों में बड़े किसान आंदोलन अगर हुए हैं, उनमें प्रमुख रूप से तीन-चार के ही नाम गिनाये जा सकते हैं. अस्सी के दशक में भारतीय किसान यूनियन नेता महेंद्र सिंह टिकैत की अगुवाई में हुआ आंदोलन सबसे ज्यादा उल्लेखनीय रहा है. शायद वह पहला मौका था, जब किसानों ने दिल्ली के वोट क्लब को घेर लिया था. जब नरसिंह राव ने उदारीकरण की नीतियां स्वीकार कीं, भारत विश्व व्यापार संगठन का हिस्सा बना, तब शेतकारी संगठन जैसे किसान संगठनों के नेतृत्व में खेती में विदेशी हस्तक्षेप और भारतीयता की परंपरा को खत्म करने की आशंकाओं के खिलाफ पिछली सदी के आखिरी दशक में लंबा आंदोलन चला. हरियाणा में बिजली बिल माफ करने की मांग को लेकर हुए आंदोलन को भी इस सूची में जोड़ सकते हैं. पर ये आंदोलन कभी हिंसक नहीं रहे.
अगर किंचित हिंसा हुई भी, तो उसके निशाने पर सार्वजनिक स्थल आदि ही रहे. लेकिन पिछले दो-तीन साल से हो रहे किसान आंदोलन को लेकर ऐसा नहीं कहा जा सकता. दो साल पहले 2021 की 26 जनवरी को दिल्ली में जैसी अराजकता फैलायी गयी, उसके बाद से सामान्य सहानुभूति के पात्र रहे किसानों को लेकर लोक विश्वास में दरार पड़ी. दिल्ली में नांगलोई के पास किसानों ने तब जैसे नागरिकों को निशाना बनाया था, उससे किसान संगठनों को लेकर लोगों की सोच बदली. लाल किले पर कब्जे को लेकर हुई हिंसा के बाद तो किसान आंदोलन को विदेश प्रेरित भारत विरोधी आंदोलन मानने वालों की संख्या में बढ़ोतरी हुई. किसान संगठनों को यह मान लेना चाहिए कि भारतीय समाज के शहरी हिस्से के सरोकार किसानी से पहले वाली पीढ़ी की तरह रागात्मक नहीं रहे. शहरी समाज की अपनी चुनौतियां हैं. दिल्ली जैसे शहर में नौकरी करने वाली बड़ी जनसंख्या दूर-दराज के इलाकों में रहती है.
पिछले किसान आंदोलन के दौरान महीनों तक चली दिल्ली की घेरेबंदी के चलते उत्तर प्रदेश और हरियाणा की ओर से आने-जाने वाले लोगों को रोजाना जो दिक्कतें झेलनी पड़ीं, उसके बाद ही शहरी लोगों का नजरिया पूरी तरह बदल गया. शायद यही वजह है कि इस बार जारी आंदोलन को लेकर पारंपरिक सहानुभूति नहीं दिख रही. इस आंदोलन को लेकर यह मानने वालों की भी कमी नहीं है कि इसके पीछे विदेशी ताकतें हैं और राजनीतिक स्तर पर इसे विपक्षी दलों की ओर हवा दी जा रही है. चुनाव से ठीक पहले आंदोलन होना, उसे कांग्रेस नेता राहुल गांधी द्वारा बार- बार सहयोग देना, ममता बनर्जी और तेजस्वी यादव द्वारा आंदोलन के बहाने प्रधानमंत्री मोदी पर कटाक्ष करना आदि से लोगों की इस सोच को बढ़ावा ही मिल रहा है. किसान संगठनों के मौजूदा आंदोलन की प्रमुख मांग स्वामीनाथन समिति की सिफारिशों को लागू करना है. इनके आधार पर सभी फसलों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) घोषित करने की मांग किसान संगठन कर रहे हैं.
सवाल यह है कि स्वामीनाथन समिति ने अपनी रिपोर्ट 2006 में दी थी. उसके पूरे आठ साल बाद तक केंद्र में कांग्रेस की अगुवाई वाली ही सरकार थी. राहुल गांधी तब भी सांसद थे. तब किसानों को यह सहूलियत देने की बात राहुल और कांग्रेस को क्यों नहीं सूझी? आज के आंकड़ों पर ही भरोसा करें, तो अगर सभी फसलों पर एमएसपी घोषित कर दी जाए, तो भारत सरकार पर करीब 71 लाख करोड़ का दबाव बढ़ेगा, जबकि भारत का कुल बजट ही 47 लाख करोड़ रुपये का ही है. साफ है कि स्वामीनाथन समिति की सिफारिश पूरी तरह लागू कर पाना ना तो कांग्रेस की अगुवाई वाली सरकार के वश की बात थी और ना ही मोदी सरकार के लिए संभव है. चूंकि आज की राजनीति का लक्ष्य सिर्फ सत्ता प्राप्ति रह गया है, इसलिए हर राजनीतिक दल का सच अपना-अपना हो गया है. वह सार्वभौम या मूल सत्य पर नहीं टिका रहता. यही वजह है कि कांग्रेस किसानों को अपने दौर का सच नहीं बता रही है.
उस सरकार में शामिल ममता और लालू यादव को भी यह सच पता है. लेकिन वे भी मौजूदा सरकार को ही किसानों की बदहाली के लिए जिम्मेदार बता रहे हैं. अतीत का किसान आंदोलन सीएए के खिलाफ उभरे आंदोलन के ठीक बाद आया था. तब दोनों आंदोलनों का स्वरूप और उसमें सक्रिय लोग समान थे. लाल किला कांड के बाद हुई जांच और गिरफ्तारियों से पता चला कि विदेशी ताकतें भी इन आंदोलनों के बहाने देश को अस्थिर करने की कोशिश में लगी रहीं. इसी वजह से इस बार के किसान आंदोलन को लेकर देश में गहरी सहानुभूति नहीं दिख रही. देश का एक बड़ा तबका मानने लगा है कि इस आंदोलन का मकसद विपक्षी दलों के लिए आगामी चुनावों में सियासी पिच तैयार करना है. लोग यह भी मानने लगे हैं कि इस आंदोलन का मकसद दिल्ली को बंधक बनाकर देश की छवि भी बिगाड़ना है. यह बात और है कि किसानों की भावना इस तरह से भड़कायी गयी है कि उन्हें आंदोलन के पीछे के राजनीतिक लक्ष्य नजर नहीं आ रहे. (ये लेखक के निजी विचार हैं.)