फ़िल्म- गांधी गोडसे एक युद्ध
निर्देशक – राजकुमार संतोषी
कलाकार – दीपक अंतानी, चिन्मय मांडेलकर, तनीषा संतोषी, अनुज सैनी और अन्य
प्लेटफार्म – सिनेमाघर
रेटिंग – दो
90 के दशक के नेशनल अवार्ड विनिंग निर्देशक राजकुमार संतोषी ने गांधी गोडसे एक युद्ध के साथ एक अरसे बाद फिल्म निर्देशन में वापसी की है. यह फिल्म सिनेमा के उस जॉनर का प्रतिनिधित्व करती हैं. जो विदेशी फिल्मों में आम है, ऐतिहासिक किरदारों को लेकर एक ऐसी कहानी को बयां करना जो कभी हुआ ही नहीं था. किरदार रियल लेकिन कहानी अनरियल. भारतीय फिल्मों के लिए यह विषय लगभग नया है, हालांकि निर्देशक राजामौली ने अपनी फिल्म आरआरआर में आजादी की लड़ाई के दो महानायकों को एक साथ लाकर कहानी कहीं थी, जो असल जिंदगी में कभी एक दूसरे से मिले तक नहीं थे, लेकिन राजकुमार संतोषी इस मामले में एक नहीं बल्कि दस कदम आगे चले गए हैं. उन्होंने अपनी इस फिल्म में ना सिर्फ दो अलग -अलग विचारधाराओं को मानने वाले दो ऐतिहासिक किरदारों को साथ लाया है ,बल्कि एक किरदार दूसरे की हत्या के लिए भी जिम्मेदार है.यह फिल्म अपनी इस काल्पनिक कहानी में इस बात पर ज़ोर डालती है कि अगर गोडसे, गांधी से पहले मिल लेता तो वह उनकी हत्या कभी नहीं करता था. इस नेक और बेहतरीन सोच के लिए राजकुमार संतोषी तारीफ के पात्र हैं, लेकिन परदे पर कमज़ोर कहानी और स्क्रीनप्ले इसके विषय के साथ न्याय नहीं कर पाए हैं . सशक्त विषय पर बनी कमज़ोर फिल्म बनकर रह गयी है.
फिल्म की कहानी असगर वजाहत के एक नाटक से प्रेरित है. फिल्म से जुड़े लोगों की माने तो गांधीजी और गोडसे के लिखे खतों की भी मदद ली गयी है. गोडसे से खत दो साल पहले ही सार्वजनिक हुए थे. खैर इस फिल्म की कहानी पर आते हैं. फिल्म को काल्पनिक समय में स्थापित किया गया है. महात्मा गांधी, नाथूराम गोडसे के हमले से बच जाते हैं और वे दोनों मिलते हैं. जीवन में अपनी अलग- अलग विचारधाराओं पर चर्चा करते हैं. दोनो की सोच इससे कितनी बदलती है. यही फिल्म की जर्नी है.
फिल्म कि अवधि छोटी है, लेकिन अपनी मूल कहानी तक पहुंचने में इसे इंटरवल की अवधि को पार करना पड़ता है. यह बात फिल्म की अखरती है. फिल्म में गांधी और उनकी विचारधाराओं के खिलाफ लोगों और बनते माहौल पर ज्यादा फोकस कर दिया गया है. गाँधी की जिंदगी के कुछ विवादों पर यह फिल्म बात तो करती है लेकिन कोई प्रभावी जवाब नहीं दे पाती है. गांधीजी क्यों स्त्री पुरुष के प्यार को विकार मानते थे.फिल्म के आखिर में एक बहुत खूबसूरत सा संदेश भी है. जो मौजूदा माहौल में सटीक भी बैठता है लेकिन कमज़ोर कहानी और स्क्रीनप्ले ने इसके प्रभाव को पूरी तरह से कमतार बना दिया है.फिल्म को लेकर कुछ लोगों का आरोप था कि यह फिल्म महात्मा गांधी के विचारों को नकारते हुए नाथूराम गोडसे की महिमामंडन करती है, लेकिन फिल्म में ऐसा कुछ भी नहीं है.जिससे किसी की भावनाएं आहात हो. फिल्म के संवाद पर थोड़ा काम करने की जरुरत थी. फिल्म का ट्रीटमेंट कुछ ऐसा है कि कई बार कुछ दृश्य दुहाराएं से लगते हैं.
अभिनय की बात करें दीपक अंतानी अब तक 100 से अधिक नाटकों में गांधी की भूमिका को निभा चुके है. इस बार भी वह परदे पर अपने लुक, बॉडी लैंग्वेज संवाद अदाएगी से गांधी के किरदार को जीवन्त करते हैं.जिसके लिए वे बधाई के हकदार है. चिन्मय ने भी गोडसे की भूमिका में अपनी छाप छोड़ी है.तनीषा संतोषी ने इस फिल्म से हिंदी सिनेमा में अपनी शुरूआत की है. उनको अभी खुद पर बहुत काम करने की जरुरत है. पूरी फिल्म में उनका किरदार ज़्यादातर रोते हुए ही नज़र आया है. उनका किरदार और फिल्म से जुड़ी प्रेमकहानी अधूरी सी लगती है. अनुज सैनी सहित बाकी के किरदारों को करने के लिए कुछ खास नहीं थी.
फिल्म की तकनीकी पहलू की बात करें तो फिल्म को इसके लिए पूरे नंबर दिए जा सकते हैं. कहानी 1948 में सेट की गयी है. फिल्म के सेट, कपड़ों से लेकर हर किरदार के लुक में इस बात का बखूबी ध्यान रखा गया है. छोटी सी छोटी बात को फिल्म में जोड़ा गया है फिल्म की सिनेमाटोग्राफी उम्दा है.ए आर रहमान का संगीत भी फिल्म के साथ बखूबी न्याय करता है.